जानिये:-अब तक के प्रधानमंत्रियों के बारे में

स्वतंत्रता के लम्बे और रोमांचकारी क्रांतिकारी आंदोलन के परिणामस्वरूप देश 15 अगस्त 1947 को पराधीनता की बेडिय़ों को काटकर स्वाधीन हुआ। लार्ड माउंटबेटन ने जापान की सेनाओं के ब्रिटिश सेनाओं के सामने 15 अगस्त 1945 को (हिरोशिमा और नागासाकी की प्राणघाती बमवर्षा के पश्चात) आत्मसमर्पण की स्मृति में, इस घटना की दूसरी वर्षगांठ 15 अगस्त 1947 को भारत को स्वतंत्र करने की घोषणा जुलाई मध्य में की थी। यह घोषणा आनन-फानन में की गयी थी जिसके कई गंभीर परिणाम हमें भुगतने पड़े परंतु यहां उनका उल्लेख आवश्यक नहीं है। प्रसंग केवल यह है कि जैसे ही देश के स्वतंत्र होने की घोषणा कर उसकी तिथि नियत की गयी, वैसे ही देश के पहले प्रधानमंत्री की खोज आरंभ हो गयी। महात्मा गांधी की इच्छा पर अपनी श्रद्घा और त्याग के फूल चढ़ाते हुए सरदार वल्लभभाई पटेल ने अपनी प्रधानमंत्री पद की मजबूत दावेदारी वापस ली और पंडित नेहरू को देश का प्रधानमंत्री स्वीकार कर लिया। इस प्रकार देश के लोकतंत्र की पहली ईंट सरदार पटेल के उस अनुपम और अद्वितीय त्याग पर रखी गयी। यहां हम 15 अगस्त 1947 से अब तक कुल 13 प्रधानमंत्रियों के विषय में बताने का प्रयास कर रहे हैं कि अब तक के सारे प्रधानमंत्री भारत को कैसे मिले और उनका शासनकाल कब से कब तक का रहा।

पंडित जवाहरलाल नेहरू

गांधीवादी स्वतंत्रता सैनानियों में अग्रणी और गांधीजी के पटï्टशिष्य पंडित जवाहरलाल नेहरू पंडित मोतीलाल नेहरू के इकलौते बेटे थे। 15 अगस्त 1947 से लेकर 27 मई 1964 तक लगभग 17 साल इन्होंने देश पर शासन किया। इससे पूर्व सितंबर 1946 में गठित हुई अंतरिम सरकार का नेतृत्व भी नेहरू जी ने ही किया था। कमला नेहरू इनकी पत्नी थीं, जिनसे इन्हें इंदिरा प्रियदर्शिनी नामक पुत्री प्राप्त हुई। स्वतंत्रता आंदोलन के काल में ये कई बार जेल गये। नेहरू जी अच्छे लेखक भी थे। भारत एक खोज, विश्व इतिहास की झलक, एन आटोबायोग्राफी इंडिपेण्डेंस एण्ड आफ्टर, सोवियत रसा, जैसी इनकी कई पुस्तकें विश्व विख्यात रहीं।

14 अगस्त 1947 की रात्रि 12 बजे खण्डित भारत स्वतंत्र हुआ। उसके एक दो मिनट बाद (15 अगस्त की तिथि के क्षणों में ) नेहरू जी ने स्वतंत्र भारत के पहले प्रधानमंत्री के रूप में संविधान सभा को संबोधित किया। उन्होंने अपने पहले भाषण में कहा था-

सालों पूर्व हमने नियति के साथ एक करार किया था, और अब वह काल आ गया है जब हम अपनी प्रतिज्ञा पूरी करेंगे,…आधी रात ठीक 12 बजे के घंटे के साथ जब संसार सोया रहेगा, भारत तब जीवन और स्वतंत्रता के लिए जागेगा।

आजादी के तत्काल पश्चात हैदराबाद, जूनागढ़ और जम्मू-कश्मीर की समस्या सामने आयी। सरदार पटेल अन्य 563 रियासतों का विलीनीकरण भारत के साथ कर चुके थे, लेकिन ये तीन रियासतें कुछ अधिक समस्या सृजित कर रही थीं। तब हैदराबाद और जूनागढ़ की रियासत का सैनिक समाधान सरदार पटेल ने ढूंढ़ लिया और उन्हें भारत में विलीन कर दिया। लेकिन कश्मीर को नेहरू जी ने कुछ राजनीतिक कारणों से अपने पास रखा। कश्मीर की समस्या का वह स्थायी समाधान नहीं कर पाये। इनके शासनकाल में लोकतांत्रिक मूल्यों का समुचित विकास हुआ। संसद को इन्होंने पूरा समय और सम्मान देने का प्रयास किया। गांधीवादी अहिंसा को इन्होंने उसी प्रकार अपनाया जिस प्रकार सम्राट अशोक ने अपने धर्म गुरू महात्मा बुद्घ की अहिंसा को अपनाया था। फलस्वरूप देश को चीन के हमले का अपमान जनक सामना करना पड़ा। इन्होंने देश में पंचवर्षीय योजनाएं चलाईं और देश के समग्र विकास की अनेकों महत्वाकांक्षी योजनाओं का शुभारंभ किया। 1962 में हुए चीनी आक्रमण ने इन्हें तोड़ दिया, फलस्वरूप इन्हें पैरालाइसिस (लकवा) हो गया और 27 मई 1964 को वह संसार से चल बसे। उनकी समाधि का नाम शांतिवन है जो दिल्ली में यमुना तट पर है।

लालबहादुर शास्त्री

27 मई 1964 को देश ने पहली बार एक राजनेता को परलोक गमन पर गहन शोक का अनुभव किया। देश की बागडोर किसे सौंपी जाए? यह यक्ष प्रश्न अब देश के सामने था। तात्कालिक आधार पर उसी दिन यह दायित्व वरिष्ठ नेता गुलजारीलाल नंदा को सौंपा गया। जिन्होंने 13 दिन तक यानि 9 जून 1964 तक इस पद के दायित्वों का सम्पादन किया। तत्पश्चात 9 जून 1964 को विभिन्न विरोधाभासों और चुनौतीपूर्ण परिस्थितियों के अंतर्गत लालबहादुर शास्त्री को इस महान दायित्व के लिए विधिवत नेता निर्वाचित कर प्रधानमंत्री पद की शपथ दिलाई गयी। इस छोटे कद के महान नेता ने मात्र अठारह माह देश का सफल नेतृत्व किया, लेकिन इतने काल में ही देश के इतिहास में अपना स्थान स्वर्णाक्षरों में अंकित करा लिया। उनके काल में पाकिस्तान ने देश की ताकत की आजमाइश करनी चाही और उसने 1965 में भारत पर आक्रमण कर दिया। शास्त्रीजी ने बड़े धैर्य के साथ उस युद्घ का सफल नेतृत्व किया। शांति काल में भारत के इस लाल को जहां बेचारा शास्त्री माना जाता था वहीं युद्घकाल के बेचारे शास्त्री को बेवाक बहादुर मानने के लिए उनके विरोधियों को भी विवश कर दिया। युद्घ तो भारत जीत गया, पर रूस ने और कुछ अन्य विश्व शक्तियों ने शास्त्री जी को पाकिस्तान के साथ वार्ता करने के लिए विवश कर दिया। रूस के ताशकंद में वार्ता निश्चित की गयी। पाकिस्तानी सैनिक शासक अय्यूब के साथ बैठक आरंभ हुई। बैठक के दौर कई दिन तक चलते रहे। रूसी प्रधानमंत्री हर हाल में वार्ता को सफल कराना चाहते थे। अत: शास्त्री को बलात इस बात पर सहमत करा लिया गया कि भारत पाक के विजित क्षेत्रों को छोड़ देगा तथा युद्घ से पूर्व की स्थिति में दोनों देशों की सेनाएं चली जाएंगी। शास्त्री जी के लिए यह बात बड़ी कष्टïप्रद थी, इसलिए उस देशभक्त प्रधानमंत्री को इस शर्त के मानने पर गहरा सदमा लगा। अत: 11 जनवरी 1966 की रात्रि में उन्हें संदेहास्पद परिस्थितियों में ताशकंद में ही दिल का दौरा पड़ा और वह चल बसे। रूस के प्रधानमंत्री कोसिगिन ने अपने देश से भारत के इस महान सपूत को कंधा देकर विदा किया और उनके अंतिम संस्कार में सम्मिलित हुए। उनकी समाधि का नाम (दिल्ली) विजय घाट है। शास्त्री जी को प्रधानमंत्री बनते समय मोरारजी देसाई ने चुनौती दी थी। प्रधानमंत्री बनने से पूर्व वह गृहमंत्री भी रहे। नेहरू जी ने उन्हें निर्विभागीय मंत्री बनाकर अपना एक तरह से उत्तराधिकारी ही बना दिया था। उनकी नेतृत्व क्षमता और सादगी को देश आज तक श्रद्घा से याद करता है।

श्रीमति इंदिरा गांधी

11 जनवरी 1966 को शास्त्री जी के देहावसान के पश्चात वरिष्ठ कांग्रेसी नेता कामराज के हस्तक्षेप से पुन: गुलजारी लाल नंदा को ही देश का कार्यवाक प्रधानमंत्री बनाया गया। कामराज चाहते थे कि देश के नये नेता का चुनाव सर्वसम्मति से हो जाए। इसके लिए उन्होंने कांग्रेस के भीतर प्रयास भी किये लेकिन मोरारजी देसाई ने पुन: उनके प्रयासों को चुनौती दी। कांग्रेस के अधिकांश नेताओं ने पंडित नेहरू की बेटी इंदिरा गांधी को मैदान में लाकर खड़ा किया और उन्होंने मोरारजी देसाई को भारी मतों से पराजित कर दिया। तत्पश्चात देश के राष्ट्रपति सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने इंदिरा जी को 24 जनवरी 1966 को देश के तीसरे प्रधानमंत्री के रूप में शपथ दिलाई। प्रधानमंत्री बनने से पूर्व इंदिरा ने संगठन की विभिन्न जिम्मेदारियां निभाईं थीं, वह कांग्रेस की अध्यक्ष भी रहीं। शास्त्रीजी ने उन्हें सूचना एवं प्रसारण मंत्री बनाया। इस प्रकार उनके पास एक अच्छा अनुभव था। परंतु फिर भी उनका पहला भाषण कॉलिज की एक छात्रा जैसा ही था।

इंदिरा गांधी के काल में बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया गया। राजाओं के प्रीविपर्स बंद किये गये। कांग्रेस का विभाजन हुआ। वी.वी. गिरि को उन्होंने देश का अपनी पसंद का राष्टï्रपति बनाया। इलाहाबाद उच्च न्यायालय के निर्णय से भयभीत इंदिरा जी ने देश में आपातकाल की घोषणा कराई। इससे पूर्व 1971 में भारत और पाक का युद्घ हुआ तो एक चंडी के रूप में उन्होंने युद्घ का संचालन किया। अटल बिहारी वाजपेयी ने तब उन्हें चंडी की उपाधि दी थी। पाकिस्तान की 93,000 हजार सेना ने हमारे सामने हथियार डाल दिये। इतनी बड़ी सेना ने विश्व इतिहास में पहली बार आत्मसमर्पण किया। बांग्लादेश का विश्व मानचित्र पर एक स्वतंत्र राष्टï्र के रूप में जन्म हुआ। 1972 में पाकिस्तान के साथ शिमला समझौता किया। पाकिस्तान के नेता जुल्फिकार अली भुट्टïो ने नाक रगड़कर इंदिरा जी से कहा था कि मैडम अब की बार छोड़ दो फिर कभी ऐसी गलती नहीं करेंगे।

25 जून 1975 की रात्रि में लगे आपातकाल ने इंदिरा जी को गलत दिशा में मोड़ दिया। देश उससे पहले उनके साथ था, पर उनका आत्मविश्वास डगमगा गया था और वह वस्तुस्थिति का आंकलन नहीं कर पायीं। फलस्वरूप देश की जनता ने उनका साथ छोड़ दिया और 1977 में चुनाव हुए तो वह हार गयीं। अपनी सहेली पुपुल जयकर के कंधे पर सिर रखकर रोने लगीं और कहने लगीं कि पुपुल मैं हार गयी। 1980 में उन्होंने फिर इतिहास रचा। उनकी सत्ता में शानदार वापसी हुई। इस बार उन्होंने एशियाई खेलों का आयोजन 1982 में दिल्ली में कराया। जबकि इसी वर्ष 101 देशों की गुटनिरपेक्ष देशों की नेता भी बनीं। इस काल में पंजाब में खालिस्तानी आंदोलन ने जोर पकड़ा। उन्होंने अमृतसर के स्वर्ण मंदिर में सेना भेजने के लिए राष्टï्रपति ज्ञानी जैलसिंह से रात्रि में उसी प्रकार हस्ताक्षर कराये जैसे फखरूद्दीन अली अहमद से रात में जाकर आपातकाल के पत्रों पर कराये थे। ज्ञानी जी को इस बात का गहरा दुख रहा था, बाद में पद मुक्त होने पर उन्होंने स्वर्णमंदिर में जाकर क्षमा याचना की थी। इंदिरा जी ब्लू स्टार आपरेशन (पंजाब में हुई सैनिक कार्यवाही) की सबसे बड़ी शहीद बनीं। 31 अक्टूबर 1984 को उनके अंगरक्षकों ने उन्हें गोली मारकर शहीद कर दिया। देश अपनी एक महान नेता से वंचित हो गया। इससे पूर्व उनके बेटे संजय की एक हवाई जहाज की दुर्घटना में मृत्यु हो गयी थी, तब उन्होंने अपने पायलट बेटे राजीव गांधी को अपना वारिस बनाने के लिए राजनीति में प्रवेश दिलाया था। अब वहीं उनके वारिस थे। 19 नवंबर 1917 को जन्मी इंदिरा का विवाह फिरोज गांधी से हुआ था।

मोरारजी देसाई

देश में आपातकाल लगाना इंदिरा गांधी के लिए महंगा पड़ा। देश में विपक्षी नेताओं, पत्रकारों, प्रैस और जनसाधारण के साथ कितने ही अमानवीय कार्य हुए। फलस्वरूप देश की जनता इंदिरा के प्रति विद्रोही हो गयी। समय के सच को विपक्ष ने समझा और उस समय के पांच बड़े विपक्षी दलों ने मिलकर जनता पार्टी नामक नया राजनीतिक दल बनाया। 1977 में इंदिरा गांधी ने चुनावों की घोषणा कर दी। लोगों ने अपना जनादेश जनता पार्टी को दिया। 29 फरवरी 1896 को गुजरात के भदेली स्थान में जन्मे कटï्टर सिद्घांतवादी माने जाने वाले मोरारजी देसाई ने 23 मार्च 1977 को प्रधानमंत्री पद की शपथ ली। जनता पार्टी ने संसद में 542 में से 330 सीटें प्राप्त कीं।

जनता पार्टी विभिन्न महत्वाकांक्षी नेताओं की महत्वाकांक्षाओं और अहंकार का शिकार बनने लगी थी। इसलिए अंतर्कलह का परिवेश सरकार में दीखने लगा। अटल बिहारी वाजपेयी विदेश मंत्री के रूप में तो चौधरी चरण सिंह गृहमंत्री के रूप में अपनी महत्वाकांक्षा पालने लगे। मोरारजी घटक दलों को एक साथ रखने में निरंतर असफल होते जा रहे थे। यद्यपि उन्होंने गैर कांग्रेसी और नेहरू गांधी खानदान से अलग हटकर पहली बार शानदार इतिहास बनाया था। वह देश में पहली बार गैर कांग्रेसी प्रधानमंत्री बने थे। मोरारजी देसाई सत्यनिष्ठ भारतीय संस्कृति के पोषक और उसकी समृद्घिशाली परंपराओं के उद्भट प्रस्तोता थे। उनका शानदार नेतृत्व जनता पार्टी के नेताओं की महत्वांकाक्षओं में दबकर रह गया। जिससे देश एक ऊर्जावान नेता के नेतृत्व से शीघ्र ही वंचित हो गया। उनके समय में इसराइल के तत्कालीन विदेशमंत्री ने भारत की यात्रा की थी। जिन्होंने पाकिस्तान में परमाणु हमला करके भारत की कश्मीर समस्या के हल में अपनी भूमिका का प्रस्ताव रखा था। लेकिन मोरारजी देसाई ने संभावित जनहानि के दृष्टिगत इसराइल के विदेशमंत्री का यह प्रस्ताव अस्वीकार कर दिया था। पाकिस्तान को जब यह पता चला तो उसने मोरारजी को अपने सर्वोच्च नागरिक सम्मान निशाने पाकिस्तान से सम्मानित किया था। वह 81 वर्ष की वृद्घा अवस्था में देश के प्रधानमंत्री बने थे। फिर भी उनकी आयु कभी उनके कार्यों में बाधक नहीं बनी थी। वह संयमित जीवन शैली के व्यक्ति थे इसलिए लगभग सौ वर्ष की अवस्था भोगकर वह 1995 में हमसे विदा ले गये।

चौधरी चरण सिंह

मोरारजी देसाई को सबसे अधिक चौधरी चरण सिंह की महत्वाकांक्षा से दो चार होना पड़ा था। उन्होंने इंदिरा गांधी का सबसे अधिक उत्पीडऩ किया। लेकिन पराजय से टूटी हुई इंदिरा ने जब जनता पार्टी नेताओं की दाल जूतों में बंटती देखी तो उन्होंने चौधरी चरण सिंह को मोरारजी के विरूद्घ उकसाना आरंभ कर दिया। नितांत ईमानदार, सत्यनिष्ठ, स्वाभिमानी और किसानों के नेता के रूप में ख्याति प्राप्त चौधरी साहब इंदिरा गांधी की राजनीति में फंस गये। उन्होंने जनता पार्टी से बगावत कर दी। तब 28 जुलाई 1979 को उन्होंने किसान के पहले बेटे के रूप में केन्द्र में सरकार बनायी। कांग्रेस ने उन्हें बाहर से समर्थन देने का वायदा किया। कांग्रेस (यू) समाजवादी पार्टियों व भारतीय लोकदल के नेता के रूप में चौधरी साहब ने प्रधानमंत्री पद की शपथ तो ले ली लेकिन कांग्रेस ने अपना समर्थन वापस ले लिया। इसलिए चौधरी साहब ने संसद में अपना बहुमत सिद्घ करने से एक दिन पहले ही 19 अगस्त 1979 को अपने पद से त्याग पत्र दे दिया। इंदिरा गांधी का उनपर दबाव था कि वे उनके खिलाफ बैठे आयोगों को खत्म करें और उन्हें दोषमुक्त करें। स्वाभिमानी चरण सिंह इस बात पर अपनी आत्मा का सौदा नहीं कर पाये। फलस्वरूप उनकी सरकार गिर गयी। पर लालकिले पर एक बार झंडा फहराने का उनका अपना सपना अवश्य पूरा हो गया।

23 दिसंबर 1902 में मेरठ जिले के नूरपुर गांव में जन्मे चौधरी साहब ने सार्वजनिक जीवन में विभिन्न पदों को सुशोभित किया। वह उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री भी बने, केन्द्र में गृहमंत्री भी रहे। एक अच्छे अधिवक्ता से अपने जीवन का प्रारंभ किया और ऊंचाई तक पहुंचे। 29 मई 1987 को उनके जीवन का शानदार अंत हुआ। उनकी समाधि को दिल्ली में किसान घाट के नाम से जाना जाता है। उनकी ईमानदारी और राष्ट्रभक्ति का सब लोग लोहा मानते थे। वह स्पष्टवादी थे।

राजीव गांधी

देश के छठे प्रधानमंत्री बने राजीव गांधी। 31 अक्टूबर 1984 की शाम 6.15 बजे उन्हें राष्ट्रपति ज्ञानी जैलसिंह ने शपथ दिलाई। प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या से देश की परिस्थितियां ऐसी थीं कि किसी कार्यवाहक प्रधानमंत्री की आवश्यकता न समझते हुए राजीव को ही प्रधानमंत्री बनाया गया। यद्यपि वरिष्ठ मंत्री प्रणव मुखर्जी उस समय प्रधानमंत्री पद के दावेदार थे और मीडिया ने उनकी जीवनी तक को बताना शुरू कर दिया था लेकिन वह शालीनता से परिस्थितियों को समझ गये और पीछे हट गये।

राजीव देश के सबसे पहले युवा प्रधानमंत्री बने। इंदिरा जब प्रधानमंत्री बनी थीं तो उस समय उनकी अवस्था 49 वर्ष की थी, जबकि राजीव गांधी जब प्रधानमंत्री बने तो उस समय उनकी अवस्था चालीस वर्ष की थी। राजीव के प्रधानमंत्री बनने पर युवाओं में विशेष उत्साह पैदा हुआ। राजीव ने भी मतदान के लिए न्यूनतम आयु 21 वर्ष से घटाकर 18 वर्ष कर दी थी। 1985 में उन्हें देश की जनता ने आम चुनावों में प्रचंड बहुमत दिया। 543 में से 415 सीटें उन्हें लोकसभा में मिलीं। राजीव गांधी के लिए यह अबूझ पहेली आज तक बनी हुई है, कि वह राजनीति के योग्य नहीं थे, या राजनीति उनके योग्य नहीं थी। वह भद्रपुरूष थे, ईमानदार थे, प्रगतिशील थे लेकिन तब तक राजनीति में इन गुणों का सम्मान कम हो गया था। राजीव गांधी की अनुभव शून्यता उनके आड़े आयी और उनके लोग उनकी जड़ खोदने लगे। वह पायलट की नौकरी छोड़कर राजनीति में आये थे और अपनी पत्नी सोनिया के साथ राजनीति से दूर रहना ही पसंद करते थे। राजीव गांधी प्रधानमंत्री बनने के बाद अनिर्णय की स्थिति में रहे। उनकी अनुभव शून्यता और मां के आकस्मिक निधन ने देश में सिखों की हत्याओं का खेल शुरू करा दिया। दुखी राजीव सक्षम कार्यवाही नहीं कर पाए। प्रधानमंत्री बनने पर उन्होंने पंजाब समझौता किया, उसके पश्चात असम समझौता। इन दोनों समझौतों से पंजाब व पूर्वोत्तर की ंिहंसक गतिविधियों में रूकावट आई। इसके पश्चात श्रीलंका में उन्होंने भारतीय सेना भेजी। भारत की सेना ने वहां भारत के ही तमिलों पर अत्याचार करने आरंभ किये तो तमिल समुदाय राजीव के प्रति घृणा से भर गया।

इधर देश में बोफोर्स तोपो में दलाली खाने के कथित आरोपों से कांग्रेस की स्थिति दिन प्रतिदिन दुर्बल होती जा रही थी। वी.पी. सिंह रातों रात हीरो बनते जा रहे थे। उन्होंने राजीव की राजनीतिक कब्र खोद दी और उन्हें सत्ता से दूर कर दिया बादमें सिद्घ हुआ कि राजीव सचमुच निर्दोष थे। लेकिन तब तक उन्हें दण्ड मिल चुका था। उधर खफा तमिल लोगों ने उनकी हत्या का षडयंत्र रचा और 21 मई 1991 को जब चुनाव का दौर चल रहा था तो श्रीपेरम्बुदूर में उनकी निर्मम हत्या कर दी गयी। उन्होंने भारत में टैक्नोलॉजी के क्षेत्र में उल्लेखनीय कार्य किये। क म्प्यूटर क्रांति, पेयजल की उपलब्धता, साक्षरता मिशन, श्वेत क्रांति, खाद्य तेल मिशन, गांव गांव में टेलीफोन की व्यवस्था पंचायती राज, महिला उत्थान आदि के क्षेत्रों में विशेष कार्य किये। उन्होंने दक्षेस की स्थापना की। चीन की यात्रा की और उसका दृष्टिïकोण भारत के प्रति बदलने में किसी सीमा तक सफलता भी प्राप्त की। वह 31 अक्टूबर 1984 से 2 दिसंबर 1989 तक प्रधानमंत्री रहे।

विश्वनाथ प्रताप सिंह

राजा मांडा के नाम से विख्यात वी.पी.सिंह उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री रहे। फिर राजीवगांधी की सरकार में वित्तमंत्री रहे। बाद में फेयर फेक्स विवाद के चलते उन्हें इस मंत्रालय से हटाकर रक्षामंत्री बना दिया गया तो वहां उन्होंने बोफोर्स तोपों के सौदे में कथित दलाली का भण्डाफोड़ कर दिया। फलस्वरूप जनसाधारण में वह एक जिंदा शहीद बनते चले गये उनकी लोकप्रियता दिन प्रतिदिन बढ़ती जा रही थी। जबकि राजीव गांधी की लोकप्रियता का ग्राफ दिन प्रतिदिन गिरता जा रहा था। राजीव गांधी के विषय में उस समय लोग मिस्टर क्लीन कहकर अपने सम्मान का प्रदर्शन किया करते थे। लेकिन 410 बोफोर्स तोपों के सौदे में कथित साठ करोड़ की दलाली ने उनकी चादर को दागदार बनाना शुरू कर दिया। उस समय के राष्टï्रपति ज्ञानी जैल सिंह थे जिनकी राजीव गांधी से उस समय ठन रही थी। उन्होंने भी वी.पी.सिंह को थपकी मारी और कहा जाता है कि एक बार तो उन्हें राष्टï्रपति ने पी.एम. बनाने के लिए भी कहा था, लेकिन राजा पीछे हट गये, पर 1989 के चुनावों में उन्हें जनता ने समर्थन दिया और दो दिसंबर 1989 को वे देश के प्रधानमंत्री बन गये। उनके साथी भी यह जानते थे कि वह दुष्प्रचार के माध्यम से इस पद पर पहुंचे हैं। अत: उन्होंने राजा के साथ अधिक देर तक चलना अच्छा नहीं समझा उन्होंने देश के पिछड़े वर्ग को अपने साथ लेने के लिए मंडल आयोग की सिफारिशें लागू कर दीं। इससे देश में छात्रों ने आत्मदाह करना शुरू कर दिया। इसी समय भाजपा ने मंडल के जवाब के रूप में कमंडल उठा लिया। उसने राममंदिर निर्माण के लिए रथ यात्रा निकालनी आरंभ कर दी। उनके साथ चौधरी देवीलाल थे, चंद्रशेखर थे इन दोनों ने राजा के स्थान पर स्वयं को प्रधानमंत्री बनने की तिकड़में बिछानी आरंभ कर दीं। 1989 के चुनाव में वी.पी. सिंह के राष्टï्रीय मोर्चे को 146 सीटें मिलीं थीं जबकि कांग्रेस को 197 सीटें मिलीं थीं, लेकिन भाजपा, वामपंथी आदि दलों ने मिलकर राष्टï्रीय मोर्चे को समर्थन दिया था। इस प्रकार भारी दुष्प्रचार के बावजूद भी राजा राजा बनने के लिए विभिन्न बैशाखियों का सहारा ढूंढ़ते रहे। अंत में कांग्रेस ने जनता पार्टी की तर्ज पर ही इस सरकार को भी चलता करने का रास्ता खोजा। उसने चंद्रशेखर को अपना समर्थन दिया और वी.पी.सिंह की सरकार को गिराने में कामयाबी हासिल कर ली। 5 नवंबर 1990 को वी.पी.सिंह का जनता दल बिखर गया। 10 नवंबर 1990 को उनकी गद्दी जाती रही, उनके ही 58 सांसदों ने उन्हें छोड़कर चंद्रशेखर को अपना नेता चुन लिया। इस प्रकार उन्हें देश का प्रधानमंत्री बने रहने का अवसर एक वर्ष की अवधि के लिए भी नहीं मिल पाया।

चंद्रशेखर

एक योग्य सांसद और प्रखर वक्ता के रूप में युवातुर्क नेता चंद्रशेखर ने राजनीति में प्रवेश किया था। वह बहुत ही महत्वाकांक्षी थे लेकिन उनकी बुद्घि तीक्ष्ण थी, वह श्रम के प्रति निष्ठावान थे। वी.पी. सिंह के साथ उनकी अधिक देर तक नहीं पटी। उन्होंने जनता पार्टी के गिरने के समय पूरे भारत की पैदल यात्रा की थी। 10 नवंबर 1990 को उन्होंने भारत के प्रधानमंत्री के रूप में शपथ ली। कांग्रेस ने बाहर से समर्थन देने की बात कही। बाद में कांग्रेस ने अपने नेता राजीव गांधी की गुप्तचरी करने का आरोप सरकार पर लगाकर 5 मार्च 1991 को अपना समर्थन वापिस ले लिया। फलस्वरूप देश में नये चुनाव हुए। इन चुनावों के बीच में ही राजीव गांधी की हत्या हो गयी थी। फलस्वरूप कांग्रेस को केन्द्र में जोड़तोड़ करके अपनी सरकार बनाने का अवसर मिल गया। 21 जून 1991 तक चंद्रशेखर प्रधानमंत्री की कुर्सी पर विराजमान रहे। 1995 में उन्हें सर्वोत्कृष्ट सांसद का पुरस्कार भी दिया गया। उनके भीतर स्वाभिमान, योग्यता, आचरण, व्यवहार की सभ्यता कूट-कूटकर भरी थी, लेकिन कई बार अति भी कष्टïदायी हो जाती है।

पी.वी. नरसिम्हाराव

1991 के चुनावों में पी.वी. नरसिम्हाराव को कांग्रेस पार्टी ने चुनाव लडऩे के लिए टिकट नहीं दिया था। वह राजनीति व दिल्ली को अलविदा कर रहे थे। लेकिन तभी परिस्थितियां बदलीं, राजीव गांधी की हत्या हो गयी परिस्थितियों ने जाते हुए एक पथिक को रोक दिया। रोककर वापस बुला लिया। लोगों ने नेतृत्वविहीन हुई कांग्रेस के लिए काम चलाऊ नेता के रूप में पी.वी. नरसिम्हाराव का चयन कर लिया। 21 जून 1991 को उन्होंने देश के प्रधानमंत्री के रूप में शपथ ग्रहण की। इससे पहले वह देश में गृहमंत्री, रक्षामंत्री, विदेश मंत्री, मानव संसाधन विकास मंत्री भी रह चुके थे। प्रधानमंत्री के रूप में उन पर भ्रष्टïाचार के आरोप लगे। उन्हें कांग्रेसियों ने ही शासन करने में विभिन्न व्यवधान डाले। लेकिन असीम धैर्य के साथ उन्होंने अपना कार्यकाल पूरा किया। यही नहीं देश की अर्थव्यवस्था को भी वह ढर्रे पर लाये। लेकिन सेंट किट्स कांड, हर्षद मेहता कांड, झारखंड मुक्ति मोर्चा कांड में उनकी भूमिका से उनके विपरीत माहौल देश में बना। 1992 में देश में बाबरी मस्जिद का विध्वंस हुआ। इसमें उनकी भूमिका पर भी लोगों ने कई प्रकार की टिप्पणियां कीं। वह अपनी चतुराई के कारण भारतीय राजनीति के चाणक्य कहे जाते थे। वह विद्वान थे, बहुभाषाविद् थे, तथा देश के पहले सुधारवादी प्रधानमंत्री थे। 28 जून 1921 को आंध्र प्रदेश के बांगरा गांव में उनका जन्म हुआ। 23 दिसंबर 2004 को वह एम्स में दिवंगत हुए। 21 मई 1996 तक वह देश के प्रधानमंत्री रहे।

अटल बिहारी वाजपेयी

11वीं लोकसभा का चुनाव अप्रैल, मई 1996 में हुआ। भाजपा को इस चुनाव में 161 स्थान मिले। भाजपा ने अति उत्साह में अटल जी को अपना नेता चुना और अनुत्साही दीख रहे अटल जी से सरकार बनाने का दावा करा दिया। पहली बार प्रधानमंत्री बनने पर उन्होंने संसद में 29, 30 मई को अपना बहुमत सिद्घ करने के लिए बहस कराई। बहस के दौरान ही वह समझ गये कि संसद का बहुमत उनके खिलाफ है। इसलिए उन्होंने मत विभाजन से पूर्व ही इस्तीफा दे दिया। बीच में एच.डी. देवेगौड़ा और आई.के. गुजराल ने प्रधानमंत्री पद संभाला। बाद में 19 मार्च 1998 को अटल जी पुन: देश के प्रधानमंत्री बने। भाजपा की सदस्य संख्या तब 182 थी। अप्रैल 1999 में जयललिता ने अपना समर्थन वापस ले लिया तो अक्टूबर 1999 में पुन: चुनाव हुए। तब तक अटल जी कार्यकारी प्रधानमंत्री रहे। इस दौरान कविमना वाजपेयी ने राजस्थान के पोखरण में 11 मई 1998 को पांच परमाणु परीक्षण करके देश को परमाणु शक्ति संपन्न राष्टï्रों की श्रेणी में ला खड़ा किया। इससे पूर्व 1974 में इंदिरा गांधी ने परमाणु परीक्षण करके देश के सम्मान को बढ़ाया था। अटल जी के समय में कारगिल युद्घ हुआ। बड़ी क्षति उठाकर भी देश ने उस युद्घ में सफलता प्राप्त की। 13 अक्टूबर 1999 को राष्टï्रपति के. आर. नारायणन ने अटल बिहारी वाजपेयी को पुन: प्रधानमंत्री की शपथ दिलाई। इस पद पर आसीन करने में आडवाणी जी का विशेष सहयोग रहा। भाजपा को उन्होंने आम आदमी से परिचित कराया था। अटल जी ने विभिन्न विचारों के नेताओं को घटक दल के रूप में साथ लेकर चलते हुए अपना तीसरा कार्यकाल पूरा किया। उनकी आर्थिक नीतियां सफल रहीं। पाकिस्तान के साथ उन्होंने भारत के संबंधों को सहज बनाने का प्रयास किया, लेकिन फिर भी पाकिस्तान के सैनिक शासक परवेज मुशर्रफ के साथ उनकी आगरा शिखर वार्ता सफल नहीं रही। उनके काल में संसद पर हमला हुआ, तहलका कांड हुआ। भाजपा अपनी मूल विचारधारा से भटकी और उसे 2004 के चुनावों में सत्ता से हाथ धोना पड़ा। फिर भी उनका व्यक्तित्व ऐसा रहा कि जिन्हें सभी सम्मान देते हैं। डॉ. मनमोहनसिंह ने उन्हें एक बार भीष्म पितामह की उपाधि ऐसे ही नहीं दी थी। उनकी वक्तृत्व शैली का सभी लोग लोहा मानते रहे हैं और उनकी सहृदयता सभी लोगों को छूती रही है। 25 दिसंबर 1924 को उनका जन्म दिवस है।

एच. डी. देवेगौड़ा

पहली बार अटल जी की सरकार 13 दिन तक चली और गिर गयी थी तब देश के कुछ बड़े नेताओं ने एक ऐसे नेता की खोज की जो उनके अनुसार सरकार चलाये, और जिसे जब चाहें चलता कर दिया जाए। कर्नाटक के मुख्यमंत्री हरदनहल्ली डोडागौड़ा देवेगौड़ा इस कसौटी पर खरे नजर आये, तो उन्हें मुख्यमंत्री के पद से त्यागपत्र दिलाकर देश का प्रधानमंत्री का पद थाली में सजाकर दिया गया। वह देश के मात्र दस माह तक प्रधानमंत्री रहे। 21 अप्रैल 1997 को उन्होंने प्रधानमंत्री पद छोडऩा पड़ा। इसका मुख्य कारण भी कांग्रेस बनी। उसने देवेगौड़ा से समर्थन वापिस ले लिया। बेचारे देवेगौड़ा लोकसभा में सारे दलों से तथा सांसदों से पूछते रहे कि आखिर उनकी गलती क्या है? जो इतनी बड़ी सजा दी जा रही है। लेकिन कांग्रेस के अध्यक्ष सीताराम केसरी को रातों में सपने आ रहे थे कि अभी नहीं तो कभी नहीं इसलिए वह जल्दी से जल्दी प्रधानमंत्री बन जाना चाहते थे। अत: एक निरपराध प्रधानमंत्री को बलि का बकरा बना दिया। 19 मार्च 1997 को देवेगौड़ा को पद त्याग करना पड़ा। अंतरिम व्यवस्था तक वह दो दिन और प्रधानमंत्री रहे।

इंद्र कुमार गुजराल

21 अप्रैल 1997 को आप देश के प्रधानमंत्री बने। 11 महीने पश्चात 19 मार्च 1998 को इन्हें पद त्याग करना पड़ा। राष्टï्रपति ने लोकसभा को भंग किया और नये चुनाव हुए तत्पश्चात भाजपा की सरकार ने कार्यभार संभाला। इंद्रकुमार गुजराल झेलम नगर (पाकिस्तान) में चार दिसंबर 1919 को जन्मे। आप 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन में सक्रिय रहे। प्रधानमंत्री बनने से पूर्व आपने संचार एवं संसदीय कार्यमंत्री, सूचना एवं प्रसारण मंत्री, सड़क एवं भवन मंत्री, योजना एवं विदेश मंत्री के रूप में कार्य किया था। वह रूस में भारत के राजदूत भी रहे। विभिन्न गुणों का सम्मिश्रण होते हुए भी गुजराल देश की जनता के बीच अधिक लोकप्रिय नहीं रहे हैं। वह लोगों को भाषण से अपनी ओर खींच नहीं पाते हैं। ऐसे में 24 पार्टियों की बैशाखी पर चल रही सरकार का नेतृत्व वह कब तक करते आखिर सरकार गिर गयी फिर भी उनकी योग्यता और ईमानदारी पर कोई संदेह नहीं किया जा सकता। वह विनम्र और शालीन व्यक्ति हैं, अहंकार शून्य व्यक्तित्व के धनी गुजराल का लोग व्यक्तिगत रूप से अति सम्मान करते हैं।

डॉ. मनमोहनसिंह

22 मई 2004 को डॉ. मनमोहनसिंह ने भारत के तेरहवें प्रधानमंत्री के रूप में शपथ ली। उस समय उन्हें भी यह पद सौभाग्य से ही मिला था। शायद उन्होंने सपने में भी नहीं सोचा होगा कि उन्हें कभी इस देश के प्रधानमंत्री पद की जिम्मेदारियों का निर्वाह करना पड़ सकता है। व्यक्तिगत रूप से नितांत ईमानदार व्यक्ति हैं-डॉ. मनमोहनसिंह। लेकिन पाठक क्षमा करें अब उनकी ईमानदारी पर लिखना स्वयं को बेईमान साबित करना होता है। यह आलेख किसी की आलोचना के लिए नहीं है। इसलिए अन्यथा लिखने को हम अनुचित मानते हैं। डॉ. मनमोहनसिंह की आर्थिक नीतियां देश के लिए लाभदायक रहीं। जब वह देश के वित्तमंत्री थे तो उन्होंने देश के लिए जो आर्थिक नीतियां दीं, उनके अच्छे परिणाम आये, देश को एक सुधारवादी वित्तमंत्री मिला, इसलिए जब वह देश के प्रधानमंत्री बने तो लोगों ने सोचा कि एक अच्छा प्रधानमंत्री देश को मिला है। स्वभाव से शांत और विनम्र डॉ. मनमोहनसिंह के साथ समस्या ये है कि उनका रिमोट सोनिया गांधी के पास रहता है, चाबी राहुल गांधी के पास रहती है, तो पेट्रोल प्रणव मुखर्जी से मिलता है। फिर भी वह देश को चला रहे हैं और देश चल रहा है उनकी सबसे बड़ी जीत और सबसे बड़ी कामयाबी यही है।

2 COMMENTS

  1. भारत के प्रधान मंत्री

    लाल जवाहर गुल खिलारे,

    लाल बहादुर इन्द्र जगारे॥

    मोरारी के चरण राजीव रहें,

    विश्व चन्द्र नरसिंह भगारे॥

    अटल के गोड़ गुजरात गये,

    अटल हुए मनमोहन प्यारे॥

    जवाहर लाल नेहरू, गुलजारी लाल नंदा, लाल बहादुर शास्त्री, गुलजारी लाल नंदा, इन्दिरा गाँधी, मोरारजी देसाई, चौधरी चरण सिंह, इन्दिरा गाँधी, राजीव गाँधी, विश्वनाथ प्रताप सिंह, चंद्रशेखर नरसिंह राव, अटल बिहारी वाजपेयी, एच डी देवगौड़ा, इंद्रकुमार गुज़राल, अटल बिहारी वाजपेयी, मनमोहन सिंह ।

    Phonetic:
    Bhārata kē pradhāna mantrī
    Lāla javāhara gula khilārē,
    Lāla bahādura jagārē indra.
    Mōrārī kē caraṇa rājīva rahēṁ,
    Viśva narasinha candra bhagārē.
    Aṭala kē gōṛa gujarāta gayē,
    Aṭala hu’ē manamōhana pyārē.
    Javāhara lāla nēharū, gulajārī lāla nandā, lāla bahādura śāstrī, gulajārī lāla nandā, indirā gām̐dhī, mōrārajī dēsā’ī, caudharī caraṇa sinha, indirā gām̐dhī, rājīva gām̐dhī, viśvanātha pratāpa sinha, candraśēkhara narasinha rāva, aṭala bihārī vājapēyī, ēca ḍī dēvagauṛā, indrakumāra guzarāla , Aṭala bihārī vājapēyī, manamōhana sinha.

    Read more: https://books.google.co.in/books?id=raRVq78byAUC

  2. मनमोहन जी को राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार मुलायम ममता से कहलवाकर कहीं राहुल बाबा को राजशाही सौंपने की कौरवी चाल तो नहीं चल रहीं इटली पुत्री?
    और कोई बताओ भाई कि ममता क्यों नहीं चाहती प्रणब को?
    क्या कोई पुरानी दुश्मनी है या ममता भी चली माया की राह ?
    अफसोस होता है इन लोगों की सोच पर कि ये देश चला रहे हैं और हम चल रहे हैं।

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