ईश्वर की उपासना का महत्व जानें व इसका ज्ञानपूर्वक पालन करें

0
341

मनमोहन कुमार आर्य

               उपासना क्या है और इसे क्यों करना चाहिये? उपासना करने के क्या लाभ हैं? यह विषय उपेक्षणीय नहीं है। उपासना पास बैठने को कहते हैं। हम अपनी माता की गोद में होते हैं तो हमें माता का स्नेह तथा उससे ज्ञान प्राप्त होता है। माता हमारी क्षुधा निवृति सहित सभी प्रकार से पोषण करती है। हमें अक्षर शब्दों को बोल कर भाषा के ज्ञान सहित बहुमूल्य ज्ञान देती है। पिता भी ऐसा ही करते हैं। गुरुकुलों व पाठशालों में आचार्य व आचार्यायें भी अपने शिष्य-शिष्याओं को अपने पास बैठाते व उनके पास बैठ कर उनके जीवन की न्यूनताओं को ध्यान में रखकर उन्हें सदाचार सहित ज्ञान व विज्ञान की शिक्षा देते हैं। मनुष्य जब शीत से आतुत होता है तो अग्नि के पास बैठकर शीत की निवृत्ति करता है। गर्मी के दिनों में लोग जलाशयों व नदियों में जाकर स्नान करते हैं और उससे उष्णता के प्रकोप को दूर करते हैं। यह सब अवस्थायें व स्थितियां उपासनायें हैं जिससे उपासना के अनुरूप हम लाभान्वित होते हैं। अतः हमें अपनी कमियों को दूर करने के लिये उस कमी से रहित ज्ञानी, कर्म-प्रवीण व अनुभवी व्यक्तियों की निकटता व उनकी उपासना प्राप्त कर उन्हें दूर करना चाहिये। हम सब ऐसा ही करते भी हैं। यही उपासना होती है।

               मनुष्य को अपने अतीत का नहीं पता। हम इस जन्म में आने से पूर्व कहां थे? क्या करते थे? निठल्ले पड़े थे या किसी मनुष्य अन्य योनि में थे? हमें जन्म किसने दिया? हमारी मृत्यु निश्चित है। एक सौ वर्ष के भीतर कभी भी हमारी मृत्यु हो सकती है। संसार में सृष्टि के आरम्भ से मनुष्य उत्पन्न होते रहे हैं। आज सौ एक सौ पच्चीस वर्ष की आयु से अधिक का कोई स्त्री पुरुष संसार में नहीं है। इससे पूर्व उत्पन्न बाद के भी अनेक लोग जिनकी संख्या अरबों में नहीं खरबों से भी अधिक होती है, मर चुके हैं परलोक में जा चुके हैं। परलोक का अर्थ इतना ही है कि इस लोक व स्थान से दूसरे लोक या दूसरे किसी स्थान जो इसी लोक में भी हो सकता है, जा चुके हैं। पुनर्जन्म होना ही पूर्वजन्म की अपेक्षा से परलोक है। ऐसा ही हमारे व सभी के साथ होता है व होगा। जब हम विचार करते हैं तो हमें ज्ञात होता है कि इच्छा, द्वेष युक्त, सुख व दुःख का अनुभव करने वाली हमारी एक चेतन आत्मा है। यह अनादि व अमर है। इसका नाश व अभाव कभी नहीं होता है। यह जन्म व मरण धर्मा है। जन्म का कारण कर्म-फल सिद्धान्त है। हमारा जन्म हमारे पूर्व जन्म व जन्मों के बचे हुए कर्मों के फलों का भोग करने के लिये हुआ है। अनादि काल से यह क्रम चल रहा है और अनन्त काल तक चलने वाला है। इसके विपरीत आज तक किसी व्यक्ति ने कोई तर्क नहीं दिया है। अतः यह निर्विवाद व सर्वमान्य सत्य है।

               आत्मा के स्वरूप परमात्मा को जानना हमारा कर्तव्य है। इसका ज्ञान हमें इस कल्प के आदि ग्रन्थ वेद से मिलता है। वेद ईश्वरीय ज्ञान है। वेद के अतिरिक्त उपनिषद, दर्शन, मनुस्मृति, सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका आदि अनेक ग्रन्थ भी ईश्वर आत्मा का सत्य सत्य ज्ञान हमें कराते हैं। आत्मा और जन्म का ज्ञान हो जाने पर हमारे सम्मुख यह प्रश्न आता है कि हमारे जीवन का उद्देश्य क्या है? पूर्वजन्मों के कर्मों के फलों का भोग तो करना ही है परन्तु कर्मों के फलों का भोग करना और कौन से कर्म विहित व कौन से निषिद्ध हैं, यह ज्ञान हमें प्राप्त करना होता है। यह ज्ञान हमें मत-मतान्तरों के आचार्यों व उनके ग्रन्थों से ठीक ठीक प्राप्त नहीं होता। वेद व वेदानुकूल ग्रन्थों सत्यार्थप्रकाश आदि से इस विषय का भली प्रकार से ज्ञान होता है। हमें ज्ञात होता है कि ईश्वर ने जीवों के लिये इस सृष्टि को बनाया है। यह सृष्टि अति विशाल है। असंख्य जीवों को ईश्वर ने इस ब्रह्माण्ड के अनेक लोक लोकान्तरों में जन्म दिया है। उनके जन्म का उद्देश्य ईश्वर व आत्मा को जानना है। इस ज्ञान को प्राप्त होकर ईश्वर उपासना से अपने दोषों व दुर्गुणों का त्याग करना भी कर्तव्य है। उपासना से ईश्वर को प्राप्त करना, उसका प्रत्यक्ष करना और समाज व देशहित सहित मानवता व सद्ज्ञान का प्रसार करना यह भी मनुष्य के कर्तवय हैं। यही कार्य हमारे प्राचीन ऋषि-मुनि करते रहे और ऋषि दयानन्द जी ने भी ऋषियों की इस परम्परा को जारी रखते हुए हमें ईश्वर के वेदज्ञान के सत्यस्वरूप व सत्य वेदार्थ से परिचित कराकर हमारा कल्याण किया है। वेदाध्ययन करके हम जान पाते हैं कि हमारा इष्टदेव व प्राप्तव्य ईश्वर ही है। इसके लिये हमें वेदविहित कर्मों को करना है। हमें वेदों में निषिद्ध कर्मों का त्याग करना है। असत्याचरण, परनिन्दा, अभक्ष्य पदार्थों का सेवन, मत-मतान्तरों की हानिकारक बातों से पृथक रहना है। ऐसे कार्य करना ही हमारा कर्तव्य निर्धारित होता है। ईश्वर की उपासना हम उसके उपकारों के प्रति धन्यवाद वा कृतज्ञता व्यक्त करने के लिये करते हैं। यदि ऐसा नहीं करेंगे तो हम कृतघ्न होंगे और उपासना के जो लाभ होते हैं उनसे वंचित रहेंगे।

               उपासना की विधि पर ऋषि दयानन्द जी ने विस्तार से प्रकाश से डाला है। उन्होंने उपासना सहित देवयज्ञ, पितृयज्ञ, अतिथियज्ञ एवं बलिवैश्वदेवयज्ञ की पुस्तक पंचमहायज्ञ विधि भी लिखी है। संस्कार विधि में पंच महायज्ञों का विधान किया है और इनकी पद्धति भी लिखी है। इसे पढ़कर हमारा सभी प्रकार का समाधान हो जाता है। उपासना का समय प्रातः सायं तथा दिवस रात्रि की सन्धि वेलायें हैं। इस समय शारीरिक शुद्धि करके अपने घर के किसी एकान्त स्थान शान्त स्थान में बैठकर लगभग 1 घंटा बैठ कर स्वाध्याय उपासना करनी चाहिये। सन्ध्या के मन्त्रों का पाठ करते हुए उसके अर्थों पर विचार करना चाहिये। इसके लिये सन्ध्या की पुस्तक पास में रखकर जिनका अर्थ पता न हो, उसे देख लेना चाहिये। जब हमें सन्ध्या के मन्त्रों की स्मृति व उनके अर्थों का ज्ञान हो जायेगा तो हमें सन्ध्या एक आवश्यक कार्य व कर्तव्य प्रतीत होने लगेगा और हम इसे किये बिना नहीं रह पायेंगे। सन्ध्या हम घर पर रहकर, यात्रा व अन्य स्थानों पर जाकर तथा किसी भी स्थान पर कर सकते हैं। इसके लिये मात्र एक आसन तथा आचमन, इन्द्रिय स्पर्श तथा मार्जन के लिये कुछ जल की ही आवश्यकता होती है जो प्रायः आसानी से सुलभ हो जाता है। सन्ध्या को व्यस्थित करने के लिये हमें सन्ध्या विषयक ऋषि दयानन्द और आर्य विद्वानों की पुस्तकों को पढ़ना चाहिये। सन्ध्या पर पं. विश्वनाथ वेदोपाध्याय, पं. गंगाप्रसाद उपाध्याय तथा पं. चमूपति जी आदि ने व्याख्यान लिखे हैं। इनसे सन्ध्या का रहस्य विदित होता है और सन्ध्या में प्रवृत्ति प्रगाढ़ होती है।

               सन्ध्या हमारा धर्म कर्तव्य है। इसके त्याग से हानि करने से कर्तव्य पूर्ति का लाभ प्राप्त होता है। सन्ध्या में हम ईश्वर की संगति उसका उपवास उपासना को प्राप्त होते हैं। यह आत्मा की उत्तम श्रेष्ठ स्थिति है। हमें इससे वंचित नहीं रहना चाहिये। अपने मन को सत्य से शुद्ध रखेंगे तो हमारी सन्ध्या में प्रवृत्ति हो सकती है। खाली समय में हम वेदभाष्य, उपनिषद भाष्य दर्शनों सहित सत्यार्थप्रकाश आदि ग्रन्थों का अध्ययन कर सकते हैं। उपासना में हम अपनी पसन्द के ईश्वर भक्ति के भजनों को भी गुनगना सकते हैं। ऐसा करने से हमारी ईश्वर से निकटता बढ़ती है और हमें उपासना के लाभ प्राप्त होना आरम्भ हो जाते हैं। हमारे दुर्गुणों व दुःखों का नाश होने लगता है। हमारी आवश्यकतायें कम होने लगती है। हम अनेक विघ्नों व बाधाओं से बचते हैं। अनेक विपत्तियों में हमें धैर्य व सहनशक्ति प्राप्त होती है। हमारा स्वाध्याय ऐसे समयों पर हमारा मार्गदर्शन करता है। स्वाध्याय व उपासना से हम चारित्रिक पतन के कार्यों से भी बचते हैं। जिस प्रकार एक कुशल चालक के वाहन में बैठकर हम सुगमता से अभीष्ट स्थान पर पहुंच जाते हैं उसी प्रकार से ईश्वर को अपना जीवन सौंप कर हम निश्चिन्त हो जाते हैं और ईश्वर हमें हमारे जीवन व आत्मा के अभीष्ट पर पहुंचा देते हैं।

               ऋषियों महापुरुषों के जीवन में हमें यही देखने को मिलता है। वह सभी अपने जीवन का ईश्वर को समर्पण कर देते थे। सन्ध्या में एक समर्पण मन्त्र भी आता है। इसमें हम ईश्वर को आत्म समर्पण करते हुए प्रार्थना करते हैं। हम प्रार्थना में कहते हैं कि ईश्वर हमें धर्म, अर्थ, काम मोक्ष की शीघ्र तत्काल प्राप्ति कराये। हमें लगता है कि उपासना मनुष्य जीवन में राक्षसी प्रवृत्तियों को दूर कर देवत्व उत्पन्न करती है। हमने ऐसे लोगों की कथायें भी सुनी व पढ़ी हैं जो संगति व उपासना से निम्नतम जीवन से देवत्व को प्राप्त हुए थे। डाकू रत्नाकर की घटना भी हम जानते हैं। इसमें बताया जाता है कि डाकू रत्नाकर संगति व उपासना को करके महर्षि बाल्मीकि बन गये थे। आर्यसमाज में भी ऐसे उदाहरण हैं कि डाकुओं ने वेदोपदेश सुनकर अपना निन्दित काम छोड़कर सन्मार्ग ग्रहण किया था। महात्मा मुंशीराम जी युवावस्था में मांस व मदिरा का सेवन करते थे। ऋषि दयानन्द के सत्संग से वह देश के महापुरुष व सच्चे महात्मा बने। उन्होंने सच्चे अर्थों में देश का कल्याण किया। देश में महात्मा कहलाने वाले अन्य लोगों ने स्वामी श्रद्धानन्द जी के अनुरूप शायद ही काम व व्यवहार किया हो। वेदज्ञान से दूर व्यक्ति सच्चा महात्मा नहीं बन सकता ऐसा हम समझते हैं।

               उपासकों की सबसे बड़ी शिकायत होती है कि सन्ध्या में मन नहीं लगता। इसका वह क्या उपाय करें? इसका उपाय तो यह है कि हम सन्ध्या क्यों कर रहे हैं इसका हमें ज्ञान होना चाहिये। सन्ध्या करते समय हमें ईश्वर के सत्यस्वरूप का ज्ञान रहना चाहिये। ईश्वर हमारे बाहर भीतर है और हमें मन हृदय के सभी विचारों भावनाओं को जान रहा है। हमें इसका विचार करना चाहिये। उपासना में हम सन्ध्या के मन्त्रों का उनके अर्थों पर विचार करते हुए पाठ करें। पाठ के बाद उन मन्त्रों के अर्थों पर कुछ कुछ देर विचार करते हुए ईश्वर के जन्म-जन्मान्तरों में किये उपकारों को स्मरण करें। जब यह क्रम समाप्त हो जाये तो हम ईश्वर की स्तुति प्रार्थना उपासना विषयकों आर्य विद्वानों के ग्रन्थों का पाठ भी कर सकते हैं। ईश्वर विषयक साहित्य का स्वाध्याय भी एक प्रकार की उपासना ही है। इसमें हम ईश्वर विषयक चर्चाओं को ही पढ़ते व उनका अनुभव करते हैं। इसमें हमारा मन भी आसानी से स्थिर हो जाता है। इस अवसर पर हम आर्याविभिविनय सहित ऋग्वेदभाष्यभूमिका के ईश्वर स्तुतिप्रार्थनायाचना, उपासना तथा मुक्ति प्रकरणों का स्वाध्याय कर सकते हैं। मुक्ति प्रकरण उपासना में दृढ़ता लाता है अतः इसे भी पढ़ सकते हैं। सत्यार्थप्रकाश का सातवां समुल्लास पढ़कर उसके कुछ स्थलों पर विचार कर सकते हैं। ऐसा करने से हमारा मन उपासना में लगना आरम्भ हो जाता है।

               मन को ईश्वर में स्थिर करने के लिये हमें मन को प्राणायाम से नियंत्रित करने का प्रयत्न करना चाहिये। मन में वैराग्य भावना उत्पन्न करनी चाहिये। हमें ज्ञात होना चाहिये कि हमारा कभी भी प्राणान्त हो सकता है। अतः ईश्वर के ध्यान के लिये समय निकालना तथा ओ३म् गायत्री मन्त्र जप करना भी लाभकारी होता है। हमारा भोजन अल्प मात्रा में होना चाहिये तथा निद्रा जागरण का समय भी विधान के अनुसार रखना उचित होता है। इन सब बातों को करेंगे तो हम सन्ध्या उपासना करते हुए कुछ अधिक देर तक उपासना कर सकते हैं। धीरे धीरे अभ्यास को बढ़ा सकते हैं। ईश्वर से ही प्रार्थना करनी चाहिये कि वह हमारे मन को उपासना में स्थिर रखे। हमने ऐसे युवक व अधिक आयु के व्यक्ति देखें हैं जो प्रातः 4.00 बजे ही शौच आदि से निवृत्त होकर सन्ध्या करने बैठ जाते हैं और पूरा एक घंटा व कुछ अधिक समय तक बैठ कर इसको करते हैं। अतः दृढ़तापूर्वक सन्ध्या करते हुए पूरा समय बैठने का प्रयास करना चाहिये। कुछ समय बाद उपासना की समयावधि में वृद्धि हो सकती है और मन भी ईश्वर में स्थिर होना आरम्भ हो सकता है। ऋषि दयानन्द ने शंका समाधान करते हुए फर्रुखाबाद के लाला मन्नीलाल तथा जगन्नाथ स्वामी को बताया था कि गायत्री जप से बुद्धि शुद्ध होती है और सन्ध्या में सब को गायत्री का जप करना चाहिये। चासी के एक रुई धुनिये के प्रश्न के उत्तर में स्वामी जी ने उसे ‘ओ३म्’ का जप करने का उपदेश किया था। व्यवहार में सच्चा रहने की बात कहकर उन्होंने उसे कहा था कि जितनी रूई कोई तुम्हें धूनने को दे, उसे उतनी ही रूई धुनकर लौटा तो। इसी से तुम्हारा कल्याण हो जायेगा।

               हमने इस लेख में उपासना की चर्चा की है। यह लेख बहुत अधिक नहीं परन्तु किन्हीं बन्धुओं के लिए कुछ उपयोगी हो सकता है। पाठक अपनी स्थिति के अनुसार इसका मूल्यांकन कर सकते हैं। यदि कुछ अच्छा लगे तो ग्रहण करें और कुछ न्यूनता व विशेष बताना चाहें तो अवश्य हम पर कृपा करें।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here