एएसआई की रिपोर्ट झुठलाते रहे हैं वामपंथी इतिहासकार

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प्रमोद भार्गव

इसमें दो राय नहीं कि सत्‍य के उद्‌घाटन के अतिरिक्‍त इतिहास की कोई वैचारिक अथवा सांस्कृतिक प्रतिबद्धता नहीं होनी चाहिए। इतिहास में धर्मनिरपेक्ष सोच अथवा पंथनिरपेक्ष मूल्‍यों का भी समावेश नहीं होना चाहिए, क्‍योंकि तटस्‍थ दृष्टिकोण से लिखा इतिहास तो होता ही धर्म अथवा पंथ निरपेक्ष है। इतिहास आस्‍था का आधार अथवा विश्‍वास का प्रतीक भी नहीं होना चाहिए, क्‍योंकि आस्‍था, विवेक और तर्क का शमन करती है। इतिहास बौद्धिक कट्‌टरता का निष्‍ठावान अनुयायी भी नहीं होना चाहिए, क्‍योंकि इतिहास से संबद्ध सांस्कृतिक संकीर्णता, सांप्रदायिकता से कम खतरनाक नहीं है। इसलिए जब किसी प्रकरण से जुड़े नए साक्ष्‍य और प्रमाण उपलब्‍ध हुए हों तो उनकी प्रामाणिकता सत्‍यापित होने पर इतिहास-दृष्‍टि बदलना जरूरी हो जाता है। दरअसल, इतिहास की वही लिपिबद्धता सार्थक और शाश्‍वत होगी, जो अतीत को वर्तमान साक्ष्‍यों और प्रमाणों के आधार पर यथावत प्रस्‍तुत करेगी। इस दृष्‍टि से हमारे तथाकथित वामपंथी बुद्धिजीवी अयोध्‍या विवाद से जुड़े मामले में भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण की उस रिपोर्ट को सर्वथा नकारते रहे हैं, जो अब मंदिर मुद्दे को सुलझाने में प्रमुख आधार बनी है।

2010 में इलाहाबाद उच्‍च न्‍यायालय के फैसले और भारतीय पुरातत्‍व सर्वेक्षण द्वारा विवादित स्‍थल पर कराए उत्‍खनन कर रिपोर्ट को इन इतिहासकारों ने सर्वथा नकार दिया था।हमारे इतिहास का यह दुखद एवं शर्मनाक पहलू है कि न तो आजादी के बाद हमने भारतीय इतिहास का नए तथ्‍यों और प्रमाणों के आधार पर पुनर्लेखन कराया और न ही भारतीय स्‍वतंत्रता आंदोलन के इतिहास का समग्र लेखन करके उसे इतिहास का हिस्‍सा बनाया। छोटे-मोटे प्रयास दक्षिणपंथी सरकारों ने किए भी तो उन्‍हें धर्मनिरपेक्ष स्‍वरूप खंडित हो जाने का हौवा खड़ाकर नकार दिया गया। इससे देश के उन सामंतो, नवाबों और जमींदारों का राष्‍ट्रघाती चरित्र व चेहरा जनता के सामने नहीं आ पाया जो आजादी की लड़ाई में अंग्रेजों के साथ थे। बल्‍कि कालांतर में यही राष्‍ट्रघाती लोग राजनीति की अग्रिम पंक्‍ति में आ गए। उन्‍होंने लोकतंत्र में बड़ी साफगोई से सामंती मूल्‍यों को प्रच्‍छन्‍न रूप में पुनर्स्थापित कर दिया। अपनी-अपनी आजादी हासिल करने के अनेक देशों ने राष्‍ट्रीय दृष्टिकोण अपनाते हुए राष्‍ट्र के इतिहास का पुनर्लेखन कराया। इस प्रक्रिया में जापान, जर्मनी और चीन जैसे प्रमुख राष्‍ट्र शामिल हैं। लेकिन हमारे देश के नीति-नियंता और वामपंथी इतिहासकार स्‍वतंत्रता प्राप्ति के छह दशक बाद भी आंग्‍ल और वाम विचार तथा आंग्‍ल इतिहासकारों द्वारा लिखे इतिहास को अनमोल थाती मानते हुए राम की खड़ाऊ की तरह सिर पर लादे घूम रहे हैं।

यह सोच का ही नहीं वरन अफसोस और अपमान का विषय है। आज सीमांत प्रदेशों में अलगाव की आवाज उठना, देश में अंतकर्लह का पैदा होना, जातीय संघर्ष का बढ़ना और सांप्रदायिक खाई और प्रशस्‍त होने के प्रमुख कारणों में से एक कारण अपने ही देश और जाति के इतिहास को ठीक-ठीक नहीं जानना भी है। अयोध्‍या विवाद के सिलसिले में इलाहाबाद उच्‍च न्‍यायालय की खण्‍डपीठ लखनऊ के फैसले का जनता- जर्नादन ने सम्‍मान किया था। मुद्‌दे से जुड़े प्रमुख पक्षकारों ने भी मर्यादित बयान देकर संयम व विवेक की परिपक्‍वता दर्शाई थी। लेकिन तब संकट उन छद्‌म वामपंथी इतिहासकार और बुद्धिजीवियों की ज्ञान-दक्षता ने खड़ा किया, जो बाबरी विवाद में मुस्‍लिम पक्ष को हर तरह का गोला-बारूद मुहैया कराने में सक्रिय भूमिका निभा रहे थे। चुनौती व दिक्‍कत उन राजनीतिज्ञों की भी रही, जो इस विवाद को भुनाते हुए अपनी राजनीति चमकाने में लगे रहे हैं। इसलिए आहत बुद्धिजीवी कह रहे थे कि इस फैसले में इतिहास, साक्ष्‍य, तार्किकता और धर्मनिरपेक्ष मूल्‍यों को नजरअंदाज कर धार्मिक आस्‍था और दिव्‍यता को मान्‍यता दी गई है।

तमिलनाडु के तत्कालीन मुख्‍यमंत्री करूणानिधि ने तो इस विवाद को आर्य षड्‌यंत्र ही घोषित कर दिया था।जबकि इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने अपने फैसले का आधार भारतीय पुरातत्‍व सर्वेक्षण के 574 पृष्‍ठीय प्रतिवेदन को बनाया था। दरअसल तत्कालीन एएसआई के पूर्व क्षेत्रीय निदेशक केके मोहम्मद ने सर्वेक्षण में पुरातत्विक और ऐतिहासिक साक्ष्यों के आधार पर यह माना था कि अयोध्या में विवादित स्थल पर मस्जिद से पहले मंदिर था। तब मस्जिद का जो कथित ढांचा था, उसकी दीवारों में मंदिर के स्तंभ थे। स्तंभ के निचले भाग में 11वीं और 12वीं सदी में निर्मित मंदिरों में दिखने वाले पूर्ण कलश बने हुए थे। इसमें विष्णु हरिशिला पटल मिला था। इसपर नागरी लिपि संस्कृत भाषा में लिखा है कि यह मंदिर रावण को मारने वाले भगवान को समर्पित है। केके मोहम्मद कहते हैं कि इस खुदाई को निष्पक्ष रखने के लिए 137 श्रमिकों में से 52 मुस्लिम थे।

खुदाई में जो 263 अवशेष मिले, उनसे यह प्रमाणित हुआ कि मस्जिद से पहले मंदिर था। इसकी पुष्टि अब सर्वोच्च न्यायालय ने भी अपने ऐतिहासिक फैसले में कर दी है। इसी बिना पर उच्च न्यायालय के तीनों जजों ने विवादित स्‍थल की केंद्रीय भूमि को निर्विवाद रूप से राम का जन्‍मस्‍थल माना था और अब इसी स्थिति को उच्चतम न्यायालय ने भी फैसले में माना है।जब-जब इतिहास को किसी भी शासन या व्‍यक्‍तियों के प्रति समर्पित किया गया है, उसकी सच्‍चाई संदेह के दायरों में रही है। कमोबेश भारत के इतिहास का भी यही हश्र हुआ है। अफ्रीका के प्रसिद्ध कवि बोल सोयंको ने 13 नवंबर 1988 को नेहरू व्‍याख्‍यान माला में कहा था, भारत के इतिहास ग्रंथों में जो कुछ लिखा है, उसमें हर जगह एक बड़ा प्रश्‍नचिन्‍ह लगा हुआ है। सोयंको का मानना था कि भारत का इतिहास यूरोप के हितों को ध्‍यान में रखकर लिखा गया है। दरअसल 10वीं शताब्दी में फारसी लेखक अलवेरूनी ने भारत को गलत तरीके से दुनिया में पेश करने की शुरूआत की थी। इसने लिखा था कि भारतीय लोगों में इतिहास की समझ नहीं है। इसे ही कालांतर में पाश्चात्य, अंग्रेज और मार्क्सवादी विचारधारा से जुड़े भारतीय इतिहासकारों ने अपने-अपने ढंग से आगे बढ़ाया।

यूरोपियन इतिहासकारों ने लिखा कि भारतीय केवल धर्म और परंपराओं में डूबे रहते हैं, उन्हें बुनियादी चीजों से कोई लेना-देना नहीं है। अंग्रेज जब भारत की सांस्कृतिक, आर्थिक, सामाजिक और वैज्ञानिक विरासत को देखकर आश्चर्यचकित रह गए तो उन्होंने भारतीय इतिहास की गलत व्याख्या करना शुरू कर दी। जिसे ढोने की परंपरा आज भी चली आ रही है।लाज की बात तो यह है कि आज भी हम अंग्रेज इतिहासकारों के लिखे उपनिवेशीय समर्थक इतिहास को तथ्‍यपरक और प्रामाणिक मानते चले आ रहे हैं। इस भ्रम से मोहभंग किए बिना उस भ्रम को और मजबूत करने की कोशिशें करते जा रहे है। ऐसे इतिहास ने ब्रिटिश साम्राज्‍यवादी ताकत के विरूद्ध हुए प्रत्‍येक आंदोलन व विद्रोह को देशद्रोह की संज्ञा दी। जबकि अधिकांश आंदोलनों व विद्रोह को जन समर्थन मिला हुआ था। अंग्रेजों की बांटो और राज करो की इस नीतिगत दृष्टि का सटीक व सही जवाब आखिरकार क्रांतिकारी स्‍वतंत्रता संग्राम सेनानी विनायक दामोदर सावरकर ने कथित विद्रोह की समग्रता की धरोहर को 1857 को स्‍वतंत्रता संग्राम पुस्‍तक के रूप में जनता के सामने रखा। मार्क्‍स और एंगेल्‍स जो इस युद्ध के समकालीन थे, उन्‍होंने भी अनेक घटनाक्रमों का यथार्थ प्रस्‍तुतीकरण ‘न्‍यूयार्क डेली ट्रिब्‍यून‘ में किया। यदि 1857 की इस कौमी एकजुटता और सांस्कृतिक मूल्‍यों की इतिहास दृष्टि को आधुनिक इतिहासकारों ने आगे बढ़ाया होता तो आज हम अयोध्‍या फैसले को भी भारतीय राष्‍ट्र-राज्‍य के परिप्रेक्ष्‍य में एक निर्णायक फैसले के रूप में देख रहे होते?

विवादित स्‍थल से पुरातत्‍वीय उत्‍खनन में मिले अवशेष और अभिलेख इतिहासकारों और बुद्धिजीवियों की आंख खोलने वाले प्रमाण साबित होने चाहिए थे, लेकिन इन्‍होंने उत्‍खनित तथ्‍यों को झुठलाने का हठ किया। क्‍योंकि ये अवघारणाएं इनकी सोच और गढ़ी हुई विचारधारा के विपरीत जा रही थीं। जबकि एएसआई द्वारा उत्‍सर्जित नवीन स्रोतों को शोध का नया आधार बनाकर इतिहास दृष्‍टि में परिवर्तन की जरूरत थी। इतिहास संबद्ध इन इतिहासकारों की तार्किक विशेषज्ञता कितनी उथली थी, इसका उल्‍लेख उच्च न्यायालय के फैसले में माननीय न्‍यायाघीश सुधीर अग्रवाल ने करते हुए लिखा था कि तथ्‍यों के बारे में विशेषज्ञ शुतुरमुर्ग जैसा रुख अपना रहे थे। मुकदमे में ये बुद्धिजीवी सुन्‍नी वक्‍फ बोर्ड की तरफ से स्‍वतंत्र विषय विशेषज्ञ, इतिहासकार और पुरातत्‍वेत्ता के रूप में पेश हुए थे। इनके बयान कितने सतही व हास्‍यास्‍पद हैं, बतौर बानगी देखिए, सुविरा जायसवाल ने कहा था कि विवादित स्‍थल के बारे में उन्‍हें जो भी जानकारी मिली हैं, वे समाचार पत्रों में छपी रपटों और दूसरों की बताई गई जानकारी पर आधारित हैं।

इन्‍होंने मध्‍यकाल के इतिहास विशेषज्ञों द्वारा दी राय के आधार पर इतने महत्वपूर्ण मुद्दे पर अपना बयान अदालत में दर्ज कराया था। प्रकरण में गवाही के रूप में न्‍यायालय में पेश हुई सुप्रिया वर्मा ने भारतीय पुरातत्‍व सर्वेक्षण के उत्‍खनन को चुनौती दी थी। लेकिन उनका शर्मनाक पहलू यह रहा था कि उन्‍होंने एएसआई द्वारा तैयार ‘ग्राउंड पेनीट्रेशन राडार‘ सर्वे की रिपोर्ट ही नहीं पढ़ी थी। खुदाई में इस आधुनिक तकनीक का उपयोग न्‍यायालय के आदेश से हुआ था। सुप्रिया वर्मा और जया मेनन ने एएसआई पर आरोप लगाया था कि आधार स्‍तंभ खुदाई स्‍थल पर प्रायोजित ढंग से आरोपित किए गए हैं। लेकिन अदालत ने पाया उत्‍खनन के दौरान वे स्‍थल पर मौजूद ही नहीं थीं। इसी तरह एक अन्‍य पुरातत्‍वविद्‌ शिरिन भटनागर ने जिरह के बीच स्‍वीकारा कि उन्‍हें मैदान में काम करने का कोई अनुभव नहीं है। कुछ इतिहास पुस्‍तकों की उन्‍होंने भूमिकाएं जरूर लिखी हैं।

 न्यायाधीश सुधीर अग्रवाल ने इन विशेषज्ञों के ज्ञान के संदर्भ में तल्‍ख टिप्‍पणी करते हुए लिखा, ‘मौलिक शोध अनुसंधान और जरूरी अध्ययन किए बगैर विशेषज्ञों ने अपनी राय दी। इस कारण सद्‌भाव स्‍थापित होने की बजाय ये ज्‍यादा जटिलताएं, वैमनस्‍य और विवाद पैदा करने में सहायक बने।‘ हमारे देश में जब-जब कोई विचारक, चिंतक, लेखक अथवा इतिहासकार, वेद, उपनिषद्‌ पुराण या अन्‍य प्राचीन ग्रंथ और आध्यात्मिक ज्ञान की नई देनों के साथ आधुनिक संदर्भों में व्‍याख्‍या करता है तो वामपंथियों का उसका उपहास करना स्‍थायी स्‍वभाव बन गया है। किंतु अब सर्वोच्च न्यायालय ने वाल्मिकी रामायण, स्कंदपुराण और रामचरितमानस में उल्लेखित राम के साक्ष्यों को फैसले का आधार माना है। यह वक्‍त तकाजा है कि अब नये पुरातत्‍वीय निष्‍कर्षों से ऐतिहासिक भूलों को ठीक किया जाए।

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