कुष्ठ रोगियों की सेवा में संघ के 50 वर्ष

पंकज कुमार

गलते हाथ-पैर, शरीर पर भिनभिनाती मक्खियां और ठूठ के समान दिखने वाले हाथों में कटोरा. कुष्ठ रोग की कल्पना मात्र से अच्छे-अच्छों का सारा शरीर कांप जानता है. समाज और परिवार द्वारा त्याग दिए जाने वाले ऐसे ही रोगियों की सेवा का बीड़ा 50 साल पहले उठाया था एक कुष्ठ रोगी ने जिसका नाम था- सदाशिवराव गोविन्दराव कात्रे. इस भगीरथी साधना की प्रेरणा बने थे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के तत्कालीन सरसंघचालक परम् पूजनीय माधव सदाशिवराव गोलवलकर.

सन 1962 में छत्तीसगढ़ के जांजगीर-चांपा (तत्कालीन मध्यप्रदेश के बिलासपुर) जिले के चांपा से 8 किलोमीटर दूर बम्हनीडिह मार्ग में सोंठी नामक स्थान पर कात्रेजी ने भारतीय कुष्ठ निवारक संघ की स्थापना की. किसी कुष्ठ रोगी द्वारा स्थापित यह विश्व की यह पहली कुष्ठ निवारक संस्था अपना स्वर्ण जयंती वर्ष मना रही है. 50 सालों पहले बोया गया सेवा का बीज आज वटवृक्ष बनकर सैकड़ों कुष्ठरोगियों और उनके बच्चों को आश्रय के साथ-साथ समाज को प्रेरणा भी दे रहा है. आश्रम में स्वस्थ होकर कई लोग आज समाज में सामान्य जीवन जी रहे हैं तो कई आश्रम में रहकर कुष्ठ रोगियों रोगियों की सेवा में ही स्वयं को समर्पित कर चुके हैं.

कात्रेजी के जीवन में ही स्थापना की पृष्ठभूमि

आश्रम की स्थापना के पीछे की कथा बड़ी ही मार्मिक है. कुछ वर्षों पूर्व सुनील किरवई ने स्व. कात्रेजी के जीवनी को ‘परमानंद माधवम्’ पुस्तक का रूप दिया था. उसमें आश्रम की स्थापना और विकास यात्रा की पूरी गाथा है. श्री सदाशिव गोविन्द कात्रे जी का जन्म 23 नवंबर 1909 को देवोत्थान एकादशी के दिन गोविन्द राव कात्रे व श्रीमती राधाबाई के पुत्र के रूप में अरौन, जिला गुना(मध्यप्रदेश) में हुआ था. मूल रूप से महाराष्ट्र का कात्रे घराना संस्कृत का प्रकाण्ड विद्वान घराना था. अल्पायु में ही सदाशिव के सर से पिता का साया उठ गया था. उनका लालन-पालन उनके काका गंगाधर ने किया. माध्यमिक कक्षा की पढ़ाई के बाद 1928 में उनकी रेल्वे की नौकरी लग गई. माताजी एवं तीन बहनों की जिम्मेदारी उन पर थी. 1930 में उनका विवाह बयोताई से हुआ और 1932 में एक पुत्री प्रभावती के पिता बने. सदाशिवराव का 1938 में स्थानांतरण बीना हो गया. सन 1943 में उनका संपर्क राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की शाखा से हुआ. अब रेल्वे की नौकरी और संघकार्य उनकी दिनचर्या हो गई.

 

30 जनवरी 1948 को महात्मा गांधी की निर्मम हत्या के बाद मिथ्या आरोप लगाकर संघ पर प्रतिबंध लगा दिया गया. कात्रेजी भी गिरफ्तार कर लिए गए. घर से संपर्क टूट गया. लडक़ी अस्वस्थ रहने लगी. 6 महीने बाद घर लौटे और बेटी की चिकित्सा में लगे, तब तक पत्नी की सर्पदंश से मृत्यु हो गई. अब शुरु हुआ प्रकृति का क्रूर उपहास. बीमार मां और बेटी के एकमात्र सहारे कात्रेजी को कुष्ठरोग ने आ घेरा. धीरे-धीरे रोग की खबर समाज में तथा रेलवे सहकर्मियों तक पहुंच गई. लोग देखते ही दूर हटने लगे. उपेक्षा और घृणा से तंग आकर एक दिन उन्होंने घर छोड़ एक गणेश मंदिर में शरण ले ली. परिवार से अलग रहते हुए उन्होंने पुत्री को पढ़ा-लिखाकर विवाह भी करवा दिया. 1954 में माता की मृत्यु के बाद नौकरी से त्यागपत्र दे दिया और उससे मिली 18 हजार की राशि लेकर अनजान रास्ते पर निकल पड़े.

कात्रेजी अब छत्तीसगढ़ में बिलासपुर के पास बैतलपुर में ईसाई मिशनरियों द्वारा संचालित कुष्ठ चिकित्सालय में भर्ती हो गए. स्वाथ्य लाभ के साथ-साथ अस्पताल की गतिविधियों का सूक्ष्म निरीक्षण कर पाया कि हिन्दुओं को सेवा की आड़ में यहां मतांतरित किया जाता है. समय पाकर रोगियों को वह धर्म परिवर्तन न करने की बात समझाते रहे. संगठित आंदोलन हुआ, बात सरकार तक पहुंची और कात्रेजी के नेतृत्व में कुछ लोग तत्कालीन राज्यपाल हरिभाऊ पाटस्कर जी से मिले. शिकायत सुनने के बाद महामहिम ने हल्ला करने के बजाय स्वयं कार्य खड़ा करने की बात कही. दो माह के आंदोलन के बाद कात्रेजी को बैतलपुर छोडऩा पड़ा. वहां से अमरावती विदर्भ महारोगी मंडल द्वारा संचालित जगदम्ब कुष्ठ आश्रम में भर्ती हो गए. राज्यपाल का कथन उनके मन को मथता रहा.

रोग तो ठीक हो गया परन्तु शरीर का रूप एेसा हो गया जैसे सुन्दर मूर्ति में आग लग गई हो और पानी डालकर बुझाने का प्रयास किया गया हो. हाथ-पांव की अंगुलियां टेढ़ी हो गई थीं. शरीर भी लगभग थक चुका था. विचारों एवं चिंतन की गहराई में डूबे कात्रेजी को आशा की नई किरण दिखाई दी. अपनी शारीरिक पीड़ा भूलकर प्रसन्नचित नई ऊर्जा के साथ वे नागपुर में पूज्य माधव सदाशिवराव गोलवलकर उपाख्य श्री गुरुजी से मिलने पहुंचे और सारी परिस्थियां बताईं. बाद में गुरुजी का विस्तार से पत्र आया जिसमें उन्होंने पंजीकृत संस्था बनाकर कार्य करने की बात कही. गुरुजी की प्रेरणा एवं आशीर्वाद लेकर कात्रेजी बिलासपुर आए संघ के कार्यकर्ताओं का अपना अभिप्राय बताया. 1960-61 के कालखण्ड में उन्होंने समाज के अनेक बंधुओं से संपर्क किया. लोगों ने चांपा को कार्य के लिए उपयुक्त स्थान बताया. वहां दिन भर कुष्ठ बस्तियों में घूमते और लोगों का कार्य का महत्व समझाते. कुछ दिन झोपड़ी बनाकर घोघरा नाला कुष्ठ बस्ती में भी रहे. चांपा में जीवन लाल साव की झोपड़ी में रहते थे. इस बीच कुष्ठरोगियों की मरहम-पट्टी का काम भी करते रहे. कुष्ठ रोगी होने के नाते उन्हें हर जगह उपेक्षा और घृणा का सामना करना पड़ता था. पर धीरे-धीरे अथक प्रयास से नगर के प्रतिष्ठित लोगों का सहयोग सुनिश्चित होने लगा. पैदल चलने में तकलीफ के कारण बुढ़ापे में सायकिल चलाना सीखा. एक पुरानी सायकि ल उपलब्ध करा दी गई. कात्रेजी की योजना एेसे स्थान पाने की थी जहां रोगियों की चिकित्सा एवं आवास की समुचित व्यवस्था हो सके. एक पुरानी झोपड़ी के रूप में उन्हें स्थायी आवास मिल गया. प्रथम तीन कुष्ठ रोगी मिले. उनकी सेवा, मरहम-पट्टी व भोजन तक की व्यवस्था कात्रेजी को ही करनी थी. भीख मांगने के आदी हो चुके रोगी आश्रम के अनुशासन से भागते थे. स्वाभिमान व स्वावलंबन का भाव उनमें जागृत हो व रोग के बारे में गलत धारणा समाज से दूर हो यह कात्रेजी का प्रथम लक्ष्य था. वह गांव-गांव जाकर अन्न-संग्रहण कर स्वयं व साथ रहने वाले रोगियों का पालन करते थे.

छत्तीसगढ़ के प्रबुद्धजनों से चर्चा कर 5 मई 1962 को मध्यप्रदेश सोसायटी रजिस्ट्रेशन एक्ट 1959, कंडिका 6(1) के अंतर्गत भारतीय कुष्ठ निवारक संघ, चांपा के नाम से दिनांक 5 मई 1952 को विधिवत् एक संस्था का पंजीयन किया गया.

 

आर्थिक रूप से पिछड़े छत्तीसगढ़ में धार्मिक भावना बड़ी प्रबल थी. श्री कात्रेजी को भी महाभारत, रामचरितमानस का अच्छा अध्ययन था. उन्होंने लोगों की भावना को राष्ट्रीय ²ष्टिकोण देते हुए कुछ लोगों से बात कर घर-घर मुट्ठी चावल की योजना बनाई. संस्था की रसीद लेकर सायकिल से गांव-गांव चावल इकठ्ठा करने जाने लगे. बाद में एक रूपये प्रतिमास की दर से वर्ष में 12 रूपये सहयोग लेने का निर्णय भी हुआ, जिसे कात्रेजी ही संग्रहित करने जाते थे. उपहास, उपेक्षा, टाल-मटोल के बीच थकते शरीर के साथ एक लक्ष्य लेकर वह सब करते रहे. कुष्ठ रोग के कारण कोई पानी नहीं पूछता था, सब दूर भागते थे. कभी-कभी मन में निराशा भी आ घेरती थी. इसी बीच एक दिन कलकत्ता जाने के क्रम में गुरूजी से पुन: उनकी भेंट हुई. प. पू. गुरूजी ने कात्रेजी को यह गीत स्मरण कराया-

मैं मधु से अनभिज्ञ आज भी जीवन भर विषपान किया है।

किया नहीं विध्वंस विश्व का जीवन भर निर्माण किया है।।

कात्रेजी की सारी उलझनें दूर हुईं और वह पुन: सेवा-साधना में लीन हो गए. आश्रम के बारे में तत्कालीन बिलासपुर विभाग प्रचारक यादवराव कालकर भी स्थान-स्थान पर जाकर आश्रम के बारे में बताने लगे. वह आश्रम की आर्थिक चिंता भी करते थे.

कात्रेजी के कुटिया जहां थी वहीं एक कुआं और धर्मशाला भी था. वह भूमि प्राप्त करने का प्रयास प्रारंभ हुआ और उसके स्वामी साधरामजी ने जमीन आश्रम को दान कर दी. तीन-चार कमरे बन गए तो बढ़ते रोगियों के भोजन व आवास की व्यवस्था हो गई. चांपा से आकर डॉ. गोदावरीश शर्मा मरहम पट्टी कर दिया करते थे. कुछ रोगी काम के लायक थे, कुछ नहीं भी, पर मन सबका कमजोर हो चुका था. ऐसे रोगियों के स्वाभिमान का जागरण कात्रेजी की आत्मीयता और निश्चल प्रेम ने किया. धीरे-धीरे समाज के लोगों और रोगियों के सहयोग से आवास, भोजनालय, गौशाला, खेती आदि का विकास होता गया. कुष्ठ रोग और रोगियों के प्रति लोगों व्यवहार व सोच में परिवर्तन से कात्रेजी एक बड़ी सामाजिक क्रांति लाने में सफल हुए.

बेटी की याद बहुत सताने लगी तो एक दिन ग्वालियर मिलने आ गए. वहां से अपमानित होकर पुन: लौटे, हताशा और निराशा के क्षण में पुन: श्री गुरुजी का स्मरण आया, सारा संताप दूर हो गया. कात्रेजी जी ने एक पत्र तत्कालीन महामहिम राष्ट्रपति डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन के नाम लिखा जिसमें आश्रम की जानकारी दी. महामहिम ने उत्तर के साथ व्यक्तिगत रूप से 1 हजार रूपये की सहायता राशि भी भेजी. गुरूजी से पत्र-व्यहार चलता रहता था. जब कभी भी गुरूजी चांपा स्टेशन से गुजरते कात्रेजी से भेंट कर लिया करते थे.

दाजीबा का आगमन

सबकुछ अपनी गति से चल रहा था. एक दिन अचानक वनवासी कल्याण आश्रम के कार्यकर्ता दामोदर गणेश जी बापट चांपा आए. कात्रेजी की अवस्था और तपस्या देख कर उन्होंने वहीं रहकर उनका सहयोग करने का निश्चय कर लिया. कात्रेजी को एक सहयोगी मिल गया. यह 1972 की बात है. बापट जी के आगमन से समाज के एक उत्साहजनक संदेश गया. पहली बार एक पूर्ण स्वस्थ आदमी आश्रम का काम देखने लगा था. आश्रम में अब स्वावलंबन की दिशा में भी प्रयास प्रारंभ हुआ. कृषि एवं गौशाला के साथ-साथ उद्योग भी प्रारंभ हुए. स्वस्थ कुष्ठरोगी घर में स्थान न मिलने पर वापस यहीं काम करने लगे. आश्रम की ख्याति दूर-दूर तक फैल रही थी. कात्रेजी गुरूजी से मिलकर आश्रम की प्रगति के बारे में बताना चाहते थे पर उनकी यह इच्छा अधूरी रह गई. 5 जून 1973 को समाचार आया कि प. पू. श्रीगुरूजी ने अपना नश्वर शरीर त्याग दिया है. उनके अंतिम दर्शन करने नागपुर जाने का कात्रेजी का प्रयास विफल रहा.

उनका घूमना-फिरना अब बंद हो चुका था. कार्यकर्ताओं का उनके पास आना-जाना लगा रहता. इसी बीच 1975 में आपातकाल लगा. आश्रम के शुभचिंतकों और सहयोगियों की बड़ी संख्या जेल चली गई. इस परिस्थिति में मिलने वाले कार्यकर्ताओं से अभिभावकहीन परिवारों का हाल-चाल लेते और उनके सहयोग का आग्रह करते कात्रेजी स्वयं संवेदना के पर्याय हो गए थे. गुरूजी के जाने के बाद से ही उनमें शिथिलता आनी प्रारंभ हो गई थी.धमतरी में गुरूजी को भेंट में मिली जमीन आश्रम को दान में मिली थी. बांध में डुबान आ जाने के कारण उसका जो मुवावजा आश्रम को मिला उससे जमीन खरीदी गई व शेष राशि का उपयोग कर सभी कुष्ठ रोगियों ने ही मिलकर एक तालाब बनाया जिसका नाम गुरूजी की स्मृति में माधव सागर रखा गया. आश्रम का संपूर्ण कार्य अब बापट जी कर रहे थे.

नश्वर शरीर का त्याग

मार्च 1977 में आपातकाल हटा. देश में सर्वत्र स्वतंत्रता की लहर थी. कात्रेजी को अपार शांति मिली. इधर शारीरिक पीड़ा बढ़ती जा रही थी. शरीर शिथिल होता जा रहा था. पुत्री प्रभावती के घर से अपमानित होने पर कात्रेजी फिर वहां नहीं गए, पर पुत्री को अपने ससुराल वालों के व्यवहार का बड़ा क्षोभ हुआ था. मई 1977 की बात है. ऑफिस के एक काम से उनके पति को छत्तीसगढ़ आना था. पति के साथ वह भी आई, सीधे आश्रम जानकर पिता से भेंट की. कात्रेजी ने भी भान करा दिया कि यह उनकी अंतिम भेंट है. उन्होंने मुक्ति हेतु पुत्री को ग्रह-शांति का अनुष्ठान करने को कहा, पर साथ चलने से मना कर दिया.

ग्वालियर पहुंचकर प्रभावती ने वैदिक पद्धति से अनुष्ठान पूरा कराया और तार द्वारा पिता को संदेश भेजा. इधर चांपा से भी तार आया कि कात्रे गुरूजी नहीं रहे. आश्रम में परमानंद माधवम् का उच्चारण करते हुए 16 मई को उन्होंने जीवन यज्ञ की पूर्णाहुति कर दी थी. आश्रम परिसर में ही उनका अंतिम संस्कार किया गया.

कात्रेजी तो चले गए. बापट जी के सामने अब कुष्ठ पीडितों के स्वस्थ बच्चों के भविष्य का प्रश्र सामने था. इसके लिए उन्होंने सुशील बालक गृह का निर्माण कराया. आश्रम परिसर में ही सुशील विद्या मंदिर का निर्माण कराया गया. स्वावलंबन की भावना से प्रेरित कई नए प्रकल्प वहां शुरु हुए और कुष्ठरोगियों ने चाक, दर्री, रस्सी बनाना सीखा. आश्रम में आने वाले सज्जनों में से किसी को कुछ सहयोग की इच्छा होती तो वह प्रकट करते. इस प्रकार आश्रम का कार्य निरंतर बढ़ता चला गया. रोगियों की जीवटता का इतना वर्णन काफी है कि जब हसदेव नदी पर अहमदाबाद एक्सप्रेस दुर्घटनाग्रस्त हुई तो इन्ही कर्मयोगियों ने तत्परता दिखाई और एम्बुलेंस से लेकर सारी चिकित्सा व्यवस्था उपलब्ध कराई.

 निरंतर प्रगति पर सेवा का तीर्थ

आज आश्रम के स्वर्ण जयंती के इस पावन अवसर पर यह कुष्ठ निवारक संस्था समाज, त्यागी कार्यकर्ताओं एवं स्वयं स्वस्थ हो चुके कुष्ठरोगियों के सम्मिलित साधना से निरंतर सेवा के नए आयाम गढ़ रहा है. यहां रोगियों के उपचार के लिए 20 बिस्तरों वाला एक चिकित्सालय भवन बन चुका है. नेत्र-परीक्षण व कई स्वास्थ्य गतिविधियां यहां संचालित होती रहती हैं. रोगियों को प्रौढ़ शिक्षा योजना के तहत साक्षर किया गया है. उनके बच्चों के लिए कक्षा आठवीं तक विद्यालय व आवास, भोजन, स्वास्थ्य की नि:शुल्क व्यवस्था है. बिलासपुर में तेजस्विनी छात्रावास संचालित है जहां कुष्ठरोगियों की स्वस्थ कन्याएं रहकर अध्ययन करती हैं. कुष्ठरोगियों के स्वावलंबन हेतु कृषि, बागवानी, गौशाला आदि कई कार्यों व केंचुआ खाद, कामधेनु विज्ञान केन्द्र, सिलाई केन्द्र, चाक उद्योग जैसे प्रकल्पों का कार्य निरंतर प्रगति पर है. एक समय लोगों की घृणा का केन्द्र आज देश और विश्व के लिए सेवा का तीर्थ बन गया है.

3 COMMENTS

  1. यह तो संघ कार्यो का एक नमूना मात्र है. ऐसे हजारों स्वयंसेवक और संस्थाएं आज देशभर में सेवारत हैं. निस्वार्थ भाव के साथ और प्रचार-प्रसार से परे.
    फिर भी सेकुलरो को संघ का नाम सुनते ही दस्त लगने लगते हैं.

  2. सदाशिवराव गोविन्दराव कात्रे ने अपने नाम को चरितार्थ करते हुए,कुष्ठ रोगियों के कातर मनों-हृदयों-आत्माओं, आंखों, शरीरों से कातरता को मिटाने का युग दुर्लभ कार्य करते रहे। धन्य हैं ‘कातरता को मिटाने वाले कात्रे’…

  3. मेरी यही आकांक्षा बुनियाद का पत्थर बनना.
    नहीं मुझे कलश बन मंदिर पर जगमगाना.
    | प्रेरणादायी आलेख |
    कातरे जी को शत शत नमन

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