दिल्ली चुनाव का सबक

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बिना विचारे जो करे सो पीछे पछताए…

प्रवीण दुबे
दिल्ली के चुनाव पूर्ण हो गए और नई सरकार का रास्ता भी साफ हो गया। लेकिन यह चुनाव अपने पीछे बहुत कुछ छोड़ गए हैं। इन चुनावों ने भारतीय राजनीति और राजनीतिज्ञों को जो संदेश दिया है उसका विश्लेषण बेहद आवश्यक है। इस बात का आंकलन जरुरी है कि छह माह पूर्व हुए लोकसभा चुनाव में जिस दिल्ली की सातों लोकसभा सीट जिस पार्टी के खाते में गई थीं वहां विधानसभा में उस पार्टी का सूपड़ा साफ क्यों हो गया? जो नेता सर्वाधिक लोकप्रिय प्रधानमंत्री बनकर उबरा था उस नेता की बात को दिल्ली की जनता ने क्यों नकार दिया? इस बात पर चिंतन-मनन भी जरुरी है कि केजरीवाल की आम आदमी पार्टी ने भारत के चुनावी इतिहास की दूसरी सबसे बड़ी जीत कैसे प्राप्त कर ली? इन सारी बातों के अलावा यह भी विचारणीय सवाल है कि इन्द्रप्रस्थ से शुरु हुए केजरीवाल के विजयी रथ को भाजपा कैसे रोकेगी? कहीं देश की जनता आम आदमी पार्टी को कांग्रेस के विकल्प रूप में तो स्वीकार नहीं कर रही? यह सवाल इस कारण खड़ा हुआ है क्योंकि दिल्ली के पारंपरिक कांग्रेस मतदाताओं ने आम आदमी पार्टी का दामन थामकर कांग्रेस को अलविदा कह दिया है।
इन सारी बातों पर बारी-बारी से विश्लेषण करने के लिए यह आवश्यक है कि थोड़ा पीछे मुड़कर देखा जाए। जिस समय दिल्ली चुनाव की घोषणा हुई थी उस समय किसी ने यह सोचा भी नहीं था कि देश में प्रचंड बहुमत से सत्तासीन हुई भारतीय जनता पार्टी और विशेषकर सत्ता से जुड़े शीर्ष नेता नरेन्द्र मोदी और संगठन से जुड़े शीर्ष नेता अमित शाह इसे अपनी प्रतिष्ठा से जोड़ लेंगे। दूसरे शब्दों में कहा जाए तो इसे अपनी मूंछ का बाल बना लेंगे। मगर ऐसा हुआ और चुनाव घोषणा के साथ ही पूरी की पूरी भाजपा दिल्ली को लेकर ऐसे मैदान में कूद पड़ी जैसे कि चाहे जो करना पड़े दिल्ली तो जीतना ही है।
फिर क्या था लोकसभा चुनाव में हाशिए पर चले गए अरविन्द केजरीवाल और उनकी आम आदमी पार्टी को जैसे भाजपा ने ही ऑक्सीजन दे दी और उसका ग्राफ धीरे-धीरे बढऩे लगा।
भाजपा की दूसरी सबसे बड़ी गलती यह सामने आई कि दिल्ली में जो काम स्वयं केजरीवाल करना चाहते थे वह काम स्वयं भाजपा और उनके नीति-निर्धारकों ने ही कर दिया। अर्थात केजरीवाल के बढ़ते ग्राफ को रोकने के लिए सीधे नरेन्द्र मोदी को उतार दिया गया। परिणाम यह लड़ाई मोदी बनाम केजरीवाल बन गई, यही आम आदमी पार्टी चाहती थी। एक तरफ मोदी सहित भाजपा के तमाम छोटे-बड़े नेता दिल्ली में सभाओं पर सभाएं कर रहे थे तो दूसरी तरफ केजरीवाल अपने आप ही हीरो बनते जा रहे थे।
यहां तक तो फिर भी ठीक था लेकिन भाजपा ने तीसरी बड़ी गलती उस समय कर दी जब किरण बेदो को भाजपा में लाकर सीधे मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार के रूप में प्रस्तुत कर दिया गया। पार्टी के इस निर्णय ने आत्मघाती असर दिखाया। जो नेता व कार्यकर्ता चुनाव में जुटे हुए थे उन्हें यह बात अच्छी नहीं लगी। खासकर उन नेताओं को जो स्वयं को मुख्यमंत्री पद की दौड़ में शामिल मान रहे थे। यह सवाल जोर-शोर से उठने लगा कि भाजपा में क्या योग्य उम्मीदवारों की कमी थी? कार्यकर्ताओं नेताओं के बीच इस बात को लेकर नाराजी बढ़ती ही चली गई और पार्टी में कोई भी ऐसा चेहरा सामने नहीं दिखा जो इस गलती से उपजी नाराजी को समझा-बुझाकर दूर कर पाता।
दिल्ली चुनाव में भाजपा की हार के पीछे चौथी मुख्य बात जो नजर आती है वह है। व्यक्तिवाद को बढ़ावा। इस व्यक्तिवाद को पार्टी के भीतर पनप रहे अहमवादी दृष्टिकोण से जोड़कर भी देखा जा सकता है। पार्टी का जो मूल भाव अर्थात ‘हम की भावना है को छोड़ ‘मैं का दृष्टिकोण ज्यादा परिपुष्ट दिखाई देता है। यदि इस चुनाव में ‘हमÓ का भाव तथा तत्वनिष्ठा को सर्वोपरि मानकर निर्णय लिए जाते तो शायद इतने खराब परिणाम सामने नहीं आते। यह सच है कि संगठन में  पार्टी अध्यक्ष और सरकार में प्रधानमंत्री सर्वोपरि होता है। लेकिन इसका अर्थ यह कदापि नहीं कि शेष सभी को दरकिनार कर दिया जाए। इस बात को कतर्ई नहीं भूलना चाहिए कि भाजपा एक कार्यकर्ता आधारित दल है और यहां जो भी निर्णय लिए जाएं वो कार्यकर्ता को केन्द्र में रखकर लिए जाने चाहिए। यह इस दृष्टि से भी महत्वपूर्ण है कि पार्टी के वैभवशाली स्वरूप से प्रभावित होकर अन्य दलों के नेताओं को पार्टी में शामिल करने से पूर्व कार्यकर्ताओं अथवा वरिष्ठ पार्टी नेताओं के सोच को जरुर ध्यान रखा जाए। दिल्ली में किरण बेदी को पार्टी में शामिल करने से लेकर उन्हें मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित किए जाने तक न तो कार्यकर्ताओं का मन टटोला गया और न ही पार्टी के वरिष्ठजनों की राय ली गई। इसका परिणाम हमारे सामने है।
दिल्ली की हार का यह बहुत बड़ा सबक होगा कि अन्य दलों के बाहरी नेताओं को पार्टी में शामिल करने और सीधे उन्हें बड़ी जिम्मेदारी के लिए प्रस्तुत करने को लेकर व्यापक चिंतन किया जाए, बहुत अच्छा होगा इसके लिए किसी नीति का निर्धारण कर दिया जाए।
दिल्ली चुनाव का एक बड़ा सबक यह भी हो सकता है कि क्षेत्रीय अर्थात विधानसभा चुनाव में स्थानीय मुद्दों को दरकिनार करना बेहद खतरनाक हो सकता है। दिल्ली चुनाव में ऐसा लगा कि भाजपा ने यह सोचकर चुनाव लड़ा कि विज्ञापनों के सहारे तथा राष्ट्रीय नेतृत्व को प्रचार में झोंककर स्थानीय मुद्दों पर जोर दिए बगैर विजय हासिल की जा सकती है और मनमाने तरीके से नेताओं को कार्यकर्ताओं पर लादा जा सकता है। भाजपा जैसे मजबूत संगठनात्मक ढांचे वाले कार्यकर्ता आधारित दल में ऐसा करना एक बड़ी गलती या भूल थी और आगे ऐसा नहीं हो इस पर पार्टी के नीति निर्धारकों को चिंतन की आवश्यकता है।
भाजपा से जुड़े नेताओं को यह नहीं भूलना चाहिए कि उनका दल अब राष्ट्रव्यापी स्वरूप ग्रहण कर चुका है। यह भी याद रखने की जरुरत है कि भारत जैसे बड़े लोकतंत्र में चुनाव तो लगातार आते और जाते रहेंगे। अभी दिल्ली निपटा है और आने वाले समय बिहार, उत्तरप्रदेश जैसे कई बड़े राज्यों में विधानसभा चुनाव होना है। अत: पार्टी को भीतर से मजबूत करने के साथ-साथ धरातल पर काम करने की जरुरत है। केवल बाहरी लोगों के सहारे अथवा भाषणों की घुट्टी पिलाकर जीत हासिल नहीं की जा सकती। दिल्ली इसका बहुत बड़ा प्रमाण है। जो हुआ उससे सबक ले आगे बढ़ें यही समझदारी है।

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प्रवीण दुबे
विगत 22 वर्षाे से पत्रकारिता में सर्किय हैं। आपके राष्ट्रीय-अंतराष्ट्रीय विषयों पर 500 से अधिक आलेखों का प्रकाशन हो चुका है। राष्ट्रवादी सोच और विचार से प्रेरित श्री प्रवीण दुबे की पत्रकारिता का शुभांरम दैनिक स्वदेश ग्वालियर से 1994 में हुआ। वर्तमान में आप स्वदेश ग्वालियर के कार्यकारी संपादक है, आपके द्वारा अमृत-अटल, श्रीकांत जोशी पर आधारित संग्रह - एक ध्येय निष्ठ जीवन, ग्वालियर की बलिदान गाथा, उत्तिष्ठ जाग्रत सहित एक दर्जन के लगभग पत्र- पत्रिकाओं का संपादन किया है।

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