आइये हम सभी भंगी बने

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अरुण तिवारी
महात्मा का सपना, मोदी का मिशन
एक थाने के बाहर झाङू लगाता देश के प्रधानमंत्री, रेलवे स्टेशन की सफाई करता रेलमंत्री, सफाई के लिए अपने पैतृक गांव को गोद लेती जलसंसाधन मंत्री; नाला साफ करता विपक्षी पार्टी का एक प्रमुख, सङकों पर झाङू उठाये खङे मुंबइया सितारे और ’’न गंदगी करुंगा और न करने दूंगा’’ कहकर शपथ लेते 31 लाख केन्द्रीय कर्मचारी। दिखावटी हों, तो भी कितने दुर्लभ दृश्य थे ये! ’नायक’ एक फिल्म ही तो थी, किंतु एक दिन के मुख्यमंत्री ने खलनायक को छोङकर, किस देशभक्त के दिल पर छाप न छोङी होगी ?
सफाई की छूत-अछूत 
दुर्भाग्यपूर्ण है कि ’स्वच्छ भारत’ का आगाज करने के उपक्रम में हमने भाजपा नेता, अभिनेता, सामाजिक कार्यकर्ताओं, सरकारी कर्मचारियों व आम आदमी के अलावा सिर्फ आम आदमी पार्टी के नेता व कार्यकर्ताओं को ही शामिल देखा। दूसरी पार्टियों के लोगों को अपने से यह सवाल अवश्य पूछना चाहिए कि यह राजनीति हो, तो भी क्या यह नई तरह की राजनीति नहीं है ? महात्मा गांधी ने भी तो शक्ति और सत्ता की जगह स्वराज और सत्याग्रह जैसे नये शब्द देकर नये तरह की राजनीति पैदा करने की कोशिश की थी। क्या इस राजनीति से गुरेज किए जाने की जरूरत है ? राजीव शुक्ला ने इस अभियान को अच्छी पहल कहा। किंतु क्या गांधी को अपना बताने वाली कांग्रेस पार्टी को गांधी के सपने के लिए हाथ में झाङू थामने से गुरेज करने की जरूरत थी ? मोदी की छूत से महात्मा के सपने को अछूत माना लेना, क्या स्वयं महात्मा गांधी को अच्छा लगता ? आइये, अपने दिमाग के जालों को साफ करें; जवाब मिल जायेगा।
मोहन का सपना, मोदी का मिशन
12 वर्षीय मोहनदास सोचता था कि उनका पाखाना साफ करने ऊका क्यों आता है ? वह और घर वाले खुद अपना पाखाना साफ क्यों नहीं करते ? किंतु क्या आज 133 बरस बाद भी हम यह सोच पाये ? जातीय भेदभाव और छुआछूत के उस युग में भी मोहनदास, ऊका के साथ खेलकर खुश होता था। हमारी अन्य जातियां, आज भी वाल्मीकि समाज के बच्चों के साथ अपने बच्चों को खेलता देखकर खुश नहीं होती। विदेश से लौटने के बाद बैरिस्टर गांधी ने भारत में अपना पहला सार्वजनिक भाषण बनारस हिंदू यूनिवर्सिटी में दिया था। मौका था, दीक्षांत समारोह का; बोलना था शिक्षा पर, गांधी को बाबा विश्वनाथ मंदिर और गलियों की गंदगी ने इतना व्यथित किया कि वह बोले गंदगी पर। उन्होने कहा कि यदि अभी कोई अजनबी आ जाये, तो वह हिंदुओं के बारे में क्या सोचेगा ?
यह बात 100 बरस पुरानी है। आज 100 बरस बाद भी हिंदू समाज अपनी तीर्थनगरियों के बारे में वैसा नहीं सोच पाये। कितने ही गांधीवादी व दलित नेता, गर्वनर से लेकर मुख्यमंत्री और प्रधानमंत्री तक हुए, स्वच्छता को प्रतिष्ठित करने का ऐसा व्यापक हौसला क्या किसी ने दिखाया ? मायावती ने सफाई कर्मी की नौकरी को बाकि दूसरी जातियांे के लिए खोलकर छुआछूत की खाई को पाटने का एक प्रयोग किया था। वह आगे न बढ सका। ऐसे में यदि आज उसी बाबा विश्वनाथ की नगरी से चुने एक जनप्रतिनिधि ने बतौर प्रधानमंत्री वैसा सोचने का हौसला दिखाया है, तो क्या बुरा किया ?
बापू को राष्ट्रपिता मानने वाले भारतीय जन-जन को यदि मोदी यह बता सके कि राष्ट्रपिता की जन्म तिथि, सिर्फ छुट्टी मनाने, भाषण सुनने या सुनाने के लिए नहीं होती; यह अपने निजी-सार्वजनिक जीवन में शुचिता का आत्मप्रयोग करने के लिए भी होती है; तो क्या यह आहृान् नकार देने लायक है ? भारत की सङकों, शौचालयों व अन्य सार्वजनिक स्थानों में कायम गंदगी और गंदी बातें, राष्ट्रीय शर्म का विषय हैं। इस बाबत् की किसी भी सकरात्मक पहल का स्वागत होना चाहिए।
प्रतीकों से आगे जायेगी पहल
यह पहल संकेतों व प्रतीकों तक सीमित नहीं रहेगी; कई घोषणाओं ने इसका भी इजहार कर दिया है। सफाई के लिए 62,000 करोङ रुपये का बजट; बजट जुटाने के लिए स्वच्छ भारत कोष की स्थापना, कारपोरेट जगत से सामाजिक जिम्मेदारी के तहत् धन देने की अपील और गंदगी फैलाने वालों के लिए जुर्माना। 2019 तक 11 करोङ, 11 लाख शौचालय का लक्ष्य और 2,47,000 ग्राम पंचायतों मंे प्रत्येक को सालाना 20 लाख रुपये की राशि। शहरी विकास मंत्रालय ने एक लाख शौचालयों की घोषणा की है। मंत्रालय ने निजी शौचालय निर्माण में चार हजार, सामुदायिक में 40 प्रतिशत और ठोस कचरा प्रबंधन में 20 प्रतिशत अंशदान का ऐलान किया है। कोयला एवम् बिजली मंत्रालय ने एक लाख शौचालय निर्माण की जिम्मेदारी ली है। सार्वजनिक क्षेत्र की तेल कंपनियों में ओएनजीसी ने 2500 सरकारी स्कूल, गेल ने 1021, भारत पेट्रोलियम और हिंदुस्तान पेट्रोलियम ने 900 शौचालय निर्माण का वायदा किया है।
शौचालय, स्वच्छता और सावधानी
हालांकि, यदि यह कार्यक्रम सिर्फ शौचालयों तक सीमित रहा, तो ’स्वच्छ भारत’ की सफलता भी सीमित ही रह जायेगी। संप्रग सरकार की ’निर्मल ग्राम योजना’ भी शौचालयों तक सिमटकर रह गई थी। ऐसा न हो। शौचालय, निस्संदेह हमारी सांस्थानिक, सार्वजनिक, शहरी और शहरीकृत ग्रामीण आबादी की एक जरूरी जरूरत हैं। इस जरूरत की पूर्ति भी निस्संदेह, एक बङी चुनौती है। पैसा जुटाकर हम इस चुनौती से तो निबट सकते हैं। किंतु सिर्फ पैसे और मशीनों के बूते सभी शौचालयों से निकलने वाले मल को निपटा नहीं सकते। इसी बिना पर ग्रामीण इलाकों में घर-घर शौचालयों के सपने पर सवाल खङे किए जाते रहे हैं। गांधी जी ने गांवों में गंदगी का निपटारा करने के लिए कभी शौचालयों की मांग की हो; मेरे संज्ञान में नहीं है। वह खुले शौच को मिट्टी डालकर ढक देने के पक्ष में थे।
वाल्मीकि बस्ती के परिसर में प्रधानमंत्री जी ने जिस शौचालय का फीता काटकर लोकार्पण किया था, वह भारतीय रक्षा अनुसंधान संगठन द्वारा ईजाद खास जैविक तकनीक पर आधारित है। ऐसी कई तकनीकें साधक हो सकती है। यदि हमने भिन्न भू-सांस्कृतिक विविधता की अनुकूल तकनीकों को नहीं अपनाया अथवा हर शौचालय को सीवेज पाइपलाइन आधारित बनाने की गलती की, तो सवाल फिर उठेंगे। न निपट पाने वाला मल, हमारे भूजल और नदियों को और मलीन करेगा; साथ ही हमें भी।
ठोस कचरे की चुनौती
इस चुनौती में हमें औद्योगिक कचरे के अलावा अन्य ठोस कचरा निपटान को भी शामिल कर लेना चाहिए। इलेक्ट्राॅनिक्स कचरा निपटान में बदहाली को लेकर राष्ट्रीय हरित अधिकरण ने अभी हाल ही में मंत्रालय को नोटिस भेजा है। यदि हम चाहते हैं कि कचरा न्यूनतम उत्पन्न हो, तो हम ’यूज एण्ड थ्रो’ प्रवृति को हतोत्साहित करने वाले टिकाऊ उत्पाद नियोजित करंे। कचरे का निष्पादन उसके स्त्रोत पर ही करने की पहल जरूरी है। कचरे का सर्वश्रेष्ठ निष्पादन विशेषज्ञता, सुनियोजन, कङे कानून, क्रियान्वयन में बेहद सख्त अनुशासन तथा प्रेरणा की भी मांग करता है। यह किए बगैर ’स्वच्छ भारत’ की कल्पना मुश्किल है।
रोजी छूटे न
पश्चिम के देशों से शहरों की सफाई का शास्त्र सीखने की बात गांधी जी ने भी की थी। किंतु यदि स्वच्छ भारत का यह मिशन, अमेरिका के साथ मिलकर भारत के 500 शहरों में संयुक्त रूप से ’वाश’ कार्यक्रम के वादे में सिर्फ निजी कपंनियों के फायदे की पूर्ति के लिए शुरु किया गया साबित हुआ, तो तारीफ करने से पहले बकौल गांधी, जांच साध्य के साधन की शुचिता की करनी जरूरी होगी। सफाई कर्मचारियों की रोजी पहले ही ठेके के ठेले पर लुढक रही है। विदेशी कंपनियां और मशीनें आईं तो उनकी रोजी को ठेंगा देखने की नौबत न आये; यह सुनिश्चित करना होगा।
आज भारत, दुनिया से बेहद खतरनाक किस्म का बेशुमार कचरा खरीदने वाला देश है। भारत, दुनिया के कचरा फेंकने वाले उद्योगों को अपने यहां न्योता देकर बुलाकर खुश होने वाला देश है। भारत अब एक ऐसा देश भी हो गया है, जो पहले अपनी हवा, पानी और भूमि को मलीन करने में यकीन रखता है और फिर मलीनता को साफ करने के लिए कर्जदार होने में। आइये, हम इस ककहरा को उलट दें। हम यह सुनिश्चित करें किं ’स्वच्छ भारत’ का यह मिशन भारत के 20 करोङ बेरोजगारों को रोजगार व स्वरोजगार देने वाला साबित हो।
सफाई बने सौगात
एक आकलन के मुताबिक, भारत में हंरं रोज 1.60 लाख मीट्रिक टन कचरा हर रोज पैदा होता है। यदि हम इसका ठीक से निष्पादन करें, तो इतने कचरे से 27 हजार करोङ रुपये की खाद पैदा की जा सकती है 45 लाख एकङ बंजर को उपजाऊ खेतों में बदला जा सकता है। 50 लाख टन अतिरिक्त अनाज पैदा करने की क्षमता हासिल की जा सकती है और दो लाख सिलेंडरों हेतु अतिरिक्त गैस हासिल की जा सकती है। उचित नियोजन और सभी के संकल्प से यह किया जा सकता है। सरकार ने स्वच्छता को मिशन बनाया है, हम इसे आदत बनायें। ’स्वच्छ भारत’ का यह मिशन यदि यह संभव कर सका, तो सफाई की सौगात दूर तक जायेगी। भारत की कृषि, आर्थिकी, रोजगार और सामाजिक दर्शन में कई स्वावलंबी परिवर्तन देखने को मिलेंगे।
व्यापक मलीनता को व्यापक शुचिता की दरकार
हालांकि यदि हम सफाई, स्वच्छता, शुचिता जैसे आग्रहों को सामने रख गांधी द्वारा किए आत्मप्रयोग और संपूर्ण सपने को सामने रखेंगे, तो हमें बात मलीन राजनीति, मलीन अर्थव्यवस्था, मलीन तंत्र, मलीन नदियां, हवा, भूमि ,भ्रष्टाचार, बीमार अस्पताल, बलात्कार, पोर्न और नशे से लेकर हमारी मलीन मानसिकता के कई पहलुओं की करनी होगी; किंतु गांधी ने सफाई करने वालों के बारे में हमारे समाज की जिस मलीनता को दूर करने का संदेशा दिया था, उसका उल्लेख किए बगैर यह लेख अधूरा ही रहेगा।
आइये, हम सभी भंगी बने
गांधी ने सफाई करने के काम को अलग पेशा मानने वाले समाज को दोषपूर्ण करार दिया था। वह मानते थे कि यह भावना हम सब के मन में बचपन से ही जम जानी चाहिए कि हम सब भंगी हैं। इसका सबसे आसान तरीका यह बताया था कि हम अपने शारीरिक श्रम का आरंभ पाखाना साफ करके करें। शहरों की स्वच्छता को निगम पार्षदों द्वारा सेवा भाव से लेने की हिदायत देते हुए गांधी जी ने उनसे अपेक्षा की थी कि वे अपने को भंगी कहने में गौरव का अनुभव करेंगे। गौर कीजिए, उनका लक्ष्य सिर्फ सफाई अथवा सफाई वाला वर्ग नहीं था। वह चाहते थे कि इसके जरिए हम धर्म को एक निराले ढंग से समझें व स्वीकारने योग्य बन जायें। दुआ कीजिए कि ’स्वच्छ भारत’ हमें मानसिक रूप से इतना स्वच्छ बना सके कि हम निजी और सार्वजनिक ही नहीं, बल्कि धर्म और जाति की मलीन खाइयों को पाट सकें। इससे महात्मा जी का सपना भी पूरा हो जायेगा और मोदी का मिशन भी।

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