आइये, कुंभ को जाने

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kumbhसिर्फ स्नान नहीं है कुंभ

अरुण तिवारी

दुनिया में पानी के बहुत से मेले लगते हैं, लेकिन कुंभ जैसा कोई कोई नहीं। स्वीडन की स्टॉकहोम, ऑस्ट्रेलिया की ब्रिसबेन, अमेरिका की हडसन, कनाडा की ओटावा…जाने कितने ही नदी उत्सव साल-दर-साल आयोजित होते ही हैं, लेकिन कुंभ!.. कुंभ की बात ही कुछ और है। जाति, धर्म, अमीरी, गरीबी.. यहां तक कि राष्ट्र की सरहदें भी कुंभ में कोई मायने नहीं रखती। साधु-संत-समाज-देशी-विदेशी… इस आयोजन में आकर सभी जैसे खो जाते हैं। कुंभ में आकर ऐसा लगता ही नहीं कि हम भिन्न हैं। हालांकि पिछले 60 वर्षों में बहुत कुछ बदला है, बावजूद इसके यह सिलसिला बरस.. दो बरस नहीं, हजारों बरसों से बदस्तूर जारी है। छः बरस में अर्धकुंभ, 12 में कुंभ और 144 बरस में महाकुंभ! ये सभी मुझे आश्चर्यचकित भी करते हैं और मन में जिज्ञासा भी जगाते हैं कि आखिर कुंभ है क्या ?
कुंभ क्या है ?
नदी में स्नान कर लेने मात्र का एक आस्था पर्व या इसकी पृष्ठभूमि में कोई और प्रयोजन थे? यदि प्रयोजन सिर्फ स्नान मात्र ही हो, तो कल्पवासी यहां महीनों कल्पवास क्यों करते हैं? सिर्फ स्नान के लिए इतना बड़ा आयोजन क्यों? क्या कुंभ हमेशा से ही ऐसा था या समय के साथ इसके स्वरूप में कोई बदलाव आया? अर्धकुंभ, कुंभ और महाकुंभ की नामावली, समयबद्धता तथा अलग-अलग स्थान पर आयोजन के क्या कोई आधार हैं? यह पूरा आयेाजन सिर्फ आस्था पर आधारित है या इसके पीछे कोई वैज्ञानिक अथवा सामाजिक कारण भी हैं? करीब छह बरस पहले ये तमाम सवाल जलपुरुष के नाम से विख्यात पानी कार्यकर्ता राजेन्द्र सिंह के मन में उठे थे। उनके साथ मिलकर इन प्रश्नों के उत्तर तलाशते-तलाशते जो सूत्र हमारे हाथों लगे, वे सचमुच अद्भुत हैं और भारतीय ज्ञानतंत्र की गहराई का प्रमाण भी। कुंभ का इतना वैज्ञानिक व तार्किक संदर्भ जान मेरा मन आज भी गर्व से भर उठता है। कुंभ सिर्फ स्नान न होकर कुछ और है। आखिर कोई तो वजह होगी कि लाख-दो लाख नहीं, करोड़ों लोग सदियों से बिन बुलाये चले आ रहे हैं हमारी नदियों का मेहमान बनने ? 22 अप्रैल, 2016 से सिंहस्थ कुंभ में शिप्रा फिर मेहमाननवाजी कर रही है। इस मेहमाननवाजी को लेकर महाकाल का उज्जैन आज फिर पेश है, एक नई अदा के साथ। सदियों से चल रहा है यह सिलसिला। क्यों? क्या सिर्फ स्नान के लिए? अब तो हमारी नदियों का जल स्नान योग्य भी नहीं रहा। बावजूद इसके भी क्यों खिंचे चले आते हैं दुनिया भर से लोग कभी शिप्रा, गोदावरी तो कभी त्रिवेणी तट पर? यह विचार करने योग्य प्रश्न हैं। क्या कुंभ में आने वाले प्रत्येक स्नानार्थी को उन सूत्रों को नहीं जानना चाहिए?

कुंभ को जानना जरूरी क्यों ?
भारत के ऋषि-आचार्य भली-भांति जानते थे कि विज्ञान तर्क करता है, सवाल उठाता है और जवाब मांगता है। वे इससे भी वाकिफ थे कि आस्था सवाल नहीं करती, वह सिर्फ पालन करती है। अतः उन्होंने समाज को नैतिक व अनुशासित बनाये रखने के लिए लंबे समय तक वैज्ञानिक व तार्किक रीति-नीतियों को धर्म, पाप, पुण्य और मर्यादा जैसी आस्थाओं से जोड़कर रखा। समाज को विज्ञान की जटिलताओं व शंकाओं में उलझाने की बजाय आस्था की सहज, सरल और छोटी पगडंडी का मार्ग अपनाया। लेकिन अब आधुनिक विज्ञान और तकनीक का जमाना है। हम 21वीं सदी में हैं। नई पीढ़ी को हमारी आस्थाओं के पीछे का विज्ञान व तर्क बताना ही होगा। भारत का पांरपरिक ज्ञान भले ही कितना गहरा व व्यावहारिक हो, लेकिन सिर्फ पाप-पुण्य कहकर हम नवीन पीढ़ी को उसके अनुसार चलने को प्रेरित नहीं कर सकते। उसे तर्क की कसौटी पर खरा उतारकर दिखाना ही होगा; वरना् भारत का अद्भुत ज्ञान जरा से आलस्य के कारण पीछे छूट जायेगा। उस पर जमी धूल को पांेछना ही होगा। कुंभ के असल मंतव्य को न समझाये जाने का ही परिणाम है कि आज कुंभ… नदी समृद्धि बढ़ाने वाला पर्व होने की बजाय, नदी में गंदगी बहाने वाला एक दिखावटी आयोजन मात्र बनकर रह गया है। जरूरी है कि कुंभ आने से पहले प्रत्येक आगंतुक कुंभ को जाने; तभी हम कुंभ के प्रति न्याय कर पायेंगे।
कुंभ की आस्था
आपने कुंभ राशि के प्रतीक के रूप में कलश को देखा होगा। कलश यानी ‘घट’ अर्थात घड़ा! आस्था कहती है कि समुद्र मंथन के दौरान निकले अमृत कलश को दानवों से बचाने के लिए दैवीय शक्तियां 12 दिन तक उसे ब्रहाण्ड में छिपाने की कोशिश करती रहीं। इस दौरान उन्होंने जिन-जिन स्थानों पर अमृत कलश को रखा, वे स्थान कुंभ के स्थान हो गये। गर्ग संहिता आदि पुराणों में यह उल्लेख मिलता है, तो अथर्ववेद कहता है कि समुद्र मंथन के समय अमृत से पूर्ण कुंभ जहां-जहां स्थापित किया गया, वे चार स्थान कुंभ के तीर्थ हो गये। अन्य पुराण 12 वर्षों में सूर्य, चन्द्र और बृहस्पति के योगायोग के चार प्रभाव बिंदुओं को कुंभ का स्थान मानते हैं। नासिक (महाराष्ट्र) में गोदावरी नदी का तट, उज्जैन (मध्यप्रदेश) में शिप्रा के तट पर, इलाहाबाद में गंगा-यमुना की संगमस्थली प्रयाग और हरिद्वार में गंगा का किनारा… ये चार स्थान आज भी कुंभ के स्थान बने हुए है। आस्था कहती है कि दैवीय शक्तियां कुंभ को लेकर 12 दिन तक चक्कर लगाती रहीं। उनका एक दिव्य दिवस, मृत्युलोक के एक वर्ष के बराबर होता है। अतः 12 दिव्य दिवस, मानव गणना के 12 वर्ष हो गये और इन 12 वर्षों के अंतराल को दो कुंभ का अंतराल मान लिया गया।
कुंभ का विज्ञान
इस ब्रह्माण्ड को भरा हुआ कुंभ ही कहा गया है। वैज्ञानिक इसी से दिन, रात, महीना और 12 महीनों का एक वर्ष की गणना करते रहे हैं। पृथ्वी एक दिन में अपनी धुरी पर एक बार और 12 महीनों में सूर्य की एक परिक्रमा पूरी करती है। यह हम सभी जानते हैं।
भारत के ऋषि वैज्ञानिक तर्क देते हैं कि ब्रह्माण्ड में दो तरह के पिण्ड हैं, ऑक्सीजन प्रधान और कार्बन डाइऑक्साइड प्रधान। ऑक्सीजन प्रधान पिण्ड ‘जीवनवर्धक’ होते हैं और कार्बन डाइऑक्साइड प्रधान पिण्ड ‘जीवनसंहारक’। जीवनवर्धक पिण्डों और तत्वों का सर्वप्रधान केन्द्र होने के नाते ग्रहों में बृहस्पति का स्थान सर्वोच्च माना गया है। शुक्र सौम्य होने के बावजूद संहारक है। शायद इसीलिए पुराणों ने बृहस्पति की देवों और शुक्र की आसुरी शक्तियों के गुरू के रूप में कल्पना की है। शनि ग्रह जीवनसंहारक तत्वों का खजाना है। सूर्य के द्वादशांश को छोड़ दें, तो शेष भाग जीवनवर्धक है। सूर्य पर दिखता काला धब्बा ही वह हिस्सा है, जिसे जीवनसंहारक कहा गया है। अमावस्या के निकट काल में जब चन्द्रमा क्षीण हो जाता है, तब संहारक प्रभाव डालता है। शेष दिनों में… खासकर पूर्णिमा के निकट दिनों में चन्द्रमा जीवनवर्धक हो जाता है। मंगल.. रक्त और बुद्धि दोनों पर प्रभाव डालता है।

बुध उभय पिण्ड है। जिस ग्रह का प्रभाव अधिक होता है, बुध उसके अनुकूल प्रभाव डालता है। छाया ग्रह राहु-केतु तो सदैव ही जीवनसंहारक यानी कार्बन डाइऑक्साइड से भरे पिण्ड हैं। इनसे जीवन की अपेक्षा करना बेकार है।

आइये, कुंभ को जाने
ज्योतिष विज्ञान अलग-अलग ग्रहों को अलग-अलग राशियों के स्वामी मानता है। जीवनवर्धक ग्रहों का प्रधान ग्रह बृहस्पति जब-जब संहारक ग्रहों की राशि में प्रवेश कर जीवनसंहारक तत्वों के कुप्रभावों को रोकने की कोशिश करता है। ऐसी तिथियां शुभ मानी गई हैं। ऐसे चक्र में एक समय ऐसा आता है, जब बृहस्पति ग्रह जीवनसंहारक शनि की राशि कुंभ में प्रवेश करता है। इसी काल में जब सूर्य और चन्द्रमा मंगल की राशि मेष में आ जाते हैं, तब इनके प्रभाव का केन्द्र बिंदु हरिद्वार क्षेत्र बनता है। इसी प्रकार एक समय बृहस्पति ग्रह दैत्यगुरू शुक्र की राशि वृष में प्रवेश करता है तथा सूर्य और चन्द्रमा का शनि की राशि मकर में प्रवेश होता है। यह ऐसी तिथि होती है, जब सूर्य दक्षिणायन से उत्तरायण होता है। सूर्य का उत्तरायण होना कर्मकाण्ड की दृष्टि से शुभ माना जाता है। ऐसे समय में उत्तर प्रदेश का इलाहाबाद प्रभाव क्षेत्र बनता है। 2013 का कुंभ ऐसे ही संयोग का परिणाम था।
जब भादों की भयानक धूप होती है, तब सूर्य के मारक प्रभाव से बचाने के लिए बृहस्पति सूर्य की राशि सिंह में प्रवेश करता है। इसी समय जब तक सूर्य चन्द्र सहित सिंह राशि पर बना रहता है, तब तक महाराष्ट्र का नासिक इसका केन्द्र बिंदु बनता है। ऐसे समय नासिक में गोदावरी तीरे कुंभ पर्व की तरह मनाया जाता हैं। जब बृहस्पति सिंहस्थ हो, सूर्य मंगल की मेष राशि में हो और चन्द्रमा शुक्र की राशि तुला में पहुंच जाये, तो महाकाल का पवित्र क्षेत्र उज्जैन इसका प्रभाव बिंदु बनता है। इसी के लिए उज्जैन के कुंभ को ’सिंहस्थ कुंभ’ कहा जता है। कुंभ के भिन्न समय व स्थान का यही विज्ञान है।
कुंभ का सिद्धांत
आकाश हो या धरती, हर जगह… हर काल में दो तरह की शक्तियां रही हैं, नकारात्मक और सकारात्मक। नकरात्मक शक्तियां आज भी आसुरी कृत्यों का ही प्रतीक मानी जाती हैं। सकारात्मक शक्तियां हमेशा ही देवरूप में पूजनीय रही है। जो लेता कम है और देता ज्यादा है… वह देवता। जो देता कम है और अपने निजी के लिए दूसरों का सर्वस्व छीन लेने की इच्छा रखता है, वह दानव। यही परिभाषा हर काल में सर्वमान्य रही। राम-कृष्ण देव कहाये और ज्ञानी ब्राह्मण होने के बावजूद रावण को राक्षस कहा गया। आज हम भ्रष्टाचारियों को उनके नकारात्मक कृत्यों के कारण ही तो कोसते हैं। अपना खजाना भरने के लिए दूसरों की जमीन, पानी, खेती पर काबिज करने वाले देव-दानव में से किस परिभाषा में आते है ? कभी विचार कीजिए।
खैर! अगर वेद और पुराणों की मानें तो भी, और विज्ञान की मानें तो भी.. एक निष्कर्ष तो निर्विवाद है। कुंभ की आस्था और विज्ञान..दोनों ही इस बात की पुष्टि करते हैं कि जब-जब जीवनवर्धक अर्थात सकरात्मक व रचनात्मक शक्तियों द्वारा जीवनसंहारक तत्वों यानी नकारात्मक.. विनाशक शक्तियों के दुष्प्रभाव को रोकने की कोशिश की गई, तब-तब का समय व कोशिश कुंभ के नाम से विख्यात हो गये। सिद्धांत यही है। अच्छी ताकतों द्वारा बुरी ताकतों को रोकने की कोशिश में एकजुट होने की परिपाटी ही कुंभ है। भारत का वर्तमान आज पुनः ऐसे ही कुंभ मांग कर रहा है।
कुंभ का व्यवहार
पृथ्वी पर आने से इंकार करते हुए गंगा ने राजा भगीरथ से एक प्रश्न किया था, “मैं इसलिए भी पृथ्वी पर नहीं जाऊंगी कि लोग मुझमें अपने पाप धोयेंगे और मैं मैली हो जाऊंगी। तब मैं अपना मैल धोने कहां जाउंगी?” तब राजा भगीरथ ने वचन दिया था- “माता! जिन्होंने लोक-परलोक, धन-सम्पति और स्त्री-पुत्र की कामना से मुक्ति ले ली है; जो संसार से ऊपर होकर अपने आप में शांत हैं; जो ब्रह्मनिष्ठ और लोकों को पवित्र करने वाले परोपकारी सज्जन हैं… वे आपके द्वारा ग्रहण किए गये पाप को अपने अंग स्पर्श व श्रमनिष्ठा से नष्ट कर देंगे।”

कुंभ के वाहक
इस संदर्भ के आलोक में कहा जा सकता है कि राजा भगीरथ के इसी वचन को निभाने के लिए कुंभ की परिपाटी बनी। राजा भगीरथ स्वयं कुंभ के प्रथम वाहक बने। प्रजा.. राजा के पुत्र समान ही होती है। राजा सगर के पुत्रों के रूप में 60 हजार की आबादी के कल्याण के लिए वे गंगा से सीधे अवध प्रांत में अवतरित होने का भी अनुरोध कर सकते थे, लेकिन नहीं, उन्होंने गंगा को गंगोत्री से गंगासागर तक ले जाकर लगभग आधे भारत को समृद्धि का स्रोत दिया।

वर्तमान मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र और कर्नाटक के वर्तमान नामकरण वाले इलाकों में जब कभी पानी का संकट हुआ, तो गौतम नामक एक ब्राह्मण प्रतीक बन सामने आया और गोदावरी जैसी महाधारा बन निकली। ब्रह्मपुराण में इस प्रसंग का जिक्र करते हुए गोदावरी को गंगा का ही दूसरा स्वरूप कहा गया है। विन्ध्यगीरि पर्वतमाला के उत्तर बहने वाली गंगा.. भागीरथी कहलाई और दक्षिण की ओर बहने वाली गंगा… गोदावरी के नाम से विख्यात हुई। इसे ’गौतमी गंगा’ भी कहा जाता है। स्कंदपुराण में वर्तमान आंध्र प्रदेश कभी नदीविहीन रहे क्षेत्र के रूप में उल्लिखित है। दक्षिण के इस संकट ग्रस्त में एक ऋषि का पौरुष प्रतीक बना। ऋषि अगस्त्य के प्रयास से ही आकाशगंगा दक्षिण की धरा पर अवतरित होकर सुवर्णमुखी नदी के नाम से जीवनदायिनी सिद्ध हुई। भगीरथ-एक राजा, गौतम-एक ब्राह्मण और अगस्त्य-एक ऋषि… तीनों गंगा के एक-एक रूप के अविरल प्रवाह के उत्तरदायी बने ये तीनों ही रचना के प्रतीक! कुंभ के वाहक!

क्या से क्या हो गया कुंभ ?

 

पौराणिक संदर्भ प्रमाण हैं कि कभी नदियों की समृद्धि के काम में राजा-प्रजा-ऋषि… तीनों ही साझीदार हुआ करते थे। तीनों मिलकर नदी समृद्धि हेतु चिंतन करते थे। यही परिपाटी लंबे समय तक कुंभ की परिपाटी बनी रही। कुंभ सिर्फ स्नान का पर्व कभी नहीं रहा। अनुभव बताता है कि जब समृद्धि आती है, तो वह सदुपयोग का अनुशासन तोड़कर उपभोग का लालच भी लाती है और वैमनस्य भी। ऐसे में दूरदृष्टि और कुछ सावधान मन ही रास्ता दिखाते हैं। ऐसे में जीवनशक्तियों को जागृत होना पड़ता है। एकजुट होकर विमर्श करना पड़ता है। तब कहीं समाधान निकलता है। गलत काम रुक जाते हैं और अच्छे कामों का प्रवाह बह निकलता है। कुभ का यही कार्य है। यही मंतव्य!
प्रकृति का चिंतन पर्व थे कुंभ
भारतवर्ष में नदियों के उदगम् से लेकर संगम तक दिखाई देने वाले मठ, मंदिर अनायास यूं ही नहीं हैं। ऋषि-प्रकृति का प्रतिनिधि होता है। समाज ने ऋषियों को ही नदियों की पहरेदारी सौंपी थी। यह ऋषियों का ही जिम्मा था कि वे नदी किनारे आने वाले समाज को सिखाये कि नदी के साथ कैसे व्यवहार करना है। ऋषियों ने यह किया भी, तभी हमारी नदियां इतने लंबे समय तक समृद्ध बनी रहीं। लेकिन जब कभी विवाद हुआ या नदी के सम्मान में किसी ने चोट पहुंचाई, तो ऋषि ने निर्णय अकेले नहीं दिया। ऋषियों ने कहा कि नदी अकेले न समाज की है, न ऋषि की और न राजा की; नदी तो सभी की साझा है। राज-समाज-ऋषि से लेकर प्रकृति के प्रत्येक जीव व वनस्पति का इस पर साझा अधिकार है। अतः इसकी समृद्धि और पवित्रता के हक में सभी को बैठकर साझा निर्णय लेना होगा। बस! यह एक दस्तूर बन गया। राज-प्रजा-ऋषि… सभी एक निश्चित अंतराल पर नदियों के किनारे जुटने लगे। आज भी किसी न किसी बहाने भारत का समाज अपनी-अपनी नदियों के किनारे जुटता ही है; गंगापूजा, कांवङियों का श्रावणी मेला, कार्तिक पूर्णिमा, छठपूजा, मकर संक्रान्ति, पोंगल, बसंत पंचमी…। यदि कोई छेड़छाड़ न की जाये, तो भी सामान्यतः 150 सालों में नदी प्रवाह की दिशा और दशा में बदलाव आता है। छेड़छाड़ हो तो यह पहले भी हो सकता है; जैसा कि तटबंधों में फंसी उत्तर बिहार की नदी-कोसी के साथ आये साल हो रहा है। संभवतः इसीलिए 144 वर्षों में महाकुंभ का निर्णायक आयोजन तय किया गया। महाकुंभ के निर्णयों की अनुपालना और निगरानी के लिए हर छह बरस पर अर्धकुंभ और 12 वर्ष पर कुंभ के आयोजन की परंपरा बनी।
अनुसंधान प्रसार का माध्यम थे कुंभ
कहा तो यह भी जाता है कि कालांतर में कुंभ… ऋषियों द्वारा किए गये अनुसंधानों को समाज के बीच पहुंचाने का भी एक बड़ा माध्यम बन गये थे। हमारे यहां प्रत्येक परिवार द्वारा किसी

न किसी से गुरू परिवार से दीक्षा लेने की परंपरा हमेशा से रही है। प्रत्येक गुरू का शिष्य समाज उनसे मिलने कुंभ में आता था। इसे आज हम ‘कल्पवास’ के नाम से जानते हैं। जैसा राजा भगीरथ ने मां गंगा का वचन दिया था, परिवार की जिम्मेदारियों से मुक्त ऐसे सज्जन कल्पवास में जुटते थे। राजा हो या प्रजा.. सभी गुरू आदेश की पालना ईश्वरीय आदेश की तरह करते थे। इसीलिए कुंभ में ऋषि अपने अनुसंधानों को गुरूओं के समक्ष प्रस्तुत करते थे। कल्पवासी गुरू आदेश के अनुसार ऋषि अनुसंधानों को अपने परिवार व समाज में व्यवहार में उतारते थे।
धीरे-धीरे समाज के कलाकार, कारीगर, वैद्य आदि हुनरमंद लोग भी अपने हुनर के प्रदर्शन के लिए कुंभ में आने लगे। यहां तक तो सब ठीक रहा, लेकिन बाद में आया बदलाव कुंभ को उसके असल मंतव्य से ही भटका गया।
दिखावटी आयोजन में बदल गये कुंभ
पता नहीं कब और कैसे कुंभ चिंतन पर्व से बदलकर सिर्फ एक स्नानपर्व बनकर रह गया? बहुत कुरेदने पर एक संत ने बताया कि कैसे 50 के दशक तक साधुओं के अखाड़ों में रोटी रूखी, लेकिन निष्ठा व सम्मान बहुत ऊंचा था। इसी दौरान प्रवचन करे वाले धर्माचार्यों के एक ऐसे वर्ग का उदय हुआ, जिनके आभूषण सोने के थे, आसन चांदी के और रसोई.. छप्पन भोगों से परिपूर्ण। बावजूद इसके जब वे लंबे समय तक सम्मानित साधु समाज की अगली पंक्ति में शामिल नहीं हो सके, तो उन्होने अनैतिकता की ओर कदम बढ़ाया। रोटी सुधारने के नाम पर धीरे-धीरे उन्होंने अखाड़ों को अपने वैभव के आकर्षण में लिया। घी-चुपड़ी देकर अखाड़ों में अपने लिए सम्मान हासिल लिया। हासिल सम्मान के प्रचारित करने के लिए कुंभ में दिखावे का सहारा लिया। शाही स्नान के नाम पर कुंभ अब अखाड़ों, संप्रदायों, मतों के धर्माचार्यों के वैभव प्रदर्शन का माध्यम बन गये हैं।
लिखते दुख होता है कि जो संत समाज कभी कुंभ के दौरान समाज को निर्देशित कर एक नैतिक, अनुशासित और गौरवमयी विश्व के निर्माण का दायित्वपूर्ण कार्य करता था, उसी संत समाज के उत्तराधिकारियों ने कुंभ को महज् दिखावटी आयोजन बना दिया। आज कुंभ के दौरान लोग पवित्र नदियों में स्नान करने तथा स्नान के दौरान कचरा बहाकर नदी को और गंदा करने आते हैं, न कि नदी को समृद्ध बनाने। अब तो हमारा कुंभ, नवाचारों के प्रचार का भी माध्यम नहीं रहा। कुंभ का ऐसा मंतव्य कभी नहीं था।
पुनः चिंतन पर्व बने कुंभ
आइये! कुंभ को वापस उसके मूल मंतव्य की ओर ले चलें। इसे वैचारिक चिंतन, श्रमनिष्ठा और सद्संकल्प का महापर्व बनायें। प्रकृति, समाज और विकास.. तीनों को बचायें। कुंभ गंगा रक्षा सूत्र का पालना करें; नदियों के प्रति अपना दायित्व निभायें। सुखद है कि चिंतन-मंथन को विशेष महत्व देने की दृष्टि से सिहंस्थ कुंभ के आयोजकों ने एक पहल की है। इस सिंहस्थ कुंभ में वैचारिक मंथन हेतु विशेष आयोजन का समाचार अखबारों में पढ़ने को मिला। मंथन से निकला क्या ? हमने अपनाया क्या ? अगले कुंभ को इसका प्रतीक्षा रहेगी।

कुंभ के ऐसे वाहक आप भी हो सकते हैं। राजा भगीरथ का गंगा को दिया वचन निभाना आपका और हमारा भी दायित्व है। अपने गांव-शहर-कस्बे की किसी छोटे से प्रवाह, छोटे सी जलसंरचना को पुनर्जीवित कर… छोटी वनस्पति को जीवन देकर आप इस दायित्व निर्वाह का ही काम करेंगे। सकारात्मक शक्तियों को एकजुट करने और उन्हें प्रकृति, समाज अथवा राष्ट्रहित में प्रेरित करने का काम भी कुंभ का ही काम है। आज भारत को इस दायित्व निर्वाह की बड़ी आवश्यकता है। यूं भी इस दायित्व का निर्वाह किए बगैर कुंभ में स्नान का हक किसी को नहीं। क्या आपको है? सोचिए! तब निर्णय लीजिए।… तब शायद मेरा इस लेख को लिखना सफल हो जाये।

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