उदारीकरण ने आखिर दिया क्या ?

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-आलोक कुमार-    budget124May1243187605_storyimage

विकास के लिए देश में विदेशी पूंजी निवेश की चाह लिए दो दशक पहले जिस उदारीकरण का सपना देश की जनता को तत्कालीन नरसिंह राव की कांग्रेस सरकार ने दिखाया था उसने आम आदमी को आखिर दिया क्या ? आज जबकि उदारीकरण को 23 साल से ऊपर हो चुके हैं तो सबसे बड़ा सवाल यही है. उदारीकरण को लेकर न जाने कितने ही तर्क और कुतर्क दिए जाते हैं लेकिन वास्तविकता क्या है ? यदि इस उदारीकरण को आम आदमी के नजरिए से देखा जाए जिसके लिए सारी योजनाएं बनती हैं और नीतियों का निर्धारण किया जाता है, भले ही उसकी हकीकत कुछ भी हो यह सिर्फ़ एक धोखे के अलावा कुछ भी नहीं लगता . सच तो यह है कि उदारीकरण ने सीधे-सीधे पूंजीपतियों को लाभ पहुंचाया आम आदमी की आर्थिक स्थिति तो पहले भी खराब थी और धीरे-धीरे बिगड़ती ही चली गयी. अमीर और गरीब के बीच जो खाई दरअसल आज इस देश में है उसकी जड़ में भी उदारीकरण ही है. मुनाफे पर आधारित विकास की परंपरा की नींव पर अगर विकास का मकान खड़ा किया जाए तो वह किसके हित में होगा यह सहज ही समझा जा सकता है.

23 साल पहले बजट पेश करते हुए तत्कालीन वित्तमंत्री मनमोहन सिंह ने जो बातें देश के सामने रखी थीं और उस समय देश के जो हालात थे, वैसे में उन परिस्थियों से निपटने का जो रास्ता तत्कालीन वित्तमंत्री ने उदारीकरण के रूप में सुझाया था. जिस कारण तत्कालीन वित्तमंत्री ने खूब वाहवाही भी लूटी थी लेकिन इसके दुष्परिणामों से आने वाले समय में क्या प्रभाव देखने को मिलेगा इसकी चिन्ता किसी को नहीं थी.

उससे पहले की कांग्रेस – संयुक्त मोर्चा और जनता दल सरकारों की गलत नीतियों के कारण हमें विश्व पटल पर अपनी गलत नीतियों के कारण शर्मसार होना पड़ा था.बैंक ऑफ इंग्लैंड से लोन लेने के लिए 47 टन सोना गिरवी रखना पड़ा था. इसके बाद महंगाई का सवाल तब भी था और आज भी वही सवाल जस का तस खड़ा है. तो फिर आर्थिक उदारीकरण के उस लॉलीपॉप का फायदा आखिर सरकार ने और उनकी नीतियों ने किसे दिया ? 24 जुलाई 1991 के दिन को हमारे देश के बड़े पूंजीपति घरानों ने ऐतिहासिक दिन बताया था क्योंकि इसी दिन देश में उदारीकरण और निजीकरण के नाम से पूंजी के वैश्विकरण ने देश के दरवाजे से अपने आप को बिना रोक-टोक अंदर दाखिल होने का प्रमाण पत्र प्राप्त कर लिया था.ऐसे में स्वाभाविक है कि पूंजीपति उदारीकरण और निजीकरण के कार्यक्रम को अत्याधिक सफल मानते हैं क्योंकि इसके जरिए उन्हें बहुत मुनाफा हुआ है. लेकिन हिन्दुस्तान अभी भी एक ऐसा देश है जहां गरीबों की संख्या सबसे ज्यादा है.अपने देश में विभिन्न बीमारियों से सबसे अधिक संख्या में लोग मरते हैं. देश के अधिकांश इलाकों में बहुत ज्यादा संख्या में नवजात बच्चों और माताओं की मौत होती है.करोड़ों लोगों को साफ पेयजल तक उपलब्ध नहीं है.एक बाल्टी पानी लाने के लिए लोगों को घंटों लाईन में खड़े होकर बिताना पड़ता है.

ऊपर से योजना आयोग के उपाध्यक्ष ने आज से लगभग डेढ़ साल पहले एक बहुत ही बेतुका दावा किया था कि एक काम करने वाला व्यक्ति 32 रु. प्रति दिन में गुजारा कर सकता है .यह दिखाता है कि पूंजीपति और उनके प्रवक्ताओं को मेहनतकश लोगों की असली परिस्थिति उनकी जरूरतों और उनकी अभिलाषाओं का कोई अंदाजा नहीं है .वे गरीबी रेखा को बहुत ही नीचे तक ले जाकर यह दिखाने की कोशिश में लगे हैं कि देश में गरीबी पर काबू पाया जा रहा है.यहां एक प्रश्न सहज ही ऊभर कर आता है कि क्या देश में गरीबी रेखा को इसलिए जानबूझ कर न्यूनतम स्तर पर तय किया जाता है ताकि गरीब उससे ऊपर उठते दिख सके और सरकार यह दावा कर सके कि नव-उदारवादी नीतियां गरीबी घटाने में सहायक हैं ?

आईए रोजगार के उन आंकड़ों पर एक नजर डाली जाए जो शायद आपके समक्ष उदारीकरण के फायदे की स्पष्ट तस्वीर प्रस्तुत कर देंगे . 1991 में कुल बेरोजगारी 9.02 मिलियन थी 2004-05 में 10.51 मिलियन जबकि अभी 16.00 मिलियन है. अगर हम बैंकिंग व्यापार प्रशासन और रक्षा से जुड़ी चीजों की कृत्रिम मूल्य वृद्धि को अलग कर दें तो अन्य क्षेत्रों में लोगों को उतना फायदा नहीं मिल पाया है या यूं कहें की विकास की दर इनमें इतनी नहीं है जितना हमारे शासक दावा करते हैं. मतलब साफ और स्पष्ट है कि उदारीकरण और निजीकरण का सीधा सा मतलब देश में श्रम का अत्यधिक शोषण और प्राकृतिक संसाधनों की लूट करना था और इसकी अनुमति देश के इज्जतदार पूंजीपतियों को देने का यह सीधा सा रास्ता था. यानि यह एक मज़दूर-विरोधी किसान-विरोधी और समाज-विरोधी एक शब्द में कहें तो आम-जन विरोधी साम्राज्यवादी एवं पूंजीवादी कार्यक्रम की शुरुआत थी.

ऐसे में इस कार्यक्रम की शुरुआत तो हो गई लेकिन इसके लगभग तेईस साल साल पूरे होने के बाद भी चंद सवाल हैं जिनके जबाव अभी तक नहीं मिल पाए जैसे- आखिर उदारीकरण ने किया क्या है ? क्या उदारीकरण ने अमीरी और गरीबी के बीच की खाई को निरन्तर बढ़ाने का काम नहीं किया है ? क्या उदारीकरण ने बेरोजगारी –भूखमरी- बेकारी आदि न जाने कितनी ही भयंकर समस्याएं इस दुनिया को नहीं दी हैं ? क्या उदारीकरण ने अमीरों को और भी अमीर और गरीबों को और भी गरीब नहीं बनाकर रख दिया है ? क्या उदारीकरण ने श्रमिकों -कामगारों -दस्तकारों आदि के हाथ जड़ से नहीं उखाड़ लिये हैं ? यदि इस तरह के प्रश्नों के जबाव और उनके रूप दोनों पर व्यापक विचार-विमर्श किया जाए तो स्पष्ट हो जाएगा कि उदारीकरण विनाश का कारण ही बना रहा है.

आइये अब ये जान लें कि आखिर ये उदारीकरण किस पेड़ में फलने वाली बला है तो जवाब यह है कि वैश्वीकरण के कोख से पैदा होनेवाली चिड़िया है. इतना ही नहीं, वैश्वीकरण उस विश्वव्यापी प्रवृत्ति का नाम है जिसने पिछले कुछ वर्षों से पूरी दुनिया के जन-जीवन को प्रभावित किया है और एक खास दिशा में उसको विस्थापित किया है। भूमंडलीकरण, जगतीकरण, उदारीकरण, आर्थिक सुधार, नई आर्थिक नीति आदि इसके ही कई नाम हैं. वैश्वीकरण का मूल मंत्र है मुक्त बाजार. यदि बाजार की शक्तियों को खुलकर काम करने दिया जाए उसमें सरकार का दखल और नियंत्रण न हो तो अर्थव्यवस्था का विकास होगा और अंत तक सबको उस विकास का लाभ मिलेगा .यह इस व्यवस्था का बीजमंत्र है। ऐसे में इस मुक्त बाजार व्यवस्था के जो सबसे बड़े शिकार बने हैं वो हैं देश के गरीब और कमजोर किसान. नौबत तो यहां तक आ गई है कि किसान आत्महत्या करने पर मजबूर हो गए हैं. किसानों की आत्महत्याओं के पीछे दरअसल खेती का अभूतपूर्व संकट है .वैसे तो किसान और गांव हमेशा से शोषण और उपेक्षा के शिकार रहे हैं .किंतु देश की आजादी के बाद पहली बार शायद ऐसा मौका आया है कि हजारों की संख्या में किसान खुदकुशी कर रहे हैं .आत्महत्या एक व्यक्ति के जीवन का वह कदम है जो वह तब उठाता है जब उसे जीवन में उम्मीद की कोई किरण दिखाई नहीं देती .यदि हजारों किसान आत्महत्या कर रहे हैं इसका मतलब है कि लाखों-करोड़ों किसान इस संकट में गले तक फंसे होंगे, ऐसे में आखिर क्या फायदा मिला है। देश को इस उदारीकरण से जब परिस्थितियां पहले से भी ज्यादा विषम होती जा रही हैं.

खुले बाजार का प्रबल समर्थक अमेरिका आज स्वयं संरक्षणवाद अपना रहा है. अमेरिका के कई राज्यों ने सरकारी कामकाज के ठेकों में ‘आउट-सोर्सिंग’ पर प्रतिबंध लगा दिया है. राष्ट्रपति ओबामा ने भी ‘आउट-सोर्सिंग’ के माध्यम से रोजगारों के निर्यात पर चिंता जताई है. यानि अब बेरोजगारों की एक और पलटन अपनी रोजगार छिनने के बाद जल्द ही देश की जमीं पर लौटने वाली है. वैश्वीकरण के इस दौर में बाजारवाद ने हर देश में ठोक कर क़दम रखा है और जिन देशों में भ्रष्टाचार ज्यादा है वहां इस बाजारवाद ने खूब मज़े किए हैं. इस में भारत का नाम सब से ऊपर आता है. बाजारवाद और बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने भारत को एक ‘कूड़ेदान’ की तरह इस्तेमाल किया है. इसका मुख्य कारण है भ्रष्टाचार किसी भी क्षेत्र में देख लीजिए चाहे बोफोर्स तोप सौदा हो या पुराने युद्धक विमान का सौदा या फिर कॉमनवेल्थ के लिए किया गया सौदा हो या या 2-G स्पेक्ट्रम का मामला हो या कोयला घोटाला हो या फिर इस तरह का कोई और सौदा. सामने से बाजार खुलता है सामान सामने के रास्ते से देश में और भ्रष्टाचार पीछे के रास्ते से व्यापार में घर कर जाता है. ऐसे में इस सुनहरे भारत के भविष्य का सपना कितना सुनहरा और चमकीला होगा, आप इसका अंदाजा अपने आप ही लगा सकते हैं.

जिस बाजारवाद ने हमें पश्चिमी सभ्यता सीखने को मजबूर कर दिया उसी बाजारवाद को पैदा करने वाले देश अब भारतीय संस्कृति का प्रचार -प्रसार अपने देश में चाहते हैं और हम बाजारवाद की दौड़ में अंधे उन से अलग न जाने किन ख्यालों में खोए हैं कि हमें तो इस बाजारवाद और उस संस्कृति के बिना देश की सुनहरी तस्वीर और देश की तकदीर दोनों ही धुंधली दिखती है. देश या देश के लोग आज भी उस व्यवस्था के विरोधी नहीं है बल्कि विरोधी हैं तो उस व्यवस्था की खामियों के जिस वजह से देश की हालत आज ऐसी हो गई है. शहरों और महानगरों में सड़कों और बड़ी-बड़ी इमारतों की लंबी कतार खड़ी कर देना सड़कों पर तेज भागती गाड़ियों की श्रृंखला देख खुश होना भारत जैसे कृषि प्रधान देश के लिए विकास का सूचक नहीं है, न ही देश की अर्थव्यवस्था में और देश के नागरिकों के जीवन स्तर में इससे कुछ बदलाव आना है. ऐसे में हमें एक मजबूत और तटस्थ अर्थ-व्यवस्था की स्थापना की जरूरत है और साथ ही आधुनिक समाज में भी पुरानी विचारधाराओं, पुराने आजमाए हुए फार्मूलों और चीजों की समान सहभागिता हो इस पर जोर देने की जरूरत है. तभी उदारीकरण के साथ देखा गया सुनहरे भारत निर्माण का यह सपना पूरा हो सकेगा.

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