पंखुरी सिन्हा
बिना उसका नाम लिए
बिना कहे वह शब्द
क्योंकि इतना बड़ा है जीवन
किसी भी भाषा की अभिव्यक्ति से
जगमगा जाता है अक्सर
किसी रंग की आहट
टिमटिमाहट में
जबकि रंग उजास में हैं
और उसके बाहर के अँधेरे में भी जीवन
लेकिन, एक रंग तो होता ही है ज़िन्दगी का
मौत का कोई रंग नहीं होता
वो जो फैला था हर कहीं
स्याह, गंदला, गन्दुमा
आंसुओं के स्वाद का रंग
पिता के अचानक चले जाने
के अवसाद का रंग
अब धीरे धीरे बदल रहा था
उनकी अनुपस्थिति के रंग में
पहले तो उसका एक चुप सा रंगहीन स्वीकार
चला आता है, दस्तक देता
कि लो स्वीकार ही लिया
आखिर तुमने
न स्वीकारेगी तो करोगी क्या?
इस मारा मारी के बीच
कि वो ठीक ठीक क्या हुआ था
आखिर हुआ क्या?
कितने दिन अस्पताल?
क्या कोई अस्पताल नहीं?
आखिर हुआ क्या था
बता तो दें ?