अंको के खेल मे छीन रही है भविष्य के कर्णधारों की जिंदगियां

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भगवत कौशिक

अप्रैल,मई और जून के महीने शिक्षा और शिक्षार्थियों के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण होते है ।इन महिनो मे दसवीं, बाहरवीं व लगभग सभी प्रतियोगिता परीक्षाओं का परिणाम जारी हो जाता है ।लेकिन कोरोना महामारी के चलते अबकी बार परीक्षा परिणाम जारी करने मे विलंब हुआ व विद्यार्थियों को परीक्षा परिणाम के लिए जुलाई तक का इंतजार करना पड।हमारे देश के केंद्रीय व लगभग सभी राज्यों के शिक्षा बोर्डों के दसवी व बाहरवीं के परीक्षा परिणाम जारी हो चुके है।एक दो राज्यों के पेंडिंग है वो भी 2-3 दिन मे जारी हो जाएंगे।ऐसे मे छात्रों के लिए यह समय एक परीक्षा के समान हैं।छात्रों मे अधिकतम अंक पाने की व्याकुलता स्पष्ट देखी जा सकती है। 90 फीसदी से ऊपर अंक लाने वाले छात्र और परिजन स्वाभाविक रूप से गदगद देखे जाते हैं, उससे कम अंक वालों में निराशा और चलो कोई बात नहीं का भाव रहता है, 50-60 फीसदी अंकों को गनीमत समझा जाता है कि साल बचा लेकिन अंकीय आधार पर ‘फेल’ रह जाने वालों के तो मानो सपने ही बिखर जाते हैं। ऐसे छात्र और उनके परिजन सदमे और निराशा में घिर जाते हैं।  फेल होने वाले छात्रों व होशियार छात्रों के कम अंक आने पर परिवार, समाज और विद्यालयों मे ऐसे छात्रों को हीनभावना की द्रृष्टि से देखा जाता है व उनका उपहास उडाया जाता है,जिससे छात्र हीनभावना से भर जाता है व अपने आप को बेकार मानने लगता है।ऐसे नाजुक अवसरों का अवसाद आत्महत्या की ओर धकेल देता है।  छात्रों व उनके अभिभावकों दवारा सफलता का उल्लास मनाना स्वाभाविक है और अपने निजी दायरे में सफलता के जश्न में भी कोई हर्ज नहीं लेकिन मुश्किल तब आती है जब इस जश्न को प्रचार का रूप दे दिया जाता है।कोचिंग सेंटर और स्कूल 80% से ज्यादा अंक प्राप्त करने वाले छात्रों की फोटो छपवाकर अपनी सफलता की पब्लिसिटी करते है और एक तरह से ये बताने की कोशिश की जाती है कि उनके कोचिंग या  स्कूल की बदौलत ही सफलता मिली। डॉक्टरी और इंजीनियरिंग की प्रवेश परीक्षाओं के नतीजे आने पर तो अखबार विज्ञापनों से भर दिए जाते हैं। 

   श्रेष्ठता और सफलता का ऐसा माहौल हैरान भी करनेवाला होता है और सोचने पर विवश भी करता कि अंकों के इस खेल मे ऐसे छात्र की मनोस्थिति क्या होगी जो किसी कारणवश परीक्षा मे अच्छे अंक नहीं पा सके या फेल हो गए । इस तरह हमारी स्कूली शिक्षा पद्धति चाहे अनचाहे सफल और विफल का विभाजन कर देती है।यह बंटवारा आगे बना रहता है।उच्च शिक्षा से लेकर प्रतियोगी परीक्षाओं और फिर नौकरियों और पदोन्नतियों और अन्य सफलताओं तक। शिक्षा के निजीकरण ने इस विभाजन को  तीखा और घातक बना दिया है।जिसके परिणाम स्वरूप आज देश मे हजारों छात्र हर साल परीक्षा मे कम अंक आने या फेल होने पर आत्महत्या जैसा कठोर कदम उठाकर अपनी जिंदगी खत्म कर लेते है।ऐसे मे उनके मां बाप और परिवार पर क्या बीतती होगी यह एक सोचनीय विषय है।   

   श्रेष्ठ प्रदर्शन करने वाले छात्रों की उपलब्धि सराहनीय और अनुकरणीय है ,लेकिन हमे इस बात पर भी गौर करना होगा कि  वे इन अंकों के बोझ से न दबें  और अपना भविष्य अंकों के खेल मे बर्बाद ना होने दे।और ऐसा तभी कर होगा जब शिक्षा पद्धति में कुछ ऐसे बदलाव हों जिनका संबंध रैंकिंग और मेरिट से ज्यादा समान और अधिकतम अवसरों के निर्माण पर हो और योग्यताओं के पैमाने इस लिहाज से निर्धारित किए जाएं जहां सिर्फ अंकों का ही बोलबाला न हो। स्कूली शिक्षा को करीकुलम, बस्ते और अंकों के भारी बोझ से मुक्त करना हर हाल में जरूरी है।शिक्षण-प्रशिक्षण कार्यक्रम भी अधिक छात्रोन्मुख बनाए जाने चाहिए।
भगवत कौशिक

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