मिर्जा ग़ालिब का जीवन व आगरा की हवेली


डा. राधेश्याम द्विवेदी
जन्म व परिवार :- मिर्जा ग़ालिब का जन्म 27 दिसंबर सन् 1796 को आगरा के काला महल में हुई थी । गालिब ने अपनी जिंदगी का लंबा वक्त आगरा शहर के बाजार सीताराम की गली कासिम जान में बनी हवेली में गुजारा है। इस हवेली को संग्रहालय का रुप दे दिया गया है, जहां पर गालिब का कलाम भी देखने को मिलता है। प्यार से उन्हें लोग मिर्जा नौशा के नाम से भी पुकारते थे। वह एक सैनिक पृष्ठभूमि वाले ऐबक परिवार से ताल्लूक रखते थे। जो सेल्जुक राजाओ के पतन के बाद समरकंद , अफ़ग़ानिस्तान आ गये थे । मिर्जा ग़ालिब के दादाजी मिर्जा कुकन बैग खान सेल्जुक वश के थे जो अहमद शाह के पतन के बाद समरकंद से भारत आ गये थे । मिर्जा अब्दुला बैग खान (मिर्जा ग़ालिब के पिताजी) ने एक कश्मीरी लडकी इज्जत-उत-निसा बेगम से निकाह किया और वह अपने ससुराल में रहने लग गये । उन्होंने पहले लखनऊ के नवाब और बाद में हैदराबाद के निजाम के यहा काम किया । उनका जीवनकल 27 दिसम्बर 1797 से 15 फ़रवरी 1869 तक रहा। ये वह वक़्त था जब मुगलों का शासनकाल अपने पतन पर था और ब्रिटिशों ने हिंदुस्तान में अपनी पैठ बनानी शुरू कर दी थी। उनकी 1803 में जब वे 5 वर्ष के थे तो उनके पिता अलवर के युद्ध में मारे गए थे। मिर्जा ग़ालिब के चाचा मिर्जा नसरुल्ला बैग खान ने उनका पालन पोषण किया। उन्होंने दिल्ली ,जयपुर और आगरा काम किया और अंत में आगरा में ही बस गये। उनके चार बेटे और तीन बेटिया थी। मिर्जा अब्दुला बैग खान और मिर्जा नसरुल्ला बैग खान उनके दो बेटो के नाम थे और बाकि के बारे में ज्यादा इतिहास में जानकारी नही है।
जोधपुर की सूर्यनगरी से गहरा रिश्ता:- गालिब के हवाले से नाजिम और निजाम नाम की दो शख्सियतों का सूर्यनगरी से गहरा जुड़ाव है। जोधपुर को सूर्यनगरी या नीला नगर के नाम से भी जानी जाती है। मिर्जा गालिब पहले शागिर्द थे – मर्दान अली खां, जो राना, मुज्तर। ये दोनों नाजिम और निजाम उपनाम से शायरी करते थे।पाकिस्तान से प्रकाशित जोधपुर के शरफुद्दीन यक्ता की किताब बहारे-सुखन और राजस्थान उर्दू अकादमी से छपने वाली शीन काफ निजाम की किताब “मआसिर शौअरा-ए- जोधपुर” में मर्दान अली खां के बारे में जिक्र मिलता है। चूंकि गालिब का जन्म जोधपुर के राजा की हवेली में हुआ है, इस नाते भी जोधपुर से उनका बहुत गहरा रिश्ता है। गालिब के शेरों में जान डालने के लिए शीन काफ निजाम की बहुत बड़ी भूमिका है।
11 वर्ष के उम्र में शायरिया :- उन्होंने 11 वर्ष के उम्र में शायरिया लिखना शुरू किया।मिर्जा ग़ालिब सबसे पहले उर्दू में शायरिया लिखते थे हालंकि उनको पारसी और तुर्की भाषा भी आती थी। उनको स्कूल में बचपन में ही पारसी और अरबी भाषा सिखाई गयी । ग़ालिब के बचपन में एक इरानी पर्यटक ने उनको दो साल तक उनके घर रहकर पारसी और अरबी भाषा सिखाई। मिर्जा ग़ालिब की अधिकतर पुरानी गजलो में प्यार करने वालो का लिंग और पहचान का पता नही लग सकता है। उनकी प्यार पर लिखी गयी शायरिया पुरे विश्ब में मशहूर है। उन्होंने अपने जीवन काल में बहुत सी ग़ज़लें ऑर नज़में लिखी जिन्हें बहुत से अलग -अलग लोगो ने अलग-अलग अंदाज में प्रस्तुत किया। मुग़ल दरबार में वे अपनी शायरी के लिए मशहूर थे। ग़ालिब को न केवल भारत और पाकिस्तान में बल्कि दुनिया के बहुत से उर्दू पढ़े जाने वाले मुल्कों में उर्दू का सर्वोच्च शायर माना जाता है। उनकी शायरी ज्यादातर जिंदगी के रंजोग़म का आईना थीं , लेकिन उनमें प्रेम, अध्यात्म और दर्शन का भी मिला जुला रूप देखने को मिलता है। वे उर्दू, फ़ारसी और तुर्की भाषाओँ पर सामान अधिकार रखते थे लेकिन उनकी रचनाएं सिर्फ उर्दू में ही देखने को मिलती हैं। ग़ालिब को उर्दू का पहला दानीश्वर शायर कहा जाता है। दीवान-ए -ग़ालिब को आज भी उर्दू शायरी में एक खास स्थान प्राप्त है।
13 साल के उम्र में निकाह :- केवल 13 वर्ष की उम्र में उनका निकाह नवाब इलाही बक्श की बेटी उमराव बेगम से हो गया। जिनसे उनके सात संताने हुई लेकिन दुर्भाग्यवश एक भी जीवित नहीं बची। इसके बाद वह अपने छोटे भाई मिर्जा युसूफ खान के साथ दिल्ली में बस गये लेकिन उनके छोटे भाई की एक दिमागी बीमारी की वजह से  मौत हो गयी। उनके सात बच्चे पैदा होने से पहले ही मर गये थे। उन्होंने सोचा अब ये दुःख तो जीवन के साथ ही खत्म होगा। उन्होंने एक कविता में भी इसका जिक्र किया “क़ैद-ए-हयात-ओ-बंद-ए-ग़म,” अस्ल में दोनों एक हैं,मौत से पहले आदमी ग़म से निजात पाए क्यूँ?
उपाधिया:-1850 में बहादुर शाह जफर द्वितीय के दरबार में उनको “दबीर-उल-मुल्क” की उपाधि दी गयी । इसके अलावा उनको “मिर्जा नोशा” ख़िताब से भी नवाजा गया। 1854 में खुद बहादुर शाह जफर ने उनको अपना कविता शिक्षक चुना। मुगलों के पतन के दौरान उन्होंने मुगलों के साथ काफी वक़्त बिताया । मुगल साम्राज्य के पतन के बाद ब्रिटिश सरकार ने उनपर ज्यादा ध्यान नहीं दिया और उनको कभी पुरी पेंशन भी नहीं पायी। ग़ालिब की मुगल दरबार में बहुत इज्जत थी और वो उन पर व्यग्य करने वालो पर शायरी लिख दिया करते थे । उनकी 15 फरवरी 1869 को दिल्ली में मौत हो गयी । मिर्जा ग़ालिब पुरानी दिल्ली के जिस मकान में रहते थे उसको ग़ालिब की हवेली कहा जाने लगा और बाद में उसे एक स्मारक में तब्दील कर दिया गया । मिर्जा ग़ालिब की कब्र दिल्ली के निजामुद्दीन इलाके में निजामुद्दीन ओलिया के नजदीक बनाई गयी । और उनकी मजार पर लिखा हुआ है –
“मजे जहा के अपने नज़र में खा़क नहीं। सिवा ए खून ए जिगर सो जिगर में खाक नहीं।“
शायरिया :- गालिब एक ऐसे शायर थे जिनके शयरों की लाइने आज भी लोगों की जुबा पर होती हैं। उनके शायरों की कुछ लाइने तो ऐसी हैं जिससे हर पीढ़ी के लोगों को आज भी याद है, फिर चाहे वह युवा हो या बुजुर्ग। हर किसी की जुबा पर आज भी गालिब ही गालिब है। उनकी कुछ लाइने तो बहुत ही मशहूर हैं-
‘हैं और भी दुनिया में सुखन्वर बहुत अच्छे, कहते हैं कि गालिब का है अन्दाज-ए-बयां और’
इस लाइन से साफ जाहिर होता है कि सच में गालिब का अंदाज सबसे जुदा है। गालिब ने महज 11 साल की उम्र से ही उर्दू और फारसी में शेरों शायरी लिखना शुरू कर दिया था। गालिब उर्दू और फारसी भाषा के महान शायर थे। 13 साल की उम्र में उनका निकाह नवाब ईलाही बख्श की बेटी उमराव बेगम से हुआ था। गालिब और असद नाम से लिखने वाले मिर्जा मुगल काल के आखिरी शासक बहादुर शाह जफर के दरबारी कवि भी रहे हैं। आगरा, दिल्ली और कलकत्ता में अपनी जिन्दगी गुजारने वाले गालिब को ज्यादातर उनकी उर्दू गजलों के लिए याद किया जाता है। उन्होंने अपने बारे में खुद ही लिखा था कि दुनिया में बहुत से कवि-शायर जरूर हैं, लेकिन उनका लहजा सबसे निराला है। उनके शेरों की कुछ लाइने ऐसी हैं जो आज भी लोगों कि जुबा पर हैं इतना ही नहीं गालिब शेरों को फिल्मी दुनिया में भी इस्तोमाल किया जाता है उनकी लाइनों को फिल्मों के डालॉग बनाकर फिल्मों में बोला जाता है।
ग़ालिब की आगरा शहर की हवेली:- आगरा की जिस हवेली में गालिब का जन्म हुआ था, वह जोधपुर के राजा सूरजसिंह के पुत्र गजसिंह की थी। गालिब पर प्रामाणिक विद्वान मालिकराम ने इसे साबित किया है।आगरा के काला महल गली में स्थित ग़ालिब की हवेली है।हमारी नज़रों में उनसे बढ़ कर कोई लिखने वाला नहीं । कॉलेज के ज़माने में कैसेटों और किताबों में ,और अब पूरा गूगल छान मारा है कि मरने से पहले ग़ालिब कि कोई भी नज़्म बिना पढ़े न रह जाये। इनका मूल निवास आगरा ही था , बेलनगंज के पीछे एक पुराना मोहल्ला है- काला महल ,वहीँ पर एक मकान हुआ करता था जो अब एक कन्या विद्यालय में बदल दिया गया है। तो मियां मिर्ज़ा ग़ालिब यानि नज़्म-उद -दुल्लाह मिर्ज़ा असदुल्लाह बैग़ खां का जन्म इसी हवेली में हुआ था।

1 COMMENT

  1. मान्यवर – आप के सभी लेख बहुत ही अच्छे, शोधपरक और पठनीय होते हैं –मैंने यहाँ मिर्ज़ा ग़ालिब के लेख के बारे में केवल एक बात कहना चाहता हूँ. आपने पहले पैरे में बाज़ार सीताराम और गली कासिम जान को आगरा में कह दिया. ये वास्तव में दिल्ली के चांदनी चौक में हैं और इन का ठीक नाम ‘कूचा सीताराम’ और ‘गली बल्लीमारान’ है. गली बल्लीमारान में ही उनका घर था जो अब संग्रहालय बना दिया गया है. काफी अरसे तक यहाँ लकड़ी की टाल थी जिसे सरकार ने मुआवज़ा देकर अधिग्रहण किया था. ग़ालिब का बचपन ज़रूर आगरा में गुज़रा था उस के बाद वे ताउम्र दिल्ली और दिल्ली के इसी घर में रहे. दिल्ली के साथ इन के बहुत जुड़े हैं. इन की फाकामस्ती की आदत और ग़ुरबत को देखते हुए अजमेरी गेट पर स्थित दिल्ली कालिज (अब इस का नाम जाकिर हुसैन कालिज है) के प्रिंसिपल ने इन्हें अपने कालिज में उस समय की मोटी तनख्वाह 10/- रुपये महीने पर रखा था. लेकिन ये ‘मुफ्त की पीते थे मय’ – ‘रंग लाएगी यह फाकामस्ती एक दिन’ में ज्यादा विश्वास करते थे. ऐसे इन से जुड़े बहुत से किस्से मशहूर हैं…

    या रब न वे समझे हैं, न समझेंगे मेरी बात,
    दे उनको दिल और जो न दे मुझे जुबां और.

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