गोपाल बघेल ‘मधु’
प्रकाश धरा आ नज़र आता,
अंधेरा छाया आसमान होता;
रात्रि में चमकता शहर होता,
धीर आकाश कुछ है कब कहता !
गहरा गहमा प्रचुर गगन होता,
गुणों से परे गमन वह करता;
निर्गुणी लगता पर द्रढी होता,
कड़ी हर जोड़ता वही चलता !
दूरियाँ शून्य में हैं घट जातीं,
विपद बाधाएँ व्यथा ना देतीं;
घटाएँ राह से हैं छट जातीं,
रहनुमा कितने वहाँ मिलवातीं !
भूमि गोदी में जब लिये चलती,
तब भी टकराव कहाँ करवाती;
ठहर ना पाती चले नित चलती,
फिर भी आभास कहाँ करवाती !
संभाले सृष्टा सब ही करवाते,
समझ फिर भी हैं हम कहाँ पाते;
हज़म ‘मधु’ अहं को हैं जब करते,
द्वार कितने हैं चक्र खुलवाते !