योगी राज में दारू पर ‘दंगल’

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संजय सक्सेना

उत्तर प्रदेश में योगी राज आते ही शराब बंदी के खिलाफ ऐसा माहौल बन गया है मानो शराब ही सभी समस्याओं की जननी हो, इसके बंद होते ही पूरे प्रदेश में तमाम तरह के अपराधों पर लगाम लग जायेगी, बाप-बेटा, पतियों को शराब नहीं मिलेगी तो पूरे समाज में अमन चैन का राज हो जायेगा। शराब बंदी को लेकर पूरे प्रदेश में चल रहे आंदोलन ने हिंसक रूख अख्तियार कर लिया है। शराब बंदी की मांग को लेकर आंदोलन में बढ़ी संख्या में महिलाओं की भागेदारी ने योगी सरकार के हाथ पैर फुला रखे हैं। राजधानी लखनऊ से लेकर दूरदराज के इलाको तक में शराब बंदी के खिलाफ गृहणियां मोर्चा संभाले हुए हैं। प्रदेश में प्रति वर्ष हजारो करोड़ का शराब कारोबार होता है। व्यापार कर के बाद आबकारी विभाग सबसे अधिक राजस्व शराब कारोबारियों से वसूलता है, लेकिन इस धंधे की दिक्कतों की ओर कभी किसी का ध्यान नहीं दिया गया। यह सच है कि शराब समाज के लिये अभिशाप है तो इस हकीकत से भी मुंह नहीं फेरा जा सकता है शराब बंदी से नुकसान भी कम नहीं है। शराब बंदी से प्रतिवर्ष हजारों करोड़ की राजस्व हानि तो होगी ही इसके अलावा अवैध शराब का धंधा भी जोर पकड़ने लगेगा, अवैध कारोबारी मिलावटी शराब बेचेंगे जिसको पीने से मौते भी होंगी। ऐसा बिहार और गुजरात सहित कई राज्यों में देखने में भी आ रहा है जहां शराब बंदी लागू है।
उत्तर प्रदे्रश में वर्तमान में देशी शराब की 14 हजार 21, अंग्रेजी शराब की पांच हजार 471 दुकाने और 4.518 बियर शाॅप, 415 बियर माडल शाप के अलावा 2.440 भांग के ठेके चल रहे हैं। बात बीते वित्तीय वर्ष 2016-2017 की कि जाये तो इस वित्तीय वर्ष में आबकारी विभाग ने शराब की इन दुकानों से 19 हजार करोड़ रूपये राजस्व वसूली का लक्ष्य रखा था, लेकिन अनुमान यही लगाया जा रहा है कि सरकार मुश्किल से 15 हजार करोड़ का ही लक्ष्य हासिल कर पाई है और उसे मोटै तौर पर लगभग चार हजार करोड़ रूपये का नुकसान होने का अनुमान है। अभी विभाग द्वारा फायनल आंकड़े नहीं तैयार किये गये है। इतना मोटा राजस्व देने के बाद भी शराब कारोबारी अपने धंधे को लेकर हमेशा आशंकित रहते हैं। उन पर कभी सरकार तो कभी कोर्ट का डंडा चलता रहता है,रही सही कसर शराब के खिलाफ मुहिम चलाने वाले संगठन और लोग पूरी कर देते हैं, जैसा की आजकल देखने को मिल रहा है। जगह-जगह शराब की दुकानों में तोड़फोड़ और आगजनी हो रही है। योगी राज में शराबबंदी को लेकर आंदोलन कुछ ज्यादा ही उग्र नजर आ रहा है। ऐसा लग रहा है धीरे-धीरे शराबबंदी जन-आंदोलन बनता जा रहा है। दरअसल, इस आंदोलन की जद में भी सुप्रीम और हाई कोर्ट के कुछ फैसले हैं,जिनकी तमाम सरकारों द्वारा अनदेखी करके अपनी मनमानी चलाई जाती रही थी। दुकान खोलते समय न यह ध्यान रखा गया कि दुकान मंदिर-मस्जिद या स्कूल के पांच सौ मीटर के दायरे में तो नहीं आते हैं, और न यह चिंता कि गई कि इसे घनी आबादी से दूर खोला जाये।
शराब की दुकानों को लेकर बवाल तब शूरू हुआ था,जब सुप्रीम कोर्ट ने सख्त आदेश दिया कि हाई-वे से 500 मीटर की दूरी तरक शराब की दुकानों को हटाया जाये। हाई-वे की 527 शराब की दुकानों पर जब बंदी का संकट आया तो इन दुकान मालिकों ने अपनी दुकानों को हाई-वे से पांच सौ मीटर से दूर आबादी वाले इलाको में शिफ्ट करना शुरू कर दिया। बस इसी के बाद जनता में आक्रोश पनपने लगा और जगह-जगह आंदोलन शुरू हो गया,जो फैलता ही गया।
बिगड़े हालात का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को जनता से अपील करनी पड़ी कि वह कानून को अपने हाथ में न लें। अब तो शराबबंदी की आग अन्य राज्य सरकारों को भी झुलसाने लगी है। उत्तर प्रदेश में शराब बंदी के खिलाफ जो आंदोलन शुरू हुआ था,वह प्रदेश की सीमाएं लांघकर अन्य प्रदेशों में भी फैल चुका है। वेसे, कहा यह भी जा रहा है कि शराबबंदी के लिये चलाये जा रहे आंदोलन को कुछ विरोधी दलो के नेताओं से भी शह मिल रही है,लेकिन इसमें कितनी सच्चाई है कोई नहीं जानता। अगर सच्चाई है भी तो इसकी भत्र्सना नहीं की जा सकती है। कहा तो यहां तक जा रहा है कि यह गौकशी के खिलाफ योगी सरकार पर काउंटर अटैक है।
बहरहाल, जितना सच यह है कि शराबबंदी आंदोलन योगी सरकार की कड़ी परीक्षा ले रहा हैै, उतनी की हकीकत यह भी है कि योगी सरकार को माया-अखिलेश सरकार की कारगुजारी का खामियाजा उठाना पड़ रहा है। अखिलेश तो अपनी पूर्ववर्ती मायावती सरकार से पे्ररणा लेते हुए 2017-2018 तक के लिये आबकारी नीति बना कर चले गये हैं।बात खामियों की कि जाये तो दरअसल, योगी की पूर्ववर्ती सरकारों ने शराब बिक्री का लाइसेंस जारी करते समय कभी तय मानकों का ध्यान नहीं रखा। नियम-कानून ताक पर रख दिये गयें ताकि उनकी जेबें भरी रहें। शराब के धंधे से जितनी जेब सरकार की भरती थीं,उससे अधिक फायदा मंत्रियों/नेताओं और सत्तारूढ़ दल को चंदे के रूप में मिलता था, इसी वजह से यूपी में शराब के थोक व्यापार पर चड्ढा गु्रप का आधिपत्य हो गया। आबकारी विभाग में किस अधिकारी की कहां पोस्टिंग होगी, इसका फैसला यही गु्रप करता था। यहां तक की किस अधिकारी को आबकारी आयुक्त बनाया जाये, इस फैसले पर भी इसी गु्रप के कर्ताधर्ताओं द्वारा ही अंतिम मोहर लगाई जाती थी।
2001 से पहले तक तो थोक से लेकर फुटकर तक की शराब दुकानों पर इसी गु्रप का एकाधिकार था,लेकिन 2001 में बीजेपी सरकार के तत्कालीन मुख्यमंत्री राजनाथ सिंह ने फुटकर दुकानों की नीलामी सिस्टम समाप्त करके लाॅटरी सिस्टम लागू कर दिया, जिससे फुटकर शराब व्यवसाय में चड्ढा गु्रप की हिस्सेदारी तो घटी, लेकिन लाटरी से दुकान हासिल करने वाले फुटकर शराब कारोबारियों को आज भी इस गु्रप की पंसद की शराब बेचने को मजबूर होना पड़ता है। यह गु्रप जिस ब्रांड की शराब चाहता है उसे सप्लाई करता है। बात पसंद तक ही सीमित नहीं है। आबकारी शुल्क बचाने के लिये यह गु्रप नंबर दो की शराब भी धड़ल्ले से बेच रहा है। सरकार की गलत नियति के कारण ही इस समय ‘जाम’ में उबाल देखने को मिल रहा है।

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