शिखा वार्ष्णेय
ये किसी कविता की पंक्तियाँ नहीं जीवन का यथार्थ है कुछ लोगों का। लन्दन का मिनी इंडिया कहा जाने वाला इलाका साउथ हॉल, वहां का एक डस्ट बिन रूम, वहीँ अपने अपने फटे हुए, खैरात में मिले स्लीपिंग बैग में सोये हुए जीते जागते इंसान, शरीर के ऊपर अठखेलियाँ करते बड़े बड़े चूहे और रात के अँधेरे में कूड़े पर हमला करती लोमड़ियाँ। आधी रात को उन्हें भगाने की जुगत.फिर भी वहीँ सोने की कोशिश करने को मजबूर। आखिर जाएँ तो जाये कहाँ? दिन तो मंदिर या गुरूद्वारे में निकल जाता है। दिनचर्या के बाकी काम भी मंदिर में हो जाते हैं। दो वक़्त का खाना भी लंगर में मिल जाता है, परन्तु नहाये हुए ६-६ हफ्ते हो गए हैं। रात को सर छुपाने के लिए कोई छत नहीं अपनी। तो कोई कूड़े के कमरे में शरण ले लेता है तो कोई टेलेफोन के कुप्पे में। सुबह होते ही देखभाल करने वाले आते हैं और भगा देते हैं वहां से, तो ये आकर गुरूद्वारे के बाहर खड़े हो जाते हैं कि शायद कोई छोटे मोटे काम के लिए बुला ले, यकीन नहीं होता कि यह २०१२ में जाने वाले लन्दन का चेहरा है।
आज से १५-२० साल पहले आये थे भारत के पंजाब प्रांत से, लगता था लन्दन की सड़कों पर सोने के पेड लगते हैं। कुछ जिन्दगी संवर जाएगी, परिवार को दिलासा दी थी, वहां जाकर खूब पैसा कमाएंगे और तुम्हें भेजेंगे। यहाँ तुम्हारा जीवन भी संवर जायेगा। २ साल पहले तक फिर भी कहीं छोटा मोटा काम करके एक कमरा लेकर जीवन की गाड़ी चल जाती थी, परन्तु रिसेशन के बाद से वह काम भी छूट गया। सरकारी खैरात पाने के लिए किसी के पास या तो मान्य वीजा नहीं, या किसी को पता नहीं कि कैसे लिया जाता है, अंग्रेजी काम चलाने के लिए बोल लेते हैं परन्तु पढना-लिखना इतना नहीं आता कि सरकारी मदद के लिए फॉर्म भी भर सकें। घर पर फ़ोन जाने कब से नहीं किया, क्योंकि जैसे ही बात करेंगे वहां से सुनाई देगा कुछ पैसे भेज दो बेटे की फीस भरनी है, या बहन की गोद भराई है. आँखें बंद करते हुए दहशत होती है। बीबी का, बिटिया का चेहरा अब ठीक से दिखाई भी नहीं देता। वापस भी नहीं जा सकते क्या करेंगे वापस जाकर वहां अब काम भी नहीं रहा और कुछ लोगों के पास तो असली दस्तावेज भी नहीं।
लन्दन के एक समाचार पत्र में छपी खबर के अनुसार इस दिसंबर की कड़कड़ाती ठण्ड ना झेल पाने के कारण सड़क पर रहने वालों में से तीन लोगों की मौत हो गई, ये तीनों मौतें हिन्दुस्तानियों की हुई, परन्तु इलाके के स्थानीय नेता इस समस्या पर आँखें बंद किये हुए हैं। उनका कहना है कि ये उनकी खुद की बनाई हुई परिस्थितियाँ हैं। ये लोग भारत से छात्र वीजा पर आते हैं, बिना आमने सामने वीसा के लिए साक्षात्कार दिए और यहाँ आकर छोटे मोटे कामों में लग जाते हैं और वीजा की अवधी ख़त्म होने बाद भी यही रवैया जारी रहता है।
सुनने में आया है कि मेयर बोरिस जोनसन ने अप्रैल में बेघर लोगों के लिए एक सात लाख डालर के कार्यक्रम की घोषणा की है, जिसमें कहा गया है कि २०१२ तक कोई भी व्यक्ति एक रात से ज्यादा सड़क पर नहीं सोयेगा. देखें कब तक ये कार्यक्रम लागू होता है. लेकिन फिलहाल तो हालात बहुत बुरे हैं महिलायें और बच्चे तक कूड़े वाले कोठरों में सोने को मजबूर हैं हाँ वहां वह एक मानवीय गरिमा बनाये रखने की कोशिश जरुर करते हैं थोडा बहुत अपने हिसाब से उस जगह को भी सभ्य बना लेते हैं जैसे रात को पेशाब लगने पर यहाँ वहां करने की बजाय बोतल में कर लेते हैं, आखिर कूडे घर में ही सही, कोई तो स्टैंडर्ड होना ही चहिये ना।
शिखा जी, लन्दन में गलत तरीके से जाने वाले भारतवासियों की बनी हुई दयनीय हालत पर कलम चलाने के लिए, आपको और आपकी कलम को नमन. शिखा जी, कहा जाता है कि – “घर, घर ही होता है और पराया घर, पराया ही होता है.” सच भी यही है. आखिर, दूर के ढोल सिर्फ सुहावने ही दिखाई देते है, उनकी असलियत तो करीब जाने पर ही मालूम होती है. इसलिए, अब भी हम अपनी सोच को सही रूप दे लें, तो उचित ही होगा. फिर से आपको नमन.
– जीनगर दुर्गा शंकर गहलोत, मकबरा बाज़ार, कोटा – ३२४ ००६ (राज.-भारत)
मो. ९१-९८८७२-३२७८६
शायद ’गोल’ फ़िल्म इसी के चारो ओर बुनी गयी थी.. साउथ हॉल फ़ुटबाल क्लब.. बहुत अच्छा लिखा है आपने..
अरे ये भी एक सचाई है वहां की। अफ़सोसजनक।
बहुत अच्छा लिखा।
रोचक लेख. शिखा को बधाई. एक सजग दृष्टि.
रात भर का है मेहमाँ अंधेरा…
पर यहाँ तो उम्र भर का है मेहमान अंधेरा…
शीखा वार्ष्णेय तुम्हारी संवेदनाएं छू गई…
ओर उनकी पीड़ा…! कोई क़रार नहीं… !
कोई तो देखे, कुछ तो करे…
यह लेख पढ़ कर लगता है की वाकयी दूर के ढोल सुहावने लगते हैं …
धन्यवाद शिखा जी. पढ़कर बड़ा आश्चर्य हुआ की लन्दन सहर की यह स्तिथि है. हर उस युवा ko पढना चाइये जो अपना सब कुछ बेचकर विदेशो में धन कमाने जाना चाहते है.