बहुत दिनों बाद इंदौर आना हुआ तो पुराने साथियों की याद आ गई|जय प्रकाश गुप्ता और मैं कई साला एक ही विभाग में काम करते रहे|नदी के उस पार ‘क्षिप्रा’ में मैं पदस्थ था और वह इस पार ‘बरलई’ में|वहीं रहते हुये उसने इंदौर में एक प्लाट खरीदकर मकान बनवा लिया था| एक बार में उसका मकान बनता हुआ देख भी आया था|फिर सरकारी नौकरी की मजबूरी कि इधर उधर स्थानान्तरण होते रहे | मुलाकात का सिलसिला बंद हो गया|आज लगभग पच्चीस साल बाद जबकि मुझे सेवानिवृत हुये दस साल हो चुके हैं मैं गुप्ता के यहां जाने के मन्सूबे लेकर एक आटो रिक्सा लेकर घर से निकल पड़ा|सोचता जा रहा था कि जैसे ही घंटी बजाने पर गुप्ता दरवाजा खोलेगा मुझे देखकर भौंचक्का रह जायेगा|शायद न पहचाने|मेरी सूरत की तरफ देखता रहेगा|मैं पूँछूगा,’पहचाना’
‘चेहरा कुछ देखा सा तो लग रहा है|’वह कहेगा|
‘पी. डी. श्रीवास्तव क्षिप्रा’
‘अरे तुम कहाँ थे यार अब तक’,वह मुझसे लिपट जायेगा|हाथ पकड़कर भीतर ले जायेगा|मैं भी अंदर से गदगद होकर उसके साथ खिचता चला जाऊंगा|’अरे देखो कौन आया है वह भीतर अपनी पत्नी को आवाज़ लगायेगा|’
‘बाबूजी शेखर कालोनी आ गई है बताईये कहां उतरना है|’आटो वाले ने टोका तो मेरी तंद्रा भंग हुई,बस एक मिनिट, और मैंनें पुरानी स्मृति के आधार पर वह घर ढूंढ निकाला|’बस यही घर है रोक दो|’निश्चित तौर पर मैं सही जगह पहुंचा था|
मैंने दरवाजे पर पहुंचकर इत्मीनान से घंटी बजाई|दरवाजा एक विचित्र से व्यक्ति ने खोला|
‘किससे मिलना है,क्यों वक्त बेवक्त घंटी बजाते रहते हो सूरत से तो समझदार लगते हो क्या अक्ल बाज़ार में बेच आये हो..
यहां मिस्टर गुप्ता रहते…’मैंने कहना चाहा|
..यहाँ कोई गुप्ता सुप्ता नहीं रहता… भागो यहां से…’
‘अरे भाई…..मैंने कुछ फिर कुछ बोलने की कोशिश की|
‘जाते हो कि नहीं……’
और उसने मुझे कुछ बोलने का मौका दिये बिना ही दरवाजा बंद कर लिया|
दरवाजे के बाजू में दीवार पर लिखा था “यहां कुत्ते रहते हैं .कुत्तों से सावधान”
अब मुझॆ दीवार पर लिखी इबारत बिल्कुल सही मालूम पड़ रही थी|यह समझ में भी आ गया था कि यहां मिस्टर गुप्ता नहीं कुत्ते रहते हैं|
आपकी जय स्वीकार
प्रभुदयाल
प्रभु दयाल श्रीवास्तव जी की जय हो —–