लूटा है तुम्हें रहजन् ने रहबर के इशारे पर

राकेश कुमार आर्य

भारतवर्ष के बारे में यह सच है कि यहां की व्यवस्था ही पूर्णत: बीमार है । हर व्यक्ति जिस स्थान पर बैठा है उस पर बैठे-बैठे यदि वह 20% भी अपने आप को देश और समाज के प्रति समर्पित करके सोचने लगे और कुछ सकारात्मक करने लगे तो यह सच है कि इस देश का सारा स्वरूप ही बदल जाएगा । दुर्भाग्य की बात यह है कि जो व्यक्ति जहां बैठा है वह वहां पर बैठे- बैठे केवल और केवल अपने स्वार्थ की बात सोच रहा है । कर्तव्य निष्ठा और समाज एवं देश के प्रति कर्तव्य भावना हमारे भीतर से लुप्त हो चुकी है। 

खुदा जाने कहां पर किस तरह का जलसा हुआ होगा । सरों पर ताज रखे थे , कदम पर तख्त रखा था ।।

यह बहुत ही दुर्भाग्यपूर्ण तथ्य है कि हमारे देश में अधिकांश अपराधी अपराधी इसलिए बन जाते हैं कि वह देश की क्रूर व्यवस्था से लड़ते-लड़ते थक जाते हैं और फिर हथियार हाथ में उठा लेते हैं । उदाहरण के रूप में हम इसे इस प्रकार समझ सकते हैं कि गांव स्तर पर नियुक्त एक सरकारी कर्मचारी लेखपाल जब लोगों का शोषण करता है तो लोग और विशेषकर हमारे काश्तकार उस शोषक लेखपाल के विरुद्ध उच्च – अधिकारियों को शिकायत करते हैं । परंतु उस शिकायत का भी कोई परिणाम नहीं निकलता । यहां तक कि जिलाधिकारी से की गई शिकायत भी देर सबेर रद्दी की टोकरी में जाकर पड़ जाती है । तब हताश , निराश काश्तकार को उस लेखपाल को ही भेंट पूजा चढ़ा कर अपना काम करवाना होता है । इससे जहां किसान के मन में व्यवस्था के प्रति विद्रोह का भाव पैदा होता है वहीं उस शोषक लेखपाल के भीतर यह भाव जन्मता है कि तू जिस ढंग से चाहे वैसे काश्तकारों का शोषण कर सकता है ? – उसकी यह अहमवादी प्रवृत्ति बढ़ती चली जाती है । वह लेखपाल इतने तक ही नहीं रुकता ,अपितु इससे भी आगे जाकर वह कई बार एक काश्तकार को तो यह सलाह देता है कि तुम ऐसा – ऐसा आदेश मेरे लिये उच्चाधिकारियों से करा लो , मैं तुम्हारे खेत की पैमाइश कर दूंगा , तो दूसरे प्रतिपक्षी लोगों से पैसे लेकर उन्हें यह सलाह दे देता है कि तुम जिस दिन मैं पैमाइश करने आऊं उस दिन तुम वहां पर शोर मचा देना अर्थात झगड़ा कर देना , तो मैं वापस चला जाऊंगा ,पैमाइश नहीं करूंगा । इस प्रकार दोनों ओर से पैसे लेकर लेखपाल तो अपनी जेब भर कर वहां से चला जाता है ,परंतु उसके पश्चात दोनों पक्षों में आपसी तनाव बढ़ जाता है । अगले ही दिन दोनों पक्ष तहसील में जा खड़े होते हैं । दोनों ही एक दूसरे को नीचा दिखाने की कार्रवाई में लग जाते हैं। मेडबंदी तक के मामलों में 10 वर्ष का समय लेखपाल , कानूनगो ,तहसीलदार और एसडीएम स्तर पर लड़ते – लड़ते लग जाता है । पैमाइश के मामलों में कानूनगो और लेखपाल पैसे लेते रहते हैं और कभी एक पक्ष के खेत में रकबा अधिक बता देते हैं तो कभी दूसरे पक्ष के खेत में अधिक बता देते हैं । तब एक दिन ऐसा आता है कि वे दोनों पक्ष आपस में ही भिड़ जाते हैं । विवाद बढ़ता है और कई बार यह विवाद हत्या तक पहुंच जाता है । 
तब वही क्रूर और निकम्मी व्यवस्था सक्रिय होती है जिस व्यवस्था से हताश और निराश होकर उन लोगों में से किसी एक ने यह तथाकथित हत्या कर दी थी । वह व्यवस्था उस व्यक्ति के ‘ सच ‘ को न समझ कर उसे जेल के भीतर डाल देती है । उस पर मुकदमा चलता है और कानून अपना काम करते हुए उसे फांसी पर चढ़ा देता है । किसी के पास भी यह सोचने ,समझने और पारिस्थितिकीय साक्ष्य को देखने व समीक्षित करने का समय नहीं होता कि ऐसा क्यों हुआ ? हम अंग्रेजो की क्रूर व्यवस्था की तो समीक्षा करते थे और उसके विरुद्ध उठे अपने क्रांतिकारियों का सम्मान भी करते थे परंतु वर्तमान व्यवस्था से जो लोग लड़ते हुए अपराधी बन रहे हैं या इस क्रूर व्यवस्था के शिकंजे में फंस कर अपना जीवन होम कर रहे हैं , उन्हें तो हम केवल और केवल अपराधी ही मान रहे हैं । अंग्रेजों के प्रशासन के द्वारा प्रदत्त इस कुसंस्कार को हम कब तक ढोते रहेंगे ? 
कानून कहता है कि एक भी निरपराध को फांसी की सजा नहीं होनी चाहिए। यह बात है भी सही । प्राकृतिक न्याय भी यही कहता है कि निरपराध को दंडित नहीं किया जाना चाहिए । प्रकृति किसी भी निरपराधी को दंडित नहीं करती। परंतु यह मनुष्य अधिकांशत: निरपराधियों को ही दंडित करता है । इसका परिणाम कौन भुगतेगा ? – निश्चय ही मानवता को ही इस अव्यवस्था का परिणाम भुगतना है। जो इस व्यवस्था के प्रति तटस्थ हैं और आंदोलित नहीं होना चाहते , या इसे सहन कर रहे हैं – समय उनका भी अपराध लिखेगा।

कच्चे मकान जिनके जले थे फसाद में ।
अफसोस उनका नाम ही बलवाइयों में था ।।

यह अंग्रेजो के काल की व्यवस्था है जो अपने आप को व्यवस्था से ऊपर रख कर चलती है । व्यवस्था में व्यवस्था का कोई इलाज नहीं है ,और ना ही व्यवस्था में व्यवस्था का इलाज करने की कोई व्यवस्था की गई है । ऐसे में व्यवस्था सबके लिए सिरदर्द बन चुकी है । ऐसा नहीं है कि राजस्व विभाग की भ्रष्टाचार से परिपूर्ण कार्यशैली से लड़ते-लड़ते ही लोग अपराधी बन जाते हों , पुलिस व्यवस्था का तो और भी बुरा हाल है । वहां तो पैसे लेकर किसी भी भले व्यक्ति को पुलिस किसी भी संगीन अपराध में फंसा सकती है । कहने का अभिप्राय है कि पुलिस तो सीधे-सीधे ही किसी निरपराधी को अपराधी बना डालती है । अपराधी से सांठगांठ करना और उसे संरक्षण प्रदान करना भारत की पुलिस व्यवस्था की लज्जाजनक परंपरा है । पुलिस की कार्यशैली का यदि निष्पक्ष होकर आकलन किया जाए तो चौंकाने वाले तथ्य सामने आएंगे और यह निश्चय ही स्पष्ट हो जाएगा कि पुलिस के कारण जितने अपराधी जेलों में डाले जाते हैं ,उससे कई गुना निरपराधी लोग जेलों में पड़े सड़ते रहते हैं । ऐसे लोगों को भी जेलों की हवा खानी पड़ जाती है जिनकी पैरोकारी करने तक के लिए उनके पास ना तो पैसे होते हैं और ना ही लोग होते हैं । कईयों के बूढ़े मां-बाप असहाय – अवस्था में तेरे – मेरे सामने हाथ फैलाते- फैलाते और अपने निरपराध बच्चे को जेल से बाहर लाने के लिए संघर्ष करते – करते ही मर जाते हैं । उन लोगों की आह इस संपूर्ण मानवता को एक दिन भस्म कर देगी – यह सच है । यह बात अलग है कि इस सच को स्वीकार करने का अभी हम ना तो प्रयास कर रहे हैं और ना ही इस दिशा में सोच रहे हैं।
यही स्थिति हर विभाग की है । बात राजनीति की करें तो राजनीति में कितने ही न्यायपूर्ण ,तर्कशील , बुद्धि शील , विवेकशील , धर्मशील और देशभक्त कार्यकर्ताओं को प्रत्येक राजनीतिक दल में आगे इसलिए नहीं बढ़ने दिया जाता कि ऊपर बैठे अपराधी प्रवृत्ति के लोग उनके लिए पहले ही रास्ते बंद कर देते हैं। कितने ही भद्रजनों पर आपराधिक कार्यवाहीयां चलवा दी जाती हैं , झूठे मुकदमों में उन्हें फंसा दिया जाता है , जब तक वह उन झूठे मुकदमों और कार्य वाहियों से निकल कर बाहर आते हैं , तब तक उनके जीवन का बहुत कीमती समय हाथ से निकल चुका होता है । कई उनमें से थक भी जाते हैं तो कई विरोधियों के द्वारा ‘ ऊपर ‘भी पहुंचा दिए जाते हैं ,तो कई व्यवस्था से हताश और निराश होकर घर बैठ जाते हैं । इस प्रकार की निन्दनीय लोकतंत्र की व्यवस्था के होते हुए भी हर एक राजनीतिक दल लोकतंत्र की बात करता है और बड़े- बड़े नेता बड़े प्यारे – प्यारे भाषण देकर लोगों को कहते हैं कि यह लोकतंत्र है और इसमें हर व्यक्ति को फलने – फूलने के कारण आगे बढ़ने और देश के बड़े से बड़े पद को लेने के अवसर उपलब्ध हैं , परंतु सच यह है कि यह लोकतंत्र की है जो अच्छे लोगों के रास्ते बंद कर अभद्र और अलोकतांत्रिक लोगों को बंद कमरे में अंदर आने की अनुमति देता है और जनता को इनके विषय में बहुत देर बाद पता चलता है कि यहां तो सब नंगो का ही खेल हो रहा है । नंगेपन को व्यवस्था ही खाद और पानी दे रही है । तब इस अन्यायी व्यवस्था से आप कैसे न्याय की अपेक्षा कर सकते हैं ? 

एक काफिले वालो ! तुम इतना भी नहीं समझे । 
लूटा है तुम्हें रहजन ने रहबर के इशारे पर ।।

आज सर्वत्र अशांति है ,कोलाहल है , चारों ओर एक अजीब सी बेचैनी है । एक संत्रास से अभिशप्त सा मनुष्य समझ नहीं पा रहा है कि वह क्या करें और क्या ना करें ? – किंकर्तव्यविमूढ़ की इस अवस्था में पहुंचे मनुष्य को नहीं पता कि सारी व्यवस्था ही उसके लिए चारों ओर से भाले लिए खड़ी है । जिसको वह छेदना चाहता है ,भेदना चाहता है ,तोड़ना चाहता है , इसे मिटा देना चाहता है । परंतु व्यवस्था ही फिर उसे उठाकर या तो मौत के मुंह में फेंक देती है या जेल के सीखचों के पीछे फेंक देती है । सचमुच में इस व्यवस्था से लड़ने के लिए फिर एक क्रांति की आवश्यकता है । उसके लिए जब तक देश का युवा खड़ा नहीं होगा , तब तक हम लोग ‘ उगता भारत ‘का निर्माण नहीं कर सकते । हमें देखना है एक उदीयमान भारत को , विश्वगुरु भारत को, एक ऐसे भारत को जिसमें व्यवस्था ही व्यवस्था की सबसे पहली पहरेदार बन जाए और न्याय स्वयं न्याय करने वाला बन जाए । जो लोग व्यवस्था से लड़ रहे हैं और लड़ते – लड़ते अपराधी बन रहे हैं ,उन्हें हम आज के समय का क्रांतिकारी मानें । तभी इस देश का उद्धार हो सकता है ,उत्थान हो सकता है।

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राकेश कुमार आर्य
उगता भारत’ साप्ताहिक / दैनिक समाचारपत्र के संपादक; बी.ए. ,एलएल.बी. तक की शिक्षा, पेशे से अधिवक्ता। राकेश आर्य जी कई वर्षों से देश के विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में स्वतंत्र लेखन कर रहे हैं। अब तक चालीस से अधिक पुस्तकों का लेखन कर चुके हैं। वर्तमान में ' 'राष्ट्रीय प्रेस महासंघ ' के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं । उत्कृष्ट लेखन के लिए राजस्थान के राज्यपाल श्री कल्याण सिंह जी सहित कई संस्थाओं द्वारा सम्मानित किए जा चुके हैं । सामाजिक रूप से सक्रिय राकेश जी अखिल भारत हिन्दू महासभा के वरिष्ठ राष्ट्रीय उपाध्यक्ष और अखिल भारतीय मानवाधिकार निगरानी समिति के राष्ट्रीय सलाहकार भी हैं। ग्रेटर नोएडा , जनपद गौतमबुध नगर दादरी, उ.प्र. के निवासी हैं।

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  1. रोजमर्रा के जीवन में मायूसियत झलकाते इस निबंध में “ए(क) काफिले वालो ! तुम इतना भी नहीं समझे । लूटा है तुम्हें रहजन ने रहबर के इशारे पर ।।“ का उत्तर केवल काफिले वालों को ही ढूँढना होगा| युगपुरुष मोदी ने तो सदैव चाहा है कि देश में सैकड़ों वर्षों पश्चात केंद्र में पहली बार राष्ट्रीय शासन के स्थापित होने पर देश में “पहले काफिले” में १२५ करोड़ भारतीय मिल कदम के साथ कदम मिलाकर चलें और “रहबर” बने “राहजन” के बिना, मेरा मतलब कांग्रेस-मुक्त भारत का पुनर्निर्माण करें| सच तो यह है कि महा कुंभ पर जमा लाखों लोगों की भीड़ भी काफिला नहीं है क्योंकि पर्व के समाप्त होने पर अलग अलग सभी अपने “रहबर” के पास लौट जाते रहे हैं! मेरी स्वयं की चिंता राकेश कुमार आर्य जी के लिए है जिन्होंने काफिले से बाहर हो कर कहा है, “लूटा है तुम्हें रहजन् ने रहबर के इशारे पर|”

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