शिखंडी की ओट कैसी खोट

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3 जून को दिल्ली में बाबा रामदेव और अन्ना हजारे के संयुक्त अनशन के ऐन पहले सियासी गरमाहट टीम अन्ना के एक प्रमुख सदस्य व अधिवक्ता प्रशांत भूषण द्वारा प्रधानमंत्री मनमोहनसिंह के लिए शिखंडी शब्द का प्रयोग करने के बाद बढ़़ गयी। हाल में ही,तकरार के तूफान का रुख मोड़ने के लिए इसी टीम की एक और सदस्य पूर्व नौकरशाह किरण बेदी ने प्रधानमंत्री के लिए धतराष्ट्र की उपमा का प्रयोग किया लेकिन उनकी बात पर किसी ने कान नही धरा क्योकि एक काल के इन दोनो पात्र के चरित्र और भूमिका में बुनियादी अतंर हैं।अत: सारी बहस पहले वाले बयान पर ही अटकी हुर्इ है। शिखंडी महाभारत का एक योद्धा है। जिसे काशी नरेश की पुत्री अंबा का पुर्नजन्म कहा जाता हैं। शिखंडी के पिछले जन्म की कहानी जो भी हो लेकिन महाभारत के युद्ध में उसका दर्जा महारथी का था जो धर्म प्रेरित सेना के साथ लड़ा था। कालांतर शिखंडी एक प्रतीक बन कर उभरा जिसे सामने और पीछे की असलियत में फर्क करने के लिये अक्सर इस्तेमाल किया जाता है। परन्तु हर बार इस प्रतीक के बिम्बो में उसके महारथी होने और धर्म के साथ होने के तथ्य को भुला दिया जाता है। आजकल यही चरित्र फिर गर्मागर्म चर्चा का विेषय बना हुआ है। लोकपाल विधेयक को लेकर टीम अन्ना और सरकार के बीच जारी जबानी जंग की एक कड़ी में,कुछ न्यायधीशो के खिलाफ भ्रष्टाचार आरोप लगाने वाले मशहूर अधिवक्ता प्रशांन्त भूषण ने प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की खिल्ली उड़ाने के लिए इस शब्द का इस्तेमाल किया। मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री हैं और निश्चय ही महारथी भी हैं। उनके हाथ में ही सत्ता का अस्त्र है। उनके पीछे पांडवो की पूरी सेना भी है, यह हो सकता है कि, दुर्योधन के 100 भार्इ और उसकी विशाल सेना के सामने यह कमतर हो, पर यह सेना जीती इसलिये कि, शिखण्डी पर भीष्म पितामह हथियार नही चला सके। प्रतीक और बिम्बो का यह प्रयोग वर्तमान काल में प्रशांत भूषण और मनमोहन सिंह के सत्य असत्य के बारे में एक बड़ा भ्रम पैदा करने वाला है। क्योकि जहां से यह प्रतीक उठाकर आज के संदर्भ में लागू किया जा रहा हैं, संभवत: वह सवर्था विपरीत हैं। यह प्रतीक एक विरोधभाषी अलंकार की तरह है, जिसके सही संदर्भ में उपयोग की उम्मीद,खुद को ही, सत्यपक्षी मानने वाली टीम अन्ना से, नहीं है, जिसका एको अहम द्वितियो ना असित, न भूतो न भविष्यति का निनाद ब्रâमांड को गुजित करता हो या नही, इलेक्ट्रानिक मिडिया अपनी धमक जरुर पैदा करता है। इसलिये प्रशांत भूषण के द्वारा शिखण्डी शब्द के उपयोग के साथ ही देश की राजनीति में उबाल आ गया। इस पर सड़क से संसद तक दोनो पक्षो के बीच एक दूसरी बहस चल पड़ी है कि, यह शब्द संसदीय है या असंसदीय है। पक्ष विपक्ष दोनो ओर से दलीलो का लावा फूट पड़ा। प्रशांत भूषण के हिमायतियों को भी उनको दाद देते समय, नाम तो याद रहा लेकिन उसका कारनामा याद नही रही किसी ने यह भी विचार नही किया कि, शिखंडी नही होता तो महाभारत का अंत क्या होता? स्वंय भगवान श्रीकृष्ण इस धर्मयुद्ध में पांडवो का साथ दिया था। युद्ध के जिस प्रसंग को लेकर शिखंडी की ख्याति है उसकी व्यूह रचना स्वंय भगवान ने की थी। प्रधानमंत्री पर तीर चलाने वाले को भी उनकी महारथी वाली भूमिका का ख्याल नही आया अन्यथा वे अपना आशय प्रगट करने के लिए किसी अन्य प्रचलित शब्द का चयन करते लेकिन उसमें आलोचना होने का जोखिम इससे ज्यादा था।एक कारण और हो सकता है कि कही, प्रत्यक्ष मानहानि का मामला न बने इसलिये कानून के इस जानकार को शिखंडी शब्द संभवत: रास आया,क्योकि वक्त जरुरत, इसे तोड़ा मरोड़ा जा सकता हैं। आम समझ के मुताबिक जाहिरा तौर पर इस शब्दब़ाण को चलाने के पीछे उनका आशय यही है कि भ्रष्टजनो या सरकार को बचाने के लिए मनमोहन सिंह शिखंडी की तरह बीच में खडे़ है जिन पर भीष्म शस्त्र नही चला सकते हैं। यह पौराणिक सत्य है कि पितामह हृदय से पांडवो की ओर होते हुए भी केवल वचन के प्रति अपनी प्रतिबद्वता के चलते, कौरवो की ओर रहे वर्तमान संदर्भ में इसका एक अर्थ यह भी निकलता है कि टीम अन्ना के भीष्म को प्रहार कर पाने का अवसर नही मिल पाने की विवशता पर आंसू बहाने के लिए प्रशांत भूषण ने मनमोहन सिंह के लिए शिखंडी शब्द का प्रयोग किया है। अगर मनमोहन सिंह सचमुच वह है, जो प्रशांन्त कहते और समझते है तो प्रधानमंत्री अधर्म के खिलाफ लड़ रहे है। प्रशांत धार्मिक वृति के है वे ऐसे तथ्य और सत्य से कैसे इंकार कर सकते है जिसे सारा संसार जानता और मानता है। उनके बयान का अर्थ यह भी निकलता है कि प्रशांत कौरवो के पक्षधर है, अगर ऐसा है तो फिर इस जंग का कारण और नतीजा खुली किताब की तरह है। मगर इस यकीन के साथ कि शिखंडी होना अपमान जनक है प्रशांत ने प्रधानमंत्री का नाम लिया है या उनके इस कथन से मनमोहन सिंह के पैरवीकारो को ऐसा बोध हुआ है, तो दोनो पक्ष ने भारतीय संविधान का अनादर किया है जो हर के लिये समता और समानता की बात कहता है। अपराध के एवज में दडिंत किया जाना न्याय संगत है पर टीम अन्ना के कुछ खास सदस्य और प्रधानमंत्री के कुछ पक्षधर अपने हित साधना के लिए निर्दोष शिखंडी को जो दंड दे रहे है, वह अक्षम्य कृत है। अर्जुन ने भी वृहन्नला का रुप धारण किया था इससे उनका सम्मान नही घटा यदि वृहन्नला बनना आज समाज में अमर्यादित कृत्य नही है तो शिखंडी भी लज्जाजनक प्रतीक नही है। तो, जो अपमान है ही नही, वह असंसदीय कैसे हो सकता है। असंसदीय तो वह भाव है जो प्रशांत भूषण के अन्दर था या राजनेताओ व उनके समर्थको का ऐसा आशय समझ कर जा भिड़ना है। प्रधानमंत्री का अपमान शिखंडी से नही हुआ है, बल्की इस ऐतेहासिक चरित्र का निरादर उन लोगो ने किया है जो उसे गिरा हुआ मानते है। सच्चार्इ यह है कि श्रेष्ठता के अंहकार से पीडि़त यह वर्ग, शिखंडी के असितत्व के सामने बौना है। हम अच्छे है इसके लिये दूसरो को कमतर आंकना या बताना स्वंय की कमजोरी है। जो लोग ध्येय पूर्ति के लिये मनमाफिक व्याख्या या भेद करते हो, उनसे न्याय की प्रत्याशा करना अपने आप को छलना है। क्योकि खुद पर विश्वास होता तो प्रशांन्त कहते कि, प्रधानमंत्री मुझ जैसे अच्छे नहीं है या मनमोहन समर्थक कहते कि प्रशांत, मनमोहन के जितने भले नही है और लोग इन लोगो की बात पर विश्वास कर लेते कि अमुक ने जो कहा है वह सत्य हैं। पर सुर्इ शिख्ंडी पर अटकी हुर्इ है। इस असंसदीय तकरार में हार या जीत किसकी होगी यह गौण हैं मूल बात यह है, कि इस पर चर्चा हुर्इ ही क्यो ? या तो मन का कलुष, संताप बनकर डस रहा है या फिर इस युग के स्वभू महारथियो के पास अपना कहे जा सकने वाले मौलिक हथियार का तोड़ा है? भ्रष्टाचार व लोकपाल विधेयक को लेकर किया गया प्रशांन्ती वार कितना कारगर हुआ इसका आंकलन खुद प्रशांतभूषण अपने मुखिया अन्ना हजारे के उस बयान से कर सकते है जो उनके बयान के बाद आया था। अन्ना ने मनमोहनसिंह की अच्छा माना है जब प्रधानमंत्री र्इमानदार है तो फिर उन पर भ्रष्टाचार या ऐसे तत्वो को संरक्षण देने का आरोप बेतुका है। अगर प्रशांत समर्थक बाद में जारी अन्ना के विश्वास उठ जाने वाले बयान का हवाला अपनी दुखती नस को सहलाने के लिये दे

 

 

 

 

तो वह लोकपाल विधेयक आन्दोलन के नेता के दोहरे व्यकितत्व का ही ऐलान होगा। वैसे भी प्रधानमंत्री के बारे में अन्ना की राय कपड़ो की तरह बदलती रहती है।प्रशांत और किरण भले ही मनमोहन सिंह को जिस नजंर से देखे या समझे उनके अगुवा की बात और अदा निराली है वे आज तक यही नही तय कर पाये कि मनमोहन अच्छे है या नही है? लेकिन उन्होने प्रशांत के इस दषिटकोण का समर्थन करने की चूक नही की है। शायद उन्हे एहसास है कि उनकी टीम सदस्य शिखंडी का उल्लेख करके जहां मनमोहन सिंह को क्लीन चिट दी है वही खुद उनकी कमजोरी की ओर भी इशारा किया है।क्योकि वे जानते है कि यह शब्द संसदीय हो या असंसदीय हो यह तकरार अपनी जगह है, लेकिन वे लोग जरुर अपराधी है जिन्होने अपने आप को शिखंडी से उच्चतर समझने की भूल की है। यह अटल सत्य है कि , नख से शिखा तक फैले भ्रष्टाचार का अंत कागजी बयानो और चैनली बहसो से नही होने वाला है। इससे पहले भी सांसद बनाम सिविल सोसायटी की बहस बेनतीजा, इतनी लंबी चली है कि दोनो की असली ताकत, सबके सामने में आ चुकी हैं। दबाव और अधिकार के हुड़दग का नतीजा न तुम जीते न हम हारे रहा हैं।इस पर दोनो पक्ष एक दूसरे को जबानी पटकानिया देने पर आत्ममुग्ध होकर अपनी अपनी पीठ भले थपथपाये लेकिन सिर्फ मैं ,और कोर्इ नही मेरे सिवाए कि इन अनिर्णित बहसो का हासिल क्या है? इससे इस तरह की बहसो को मंच देने वाला इलेकिट्रानिक मिडिया बखूबी वाकिफ हैं। प्रशांत भूषण के द्वारा मनमोहन सिंह को शिखण्डी कहने मात्र से भ्रष्टाचार मिटाने वाला नही है ।

जनेच्छा, भ्रष्टाचार के जड़ से खात्मे कि है न की एक और कानून पारित करवाने की है। इस फर्क को समझना समय की मांग है अन्यथा हर समस्या के समाधान के लिए नये कानून क का चलन किसी का हल निकलने ही नही देगा क्योकि ऐसी कोर्इ चीज है ही नही जिसे सपर्ूण माना जाता हो। किसी कमी को खोज कर कोर्इ नागरिक समाज और बंदिशो के लिए नये नये कानून बनाने की मांग पर अड़ता रहेगा, इससे समाज को अपना दोष कानून की कमी या उस कानून को बनाने वाले के सर मढ़ने में आसानी होगी और भ्रष्टाचार और भ्रष्टाचारी दोनो आज की तरह कल भी बने रहेंगे। नकली बातो से हल नहीं निकलता है। सवाल जबाव सीधा होना चाहिए समाज और सरकार दोनों से पूछा जाना चाहिए कि ये भ्रष्ट लोग कौन हैं कहां से आये हैं, यह अपनी जगह है, पहले यह बताया जाये कि ऐसा क्यों हैं? और हैं तो फिर आप और हम दोनों, जो इसके विरोध में है, स्वयं कहां हैं?

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  1. सही है “प्रशांत भूषण के द्वारा मनमोहन सिंह को शिखण्डी कहने मात्र से भ्रष्टाचार मिटाने वाला नही है ” वैसे आपने शिखण्डी का विश्लेषण अच्छा किया है.

    जनेच्छा, भ्रष्टाचार के जड़ से खात्मे कि है पर इसके लोइए एक कानून भी चकिये
    Kanoon का बनाना , बदलते रहना एक परम्परा है अत एव ही संसद और विधयिकाएं है
    ये भ्रष्ट लोग कौन हैं कहां से आये हैं, यह देखना उस व्यवस्था का काम है
    फिर आप और हम दोनों, जो इसके विरोध में है, स्वयं कहां हैं उचित होते हुए भी इसका अर्थ यह नहीं की यदि हम भी भ्रस्त हों तो हमें इसके विरोध करने का आदिकार नहीं है (हां किसी के तरह हम पर भी वह सजा जरूर लागू होनी चाहिए और कोशिश करना चाहिए की हम भ्रस्त्त न हो.
    पुरे उपनिषद में कथ्य का महत्वा है कथावाचक का नहीं.
    आपने प्राम्भिक व्याख्याएं अच्छी की हैं पर अंत में लटपटा दिया है- प्रशांत, किरण , बाबा रामदेव के बेईमान होने पर भी यह मुद्दा ख़त्म नहीं होता वल्कि इसकी जरूरत और बढ़ जाती है- और आप यह भ्रम न रखें की पूर्ण सतिविक लोग ही विरोध के अधिकारी हैं
    पूरा साफ़ केमिकल पानी अअच् २ओ पीने लायक नहीं होता है

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