मोहब्बत और रोटी

पियूष द्विवेदी ‘भारत’

एक थी मोहब्बत, और थी एक रोटी!

फैसला करो कि कौन बड़ी कौन छोटी?

 

मोहब्बत है बोली, हूं मै खूबसूरत!

मेरी इस जहाँ में, है सबको ज़रूरत!

 

मेरी इक अदा पर, लग जाती कतारें!

मै हँस जो अगर दूं, आ जाती बहारें!

 

मेरी भौंह हिलती, तो आती क़यामत!

मै चलती झनककर, तो हिलती रियासत!

 

मेरा मिलना यहाँ, होता आसां नही!

मै हूं मिलती उसे, जो हो प्रेमी सही!

 

मेरी व रोटी की, नही तुलना कोई!

ये बनते के संग, गर्म तवे पर गई!

 

जो उतरी तवे से, पहुंची दांत बीच!

इसकी हालत यही, है नीचों से नीच!

 

चुप रोटी तभी से, मंद बोली थी अब!

जो भी तुमने कहा, मानती सच है सब!

 

पर हैं बातें कई, जो तुमने न बोली!

है कुछ बात खुद की, जो तुमने न खोली!

 

 

मै लाखों बुरी हूं, पर ये फिर भी सुनो!

सच कही या कि झूठ, ये मन में तुम गुनो!

 

पेट में मै जो हूं, याद आती हो तुम!

पेट खाली जो हो, भूल जाती हो तुम!

 

लोग खातिर मेरी, तुमसे दूर होते!

इक मेरी जुगत में, सुख औ’ चैन खोते!

 

हो जरूरत तक तुम, मगर मै मजबूरी!

औ’ मेरे बिना तुम, नही होती पूरी!

 

मै हूं रहती अगर, तब हैं रहते सभी!

गर हैं रहते सभी, हाँ तुम भी हो तभी!

 

तुम भी हो ज़रूरत, मगर मेरे बाद!

बात मेरी ये तुम, सदा रखना याद!

 

हो निरूत्तर मोहब्बत, चल दी थी वहां से!

हाँ हैसियत अपनी, वो जानी जहाँ पे!

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