प्रकृति से प्यार करो

—विनय कुमार विनायक
प्रकृति से प्यार करो, थोड़ा सा उसे दो,
औ अधिक से अधिक उससे से ले लो,
प्रकृति की जड़-चेतन,सुप्त-जागृत चीजें,
कभी भी इंसान सा कृतघ्न नहीं होती!

थोड़ी सी मिट्टी की निकासी गुड़ाई करो,
एक छोटा सा बीज भूमि में बोकर देखो,
एक नन्हा कोमल पौधा निकल आएगा,
उसे थोड़ा सा खाद, पानी, निगरानी दो!

जल्द ही एक बड़ा सा वृक्ष बढ़ आएगा,
वृक्ष कुलबुलाएगा फूल व फल दे करके,
तुम्हारे किए छोटा सा उपकार के बदले,
ये वृक्ष ताउम्र बड़ासा एहसान चुकाएगा!

आजीवन तुम्हें मीठा-मीठा फल खिलाएगा,
राह चलते तुम्हारी विरादरी को छांव देगा,
मरकर भी फर्नीचर बनकर शान दिखाएगा,
श्मशान में मृत संग लकड़ी धर्म निभाएगा!

अपने खेत में अन्न के दाने रोपकर तो देखो,
छोटे झाड़ीदार फसल लहलहाकर उग आएगा,
हर रोज का भोजन बनकर एहसान चुकाएगा!

यहां तक कि नागफनी कांटे को परवरिश दोगे,
तो वो भी घर में खूबसूरती बनकर उग आएगा,
या खेत की मेढ़ पर बार्डर बन हिफाजत करेगा,
या सरहद पर उगकर दुश्मन के पैर में चुभकर,
अजर-अमर भारतीय सैनिक का धर्म निभाएगा!

ये तो हुई फल, अन्न, बीज और कांटे की बातें,
आजीवन धर्म व एहसान चुकाने की सदप्रवृत्ति!

मगर सृष्टि के सर्वाधिक ज्ञानी-अभिमानी जीव
मनुष्य में पाई जाती एहसानमंद होने के साथ,
एहसान फरामोश हो जाने की दुष्टतापूर्ण वृत्ति!

तुम बेटा को अन्न भोजन खिलाकर बड़ा करो,
बुढ़ापे में जीते जी बेटा बांट लेगा पूरी संपत्ति!

तुम्हारा लड़का लड़ाई कर ले लेगा पूरी गृहस्थी,
मगर सपूत पुत्र होता लाख में कोई एक विरले,
जो पूर्वज सहित तुम्हें उबार देगा बड़े नर्क से!
—विनय कुमार विनायक

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here