वृहदारण्यक उपनिषद् की मैत्रेयी सौभाग्यशाली

– हृदयनारायण दीक्षित

वैदिक काल और उत्तर वैदिक काल में ढेर सारी तत्ववेत्ता महिलाएं हैं। लोपामुद्रा ऋग्वेद की मंत्रद्रष्टा हैं लेकिन मैत्रेयी की तत्व अभीप्सा बेजोड़ है। वह तत्ववेत्ता कुलपति याज्ञवल्क्य की दो पत्नियों में से एक थी। याज्ञवल्क्य ने संन्यास की तैयारी की। उन्होंने दोनाें पत्नियों मैत्रेयी व कात्यायनी को बुलाया, कहा कि हमारी अर्जित सम्पदा दोनों बांट लो। मैत्रेयी ने धन-दौलत लेने से इनकार किया और कहा कि इस धन से समूची पृथ्वी भी मेरी हो जाए तो क्या मैं इससे अमर हो जाऊंगी। श्रीमान् मुझे अमरतत्व का साधन बताएं। (वही 2.4.2-3) भारत का प्राचीन काल अग्निधर्मा था। तब भारत की स्त्री मेधा भी भौतिकवादी धन साधन की तुलना में सृष्टि रहस्यों के ज्ञान को बेचैन थी। याज्ञवल्क्य सारे जीवन की अर्जित सम्पदा छोड़ रहे थे। धन सम्पदा की एक सीमा है। वह सांसारिक जीवन में बेशक एक साधन है लेकिन परमतत्व के बोध की यात्रा में धन काम नहीं आता। हमारे पूर्वजों ने इसीलिए ज्ञानयात्रा की ‘प्रस्थानत्रयी’ बनाई। ज्ञान यात्रा प्रस्थान के तीन (त्रय) साधन बताये – ब्रह्मसूत्र, उपनिषद और गीता। मैत्रेयी उसी अमृततत्व को अपनी पति से पूछ रही थी।

याज्ञवल्क्य तत्व ज्ञानी थे। उन्होंने सभी सांसारिक रिश्तों को आत्मार्थ बताया और कहा, हे मैत्रेयी! पति के प्रयोजन के लिए पति प्रिय नहीं होता, स्वयं अपने प्रयोजन के लिए ही पति प्रिय होता है। स्त्री के प्रयोजन के लिए स्त्री प्रिय नहीं होती, अपने ही प्रयोजन के लिए स्त्री प्रिय होती है। (वृहदारण्यक उपनिषद, पृष्ठ 549, गीता प्रेस गोरखपुर) यहां अपने प्रयोजन का अर्थ निज स्वार्थ दिखाई पड़ता है लेकिन मूल संस्कृत वाक्य भवत्यात्मनस्तु कामाय का सीधा अर्थ आत्मा के लिए है। शंकराचार्य के भाष्य में यह बात सुस्पष्ट है – आत्मैव प्रियाः, नान्यत यानी आत्मा ही प्रिय है और कुछ नहीं। याज्ञवल्क्य ने आगे कहा पुत्रों के प्रयोजन के लिए पुत्र प्रिय नहीं होते, आत्म प्रयोजन के लिए ही पुत्र प्रिय होते हैं …….. देवता भी अपने प्रयोजन के लिए ही प्रिय होते हैं। अनेक उदाहरण देने के बाद उन्होंने कहा, इसलिए आत्मा ही दर्शनीय, श्रवणीय, मननीय और ध्यान के योग्य है। आत्मदर्शन, श्रवण, मनन और विज्ञान ‘इस सबका’ ज्ञान हो जाता है। (वही) यहां इस सबका ज्ञान – इदं सर्वं विशेष ध्यान देने योग्य है। ‘इदं सर्वं’ शब्द ईशावास्यापोनिषद् में भी आया है – ईशावास्याम् इदं सर्वं। इदं सर्वं का अर्थ है यह सब समूची सृष्टि। याज्ञवल्क्य का कथन है कि आत्मा के ज्ञान से समूचे संसार का ज्ञान हो जाता है। छान्दोग्य उपनिषद् (7.25.2) में भी आत्मैवेदं सर्वं आत्मा ही यह सब कुछ है। मैत्रेयी और याज्ञवल्क्य का संवाद प्रीतिकर है।

प्रत्येक जीव स्वार्थी होता है। मनुष्य कुछ ज्यादा ही स्वार्थी है। स्वार्थ सबके लिए प्रेय है लेकिन भारतीय लोकजीवन में हेय है। मजेदार बात है कि जो अलग-अलग सबका प्रेय है, वही सामाजिक बोध में हेय क्यों है? कठोपनिषद् में प्रेय के साथ श्रेय शब्द भी आया है। प्रेय का केन्द्र कामनाएं हैं और श्रेय का केन्द्र लोकमंगल। स्वार्थ वस्तुतः एक जटिल शब्द है। यह स्व और अर्थ से मिलकर बना है। स्व निजता और अस्मिता है। सृष्टि विराट है, एक है, अद्वैत है। मनुष्य इसी का अविभाज्य हिस्सा है लेकिन नाम, रूप और निजता के कारण अलग-अलग इकाई है। दर्शन की दृष्टि में समूची सृष्टि ‘व्यक्त’ है, इसी की इकाई व्यक्ति है। इकाई की अस्मिता ही ‘स्व’ है। लेकिन इकाई अनंत विराट का एकात्म भाग है। बूंद सागर का ही नाम, रूप है। बूंद की निजता और अस्मिता अल्पकालिक है। वह सागर का ही एक हिस्सा है। बूंद का यही बोध स्व का विस्तार है। तब बूंद छोटी सी इकाई न होकर स्वयं को सागर जान लेती है। स्व का लघुत्तम संकीर्णता है, महत्तम व्यापकता है लेकिन स्व0 का परमबोध स्वार्थ को परमार्थ बनाता है। उपनिषदों के अनुसार सारी कठिनाई स्वयं को अलग इकाई समझने की है। उपनिषद् इसे द्वैत कहते हैं। उपनिषद् और बुध्द इसका कारण ‘अविद्या’ बताते हैं। मनुष्य अविद्या के कारण ही दुखी है। अविद्या के कारण वह स्वयं को अलग समझता है, एकाकी होता है, निराश-हताश होता है। याज्ञवल्क्य ने मैत्रेयी से कहा जहां द्वैत है, वहीं अन्य हैं, अन्य अन्य को सूंघता है, अन्य अन्य की सुनता है, अन्य अन्य का अभिवादन करता है। अन्य अन्य से परिचित होता है लेकिन आत्मद्रष्टा के लिए समूची सृष्टि आत्मा ही है। वह किसके द्वारा किसको सूंघे? किसके द्वारा किसे देखे? किसके द्वारा किसे सुने? किसके द्वारा किसका अभिवादन करे? किसके द्वारा किसका मनन करे? जिसके द्वारा इस सबको जानता है उसे किसके द्वारा जाने? मैत्रेयी विज्ञाता को किसके द्वारा जाने? (वही पृष्ठ 573) बात जटिल है लेकिन सरल भी है। हम इन्द्रियबोध से संसार देखते, सुनते समझते हैं लेकिन इन्द्रियबोध तो उपकरण है। हम आखिरकार कौन हैं?

स्वयं का बोध ही आत्मबोध है। बाकी बोध हमारी इन्द्रियों द्वारा देखा, सुना, चखा, छुआ और सूंघा सामान्य ज्ञान है। भौतिकवादी इसे ‘यथार्थ’ कहते हैं। लेकिन स्वार्थ यथार्थ से बड़ा है। जैसे यथार्थ यथा-अर्थ है वैसे ही स्वार्थ स्व-अर्थ है। यथार्थ में नाम, रूप वाले पद हैं, पदों का अर्थ पदार्थ है लेकिन स्व नाम रूप वाली कोरी सत्ता नहीं है तब स्वार्थ का तात्पर्य क्या होना चाहिए? स्व की समझ इन्द्रियों से नहीं हो सकती। इन्द्रियबोध की सीमा है। उपदेशक आत्मविश्लेषण और आत्मचिन्तन की बातें करते हैं। आत्मविश्लेषण और आत्मचिन्तन के विषय संसारी होते हैं। मसलन मुझे गुस्सा आता है? क्यों आता है? मैं देर से उठता हूँ? आदि आदि। लेकिन उपनिषद दर्शन का आत्मतत्व इन विषयों के परे आत्मचिन्तन का संकेत करता है। मूलतत्व, मूल प्रश्न बार-बार एक ही है कि आखिरकार मेरे भीतर बैठा वह तत्व कौन सा है जो सुनता है? सूंघता है, हंसता है, जीता है और इस पूरी कार्रवाई का नियंता है? भारत के चिंतन में कोई अंतिम घोषणा नहीं है। जिज्ञासा और खोज के लिए खुला आकाश है। आस्था के निर्देश नहीं हैं। जो चाहे खोजे। सत्य की खोज में कोई आरक्षण नहीं है। महिलाएं भी यहां अग्रणी चिंतक रही हैं। कठोपनिषद के ऋषि व गीता की शानदार घोषणा है कि यह आत्मा तत्व प्रवचन अध्ययन से नहीं मिलता। भारत प्रश्नों, प्रतिप्रश्नों तर्कों, प्रतितर्कों और सतत् जिज्ञासा की पवित्र धरती है। वैज्ञानिक 18वीं शताब्दी के बाद से सृष्टि को एक अखण्ड सत्ता बता रहे हैं। वेद और उपनिषद् के ऋषि हजारों बरस पहले से ही ‘एकं सद्’ या अद्वैत के जरिए समूची सृष्टि को एक ही परम तत्व का विकार (विकास) बता चुके हैं। मैत्रेयी भाग्यवान थी कि उसके चित्त में आधारभूत प्रश्न उठे? गार्गी भी ऐसी ही थी उसने बड़े तीखे पैने सवाल किये थे। पार्वती और शिव के दार्शनिक संवाद भारत की थाती है। द्रौपदी द्वारा सभा पर्व (महाभारत) में उठाए गए प्रश्नों के सामने बड़े-बड़ों ने सिर झुकाए थे। दर्शन विज्ञान का क्षेत्र आस्था रहित होता है। आस्थामुक्त चित्त ही प्रश्नों में रमता है। बेशक आस्था रखना और प्रश्नों-प्रतिप्रश्नों से अलग रहना अपना विवेक है लेकिन ऋग्वेद के एक ऋषि ने देवताओं से प्रार्थना की थी कि हमें ऐसे लोगों से बचाओं जो प्रश्नों-प्रतिप्रश्नों में आनंद नहीं लेते।

* लेखक उत्तर प्रदेश में मंत्री रह चुके हैं।

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