मैडम शहर से आती हैं इसलिए देर हो जाती है।

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श्रृंखला पाण्डेय

”प्रधानाध्यपक जी आज उपस्थित नही हैं, जब भी ऐसा होता है तो मेरे लिए बच्चे संभालना बहुत मुश्किल हो जाता है। मैं मिड डे मील की व्यवस्था देखूं, रजिस्टर भरूं या फिर पांच कक्षाओं को एक साथ पढ़ाऊं”। ये वाक्य है कानपुर से सटे उन्नाव जिले से लगभग 12 किमी दूर प्राथमिक विद्यालय अजगैन की शिक्षामित्र पूनम सिंह का।

सुबह के नौ बजे जब बच्चों को अपनी कक्षाओं में होना चाहिए था तो वो कक्षा के बाहर घूमते दिखे और कई स्कूलों में केवल एक ही शिक्षिका मिलीं। हम बात कर रहे हैं सरकारी स्कूलों की जहां शिक्षकों को सरकार अच्छा खासा वेतन देती है, सिर्फ इसलिए कि गरीब बच्चे भी पढ़कर आगे आ सकें।

विद्यालय में कुल 139 बच्चे पंजीकृत हैं और उपस्थिति 60 की थी। स्कूल में चार अध्यापक और नियुक्त हैं जो वहां मौजूद नहीं थे। वहीं पास के दूसरे प्राथमिक स्कूल में बच्चों ने बताया मैडम जी अभी नहीं आईं है वो शहर से आती हैं इसलिए देर हो जाती है।

सरकारी स्कूलों में शिक्षा के गिरते स्तर का एक कारण अध्यापकों की कमी भी है। लोकसभा को दी गई जानकारी के अनुसार उत्तर प्रदेश में उच्च माध्यमिक विद्यालयों में 55,859 अध्यापकों की कमी है, जबकि प्राइमरी में लगभग 2.5 लाख पद खाली हैं। शिक्षा का अधिकार कानून के तहत उच्च माध्यमिक स्कूलों में 35 छात्रों पर एक अध्यापक होना चाहिए।

बताते चलें की सयुंक्त राष्ट्र संघ के सतत विकास के लक्ष्य 4 के अनुसार बच्चों को निशुल्क शिक्षा से जोड़ने और उनके व्यक्तित्व के विकास के लिए विद्धालय परिसर में कई प्रकार की सुविधाएं उपलब्ध कराने का लक्ष्य तय किया है ताकि शिक्षा के क्षेत्र में भारत अभूतपूर्व उन्नति प्राप्त कर सके परंतु निम्न कारक इस रास्ते में बाधा बन सकती है।

सुविधाओं के बाद भी सरकारी स्कूलों से अभिवावकों की दूरी

परिषदीय स्कूलों में बच्चों को मुफ्त शिक्षा दी जाती है। कॉपी-किताबें और दोपहर का भोजन दिया जाता है, स्कूल यूनिफॉर्म के साथ साथ छात्रवृत्ति भी दी जाती है। इसके बावजूद अभिभावक पूरी फीस देकर बिना किसी सुविधाओं के अपने बच्चों को कॉन्वेंट स्कूलों में भेजते हैं। क्योंकि उनका मानना है कि सरकारी स्कूलों में शिक्षाका स्तर लगातार गिरता जा रहा है। बच्चे तो आते हैं लेकिन शिक्षक नहीं। कई बार तो शिक्षक स्कूल आते ही नहीं हैं और साथी शिक्षकों से रजिस्टर में उपस्थिति दर्ज करा देते हैं।

महंगी फीस के कारण नहीं मिल पाती उच्च शिक्षा–

अब अगर हम बात करें उच्च शिक्षा की तो आज भी ग्रामीण भारत के छात्रों के लिए ये चुनौती का विषय है। बाराबंकी के रहने वाले भूपेन्द्र के गाँव वालों के लिए इंजीनियरिंग बहुत बड़ी बात है क्योंकि गाँव के बहुत कम युवा ही उच्च शिक्षा की ओर कदम बढ़ा पा रहे हैं। हालांकि ग्रामीण युवाओं का रुझान उच्च शिक्षा की ओर धीरे-धीरे बढ़ रहा है। पाठ्यक्रम का अंग्रेजी में होना, मात्र खेती की आय से कॉलेजों की फीस पूरी न होना और पारिवारिक जिम्मेदारियां ग्रामीण युवाओं की शिक्षा के बीच रोड़ा पैदा करतीं हैं। रुझान और जागरूकता के बाद भी उच्च शिक्षा में ग्रामीण क्षेत्र के युवाओं और शहरों के बीच एक बड़ा अंतर देखने को मिलता है इसका कारण बताते हुए गिरि विकास अध्ययन संस्थान के प्रोफेसर डॉ जीएस मेहता बताते हैं, ”गाँव के बच्चे इंजीनियरिंग और तकनीकी शिक्षा लेने से कतराते हैं क्योंकि वो शुरू से सरकारी स्कूलों से पढ़कर आते हैं और आजकल की तकनीकी शिक्षा इतनी विकसित हो चुकी है कि उनको समझने में काफी दिक्कत होती है।”

जीएस मेहता ने ग्रामीण क्षेत्रों की शिक्षा पर गहन अध्ययन किया है।बताते हैं कि ”संसाधनों की कमी के कारण ग्रामीण युवाओं के लिए बड़े कॉलेजों तक पहुंचना मुश्किल हो रहा है अगर किसी तरह उन्हें एडमिशन मिल भी जाता है तो आगे वो एक या दो सेमेस्टर के बाद कोर्स छोड़ देते हैं। खेती करने वाला किसान बड़े कॉलेजों की फीस नहीं भर पाता और कर्ज में डूब जाता है।”वो आगे बताते हैं “ अंतराष्ट्रीय शैक्षिक एवं अनुसंधान संघ ने 2013में एक रिपोर्ट जारी की थी, जिसके मुताबिक ग्रामीण और नगरीय क्षेत्रों में उच्च शिक्षा के नामांकन अनुपात में एक बड़ा अंतर देखने को मिलता है। जहां शहरों में नामांकन दर 23 प्रतिशत है वहीं ग्रामीण क्षेत्रों में केवल 7.5प्रतिशत है। महिलाओं की बात करें तो शहरी क्षेत्र में दर 22 प्रतिशत है वहीं गाँव में महज 5 प्रतिशत है”।

ऐसे में बात अगर शिक्षा बजट का जायज़ा लिया जाए तो हम पाएंगे कि हर वर्ष परिषदीय स्कूलों के लिए प्रदेश सरकार अरबों रुपए का बजट देती है, इसके बावजूद सरकारी स्कूलों में शिक्षण व्यवस्था पटरी पर नहीं आ रही है। वित्त मंत्री अरूण जेटली ने इस बार के शिक्षा बजट में उच्च शिक्षा के लिए15 हजार करोड़ बजट बढ़ाया है, इससे इस क्षेत्र को 1.3 लाख करोड़ उपलब्ध करवाएं जाएंगे। वहीं यूपी में शिक्षा के मद में 665 अरब रुपये का प्रावधान किया गया है, साथ ही कई नई योजनाएं शुरू की गयीं हैं, जैसे अहिल्याबाई नि:शुल्क शिक्षा योजना में लड़कियों की स्नातक तक की पढ़ाई मुफ्त कर दी गयी है। हालांकि इससे पहले भी कई योजनाएं चल रही है जिनका बहुत ज्यादा असर नहीं दिख रहा। कक्षा एक से आठ तक नि:शुल्क किताबों के लिए 76 करोड़ रुपये और यूनिफार्म के लिए 40 करोड़ रुपये रखे गए हैं, माध्यमिक शिक्षा अभियान के लिए 480 करोड़ रुपये का प्रावधान है।

हालांकि सरकार का दावा है कि शिक्षा में सुधार की कोशिशें की जा रही हैं। राज्य सरकार प्राथमिक, माध्यमिक एवं उच्च शिक्षा पर पूरा ध्यान केंद्रित कर रही है। अब ये बजट शिक्षा स्तर को कितना सुधार पाएगा ये तो कुछ समय बाद ही पता चलेगा।

सुधार कैसे किया जा सकता है—

शिक्षा में गाँवों की हालत बहुत ही खराब है। गाँवों की साक्षरता दर 58 प्रतिशत के करीब है जबकि शहरों की 80 फीसदी। ग्रामीण महिलाओं की साक्षरता दर 46 प्रतिशत के करीब और शहरी महिलाओं की 73 प्रतिशत है। शिक्षा सुधार के नुस्खे यदि उन्हीं लोगों से पूछे जिन्होंने इसे बिगाड़़ा है तो वांछित परिणाम नहीं मिलेगा।

 सुधार के लिए पढ़ाई के दिनों को बढ़ाया जाए—-

सब कुछ ठीक रहे फिर भी यदि पढ़ाने के दिन ही न मिले तो शिक्षा में गुणवत्ता नहीं आएगी। आजकल 54 सार्वजनिक अवकाश, 48 रविवार, 40 दिन ग्रीष्मावकाश, प्रवेश और परीक्षा में 20 दिन, अतिवृष्टि और शीतलहर में 15दिन, वार्षिकोत्सव, हड़तालें, कंडोलेंस आदि में 10 दिन तथा रबी और खरीफ में 20 दिन खेतों में। इस प्रकार पढ़ाई के लिए केवल 158 दिन बचते हैं।

-सत्र की अवधि और उसका आदि अन्त कुछ पता नहीं रहता। कभी सत्र का आरम्भ अप्रैल से होगा तो कभी 1 जुलाई से। कभी स्कूल 30 जून को बन्द होंगे तो कभी 31 मार्च को। सत्र का अन्तराल निश्चित होना चाहिए और अवधि तर्कसंगत।

अनिश्चय और अनिर्णय का यह हाल है कि कभी तो कहते हैं कि कक्षा 5 की बोर्ड परीक्षा होगी तो कभी कहते हैं कक्षा 10 तक कोई फेल नहीं किया जाएगा। इस ढुलमुल यकीनी का परिणाम यह है कि शिक्षा को न तो शिक्षा विभाग गभ्भीरता से लेता है और न छात्र और अध्यापक।

आजकल अध्यापक राजनीति में सक्रिय हो गए हैं और मोटी तनख्वाह के बावजूद वे अपना व्यवसाय करते हैं, कोचिंग चलाते हैं, खेती करते हैं और हड़ताल करते हैं और इन सब से समय बचा तो स्कूल चले जाते हैं । उनकी उपस्थिति का सत्यापन हो ही नहीं सकता।

धरातल स्थिति को ध्यान में रखते हुए हमें अपने लक्ष्य तक पहुंचना है जिसके अनुसार शिक्षा की गुणवत्ता को 2030 तक उतत्म से सर्वोत्तम बना कर सभी लड़के एवं लड़कियों को विभिन्न योजनाओं द्वारा शिक्षा के प्रति प्रेरित कर शिक्षा से जोड़ना है। इसकी शुरुआत की भी जा चुकी है परंतु इस लक्ष्य को पाना किसी चुनौती से कम नही। हालांकि साकारात्मक रुप में देखा जाए तो चुनौती को स्वीकार कर लक्ष्य तक पहुंचना भारत की विशेषता रही है उसी प्रकार अगर हमने शिक्षा के इस लक्ष्य को पा लिया तो निसंदेह हर क्षेत्र में विश्वपटल पर हमारा नाम हमेशा आगे रहेगा परंतु इसके लिए शुरुआत निम्न स्तर से करनी होगी। (चरखा फीचर्स)

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