चुनावी मुद्दा बनता कालाधन

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-प्रमोद भार्गव- black money

यह अच्छी बात है कि देश के सोलहवें आम चुनाव में बहुप्रतिक्षित ‘कालेधन की वापसी‘ मुद्दा बन रहा है। अब तक काले धन पर ‘केंद्र में शासित संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार सिर्फ जुबानी भरोसा देती रही है, लेकिन अब कांग्रेस कालेधन का दाग इसे वापस लाने का वादा करके धोने की कोशिश में है। यही वजह है कि पार्टी के चुनावी घोषणा-पत्र में कालेधन पर विशेष दूत की तैनाती का वादा किया गया है। इधर वित्त मंत्री पी. चिदंबरम भी सक्रिय हुए हैं। उन्होंने स्विट्जरलैंड की टालमटूली को देखते हुए इस मुद्दे को अतंराष्ट्रीय मंचों पर उठाने की चुनौती दी है। बावजूद उनकी कड़ाई संदेह भी पैदा करती है, क्योंकि इस मुद्दे पर कांग्रेस ऐन चुनाव के वक्त सख्ती बरतते दिखाई दे रही है, वह भी तब जब विपक्षी दलों ने इसे देशव्यापी मुद्दा बना दिया है। आशंका इसलिए भी है कि सुप्रीम कोर्ट ने कालेधन की जांच के लिए विशेष जांच गठित करने का फैसला लिया था, लेकिन उसी के नेतृत्व वाली मनमोहन सिंह सरकार ने याचिका दायर करके इस कार्यवाही का विरोध किया। हालांकि न्यायालय ने याचिका खारिज करके एसआईटी के गठन का रास्ता खोल दिया है। जाहिर है, आशंकाएं बेबुनियाद नहीं हैं।

सत्ता परिवर्तन की आषंकाएं बदलाव की उम्मीद जगाने का भी काम करती हैं। अन्यथा अब तक कांग्रेस कालेधन की हकीकत को झुठलाने की कोषिष में लगी रही है। अलबत्ता, अब जरूर उसका रूख बदल रहा है। चुनावी घोषणा-पत्र में कालेधन की वापसी का मुद्दा शामिल करके वह इस दिशा में एक कदम आगे बढ़ी है। दूसरी तरफ, वित्त मंत्री चिदंबरम की भी अचानक सक्रियता बढ़ गई है। उन्होंने स्विट्जरलैंड सरकार को पत्र लिखकर वहां के बैंकों में भारतीयों के जमा कालेधन को स्वदेश लाने में मदद करने की अपील की है। माना जा रहा है कि सरकार व कांग्रेस को यह पहल मजबूरी में करनी पड़ी है। दरअसल, भाजपा के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी लगातार चुनावी सभाओं में आक्रामक ढंग से कालेधन का मुद्दा उठा रहे हैं। भाजपा को समर्थन दे रहे बाबा रामदेव भी देशभर में लगाए जा रहे योग शिविरों में कांग्रेसियों के नाम उजागर करने का दम भर रहे हैं। आम आदमी पार्टी के मुखिया अरविंद केजरीवाल तो हरेक सभा में देश के कुछ बड़े उद्योगपतियों की स्विस बैंकों में जमा राशि व उनके खातों का ब्यौरा देते हुंकार भर रहे हैं। दिल्ली की रामलीला मैदान में लोकपाल को लेकर दिए धरने में अन्ना हजारे ने भी कालाधन को वापस लाने का शंखनाद लिया था। लालकृष्ण आडवाणी भी इस मुद्दे को उठा चुके हैं। मई 2011 में केंद्र सरकार कालेधन पर एक ष्वेत-पत्र भी जारी कर चुकी है। लेकिन इस पत्र में न तो कालेधन का कोई आंकड़ा दिया गया था और न ही जमाखोरों के नाम दिए गए थे, लिहाजा इसे कोरा श्वेत-पत्र कहकर संसद में विपक्ष ने नकार दिया था। इस हास्यास्पद स्थिति को कालेधन पर सफेद दाग तक कहा गया था। किंतु अब जरूर लगता है कि कालाधन चुनावी मुद्दा बन गया है और सरकार किसी भी दल या गठबंधन की बने,वह इस मुद्दे से एकाएक मुंह नहीं मोड़ सकती? यही वजह है कि कांग्रेस पार्टी की तरफ से यह दिखाने की कोशिश की जा रही है कि वह भी कालेधन को लेकर गंभीर है।
कांग्रेस की गंभीरता को दस्तावेजी साक्ष्य के रूप पेष करने की दृश्टि से चिदंबरम ने चुनावी गहमागहमी में एक पत्र भी जारी किया है। यह पत्र 13 मार्च 2013 को चिदंबरम ने स्विटजरलैंड के वित्त मंत्री इवेलिन विदमर स्कूम्फ को लिखा था। यही नहीं अक्टूबर 2013 में चिदंबरम ने इलेविन के साथ भेंट का भी ब्यौरा दिया है। इस मुलाकत में स्विस बैंकों में भारतीयों के जमा कालेधन की जानकारी भी मांगी गई थी। लेकिन स्विटजर्लैंड ने बैंकिंग जानकारी देने से साफ इन्कार कर दिया। बहाना लिया कि स्विस संसद में बैंकिंग सूचनाओं को दूसरे देशों को देने का जबरदस्त विरोध हो रहा है। दरअसल, स्विटजरलैंड की पूरी अर्थव्यस्था की बुनियाद ही दुनिया के देशों के जमा कालेध्धन पर टिकी है। यदि यह धन यहां की तिजोरियों में से निकल जाता है,तो इस देश में रोटियों के भी लाले पड़ जाएंगे। लेकिन हैरानी इस बात पर है कि भारत और स्विट्जरलैंड के बीच नया कर समझौता हो चुका है। इसके तहत परस्पर सूचनाओं को साझा करने का प्रावधान है। इन षर्तों के मुताबिक गोपनीयता बनी ही नहीं रह सकती। इसे ही आधार बनाकर 562 बैंक खातों की जानकारी स्विस सरकार से मांगी थी। यही वे संदिगध खाते हैं, जिनके जरिए भारत का अरबों रूपए स्विस बैंकों में जमा है। लेकिन स्विस सरकार ने फरवरी 2014 में एक पत्र लिखकर खातों की जानकारी देने से इनकार कर दिया।
कालेधन के सिलसिले में संयुक्त राष्ट्र ने भी एक संकल्प पारित किया है। जिसका मकसद ही कालेधन की वापसी से जुड़ा है। इस संकल्प पर भारत समेत 140 देशों के हस्ताक्षर हैं। इसके मुताबिक 126 देशों ने तो इसे लागू कर कालाधन वसूलना भी षुरू कर दिया है। इस क्रम में सबसे पहले जर्मनी ने ‘वित्तीय गोपनीय कानून‘ को चुनौती देते हुए अपने देश के जमाखोरों के नाम उजागर करने के लिए स्विस सरकार पर र्प्याप्त दबाव बनाया। फिर इटली,फ्रांस,अमेरिका और ब्रिटेन हावी हो गए। नतीजतन इन देशों को न केवल जमाखोरों के नाम बताए गए,बल्कि ये देश अपना स्वदेश लाने में कामयाब हो गऐ। अमेरिका ने तो 17 हजार खातेधारों की सूची लेकर 78 करोड़ डॉलर कालाधन वसूल लिया। यह विडंबना ही है कि भारत अभी तक जमाखोरों की अधीकृत सूची भी हासिल नहीं कर पाया है।
संयुक्त राष्ट्र जिसने की यह संकल्प पारित कर गोपनीयता कानून भंग करते हुए कालेधन की वापसी का रास्ता खोला है,वह ऐसे कानूनी उपाए क्यों नहीं करता कि कालाधन बैंकों में जमा ही न होने पाए ? संयुक्त राश्ट्र्र पर खासकर यूरोपीय देशों का प्रभुत्व है और विडंबना यह है कि कालाधन जमा करने वाले बैंक भी इन्हीं देशों में हैं। संयुक्त राष्ट्र विश्वस्तरीय ऐसा संगठन है,जो दुनिया के विकासशील व गरीब देशों में व्याप्त गरीबी, अशिक्षा, स्वास्थ्य और तमाम तरह के अभावों की फ्रिक करता है। कोई प्राकृतिक आपदा आने पर रषद व दवाएं देकर बड़े पैमाने पर राहत पहुंचाने का काम भी करता है। संयुक्त राश्ट्र्र चाहे तो दोहरे कराधान की नीति को समाप्त कर सकता है। इस नीति के तहत तमाम देशों की सरकारें कालेधन को कर चोरी का मामला मानती हैं। जबकि यह धन केवल कर चोरी से अर्जित धन नहीं होता, बड़ी तादाद में यह भश्ट्राचार से प्राप्त धन होता है। रक्षा-सौदों में बड़ी मात्रा में यह धन काली कमाई के रूप में उपजता है। इस बाबत पूरी दुनिया में कर चोरी और भ्रश्ट्र कदाचरण से कमाया धन सुरक्षित रखने की भरोसेमंद जगह स्विट्जरलैंड है। बहरहाल कालाधन चुनावी मुद्दा बन गया है। इसे वापिस लाने की जबावदेही अब नई सरकार पर होगी। गोया, ऐसा निकट भविष्य में सभंव होता है तो लोगों को अतिरिक्त कर के बोझ से मुक्ति मिलेगी ? शिक्षा, स्वास्थ्य, कुपोषण और भुखमरी को लेकर देश में जो भयावह हालात हैं, उनसे भी एक हद तक छुटकारा मिलेगा ? साथ ही नई सरकार के अलंबदारों को ऐसे सख्त कानूनी प्रावधानों को भी अमल में भी लाना होगा कि भ्रष्टाचार पर कड़ाई से अंकुश लगे ? यदि ऐसा सभंव होगा तो कालेधन के उत्सर्जन के रास्ते बंद हो जाएंगे और देश का धन देश में ही रहेगा।

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