मध्यप्रदेश में २०१३ की तैयारियों में व्यस्त भारतीय जनता पार्टी जहां कांग्रेस के लचर व कमजोर संगठनात्मक ढाँचे की बदौलत उत्साह से लबरेज आ रही है, वहीं कांग्रेस की वर्तमान हालत किसी से छुपी नहीं है| पूर्व केंद्रीय मंत्री सुरेश पचौरी की बतौर प्रदेश अध्यक्ष कथित विफलताओं के मद्देनज़र आदिवासी नेता कांतिलाल भूरिया को प्रदेश की कमान यह सोचकर सौंपी थी वे अपनी निर्विवाद छवि व प्रदेश के ३३ प्रतिशत से अधिक आदिवासी वोटों की मदद से भाजपा सरकार को प्रदेश से उखाड़ने फैंकने में कामयाब होंगे| हालांकि उनकी प्रदेश अध्यक्ष पद पर नियुक्ति को दिग्विजय सिंह का आशीर्वाद माना गया और कई मौकों पर भूरिया का दिग्गी समर्थकों को उपकृत करना भी इसके संकेत देता रहा पर भूरिया ने अपनी टीम में अधिकांश क्षेत्रीय क्षत्रपों के समर्थकों को स्थान देकर प्रदेश में पार्टी की एकजुटता का संकेत देने की कोशिश की| मगर उनकी यह ईमानदार कोशिश भी परवान चढ़ने से पहले ध्वस्त होती दिखी| ऊपर से भूरिया का खुद मुखर न हो पाना भी प्रदेश में पार्टी को गर्त में ले गया| मैंने स्वयं कई प्रेसवार्ताओं में यह अनुभव किया कि भूरिया से ज्यादा तो दिग्गी के विश्वासपात्र मानक अग्रवाल मोर्चा संभाले दिखलाई देते हैं| एक तो आंकड़ों की उलझन उसपर से भूरिया को भूलने की बीमारी ने कभी यह प्रतीत ही नहीं होने दिया कि वे भारत की सबसे पुरानी पार्टी के ह्रदयप्रदेश के अध्यक्ष हैं| हमेशा बैकफुट पर नज़र आने भूरिया से तो अधिक मुखर पूर्व मुख्यमंत्री स्व. अर्जुन सिंह के पुत्र और विधानसभा में नेताप्रतिपक्ष अजय सिंह दिखे| चूँकि भूरिया आदिवासी वर्ग का प्रतिनिधित्व करते हैं तो यह स्वाभाविक था कि आलाकमान की उनसे अपेक्षा रहती कि वे नगरीय निकाय चुनाव में आदिवासी गढों को जीतकर दिखाएँ, किन्तु मई में हुए इन चुनावों में भूरिया की रही सही इज्जत मिट्टी में मिला दी| ताज़ा घटनाक्रम में विधानसभा के मानसून सत्र में विधायक बर्खास्दगी कांड व पुनः बहाली में भूरिया की पार्टी पर कमजोर पकड़ दिखाई दी| उसपर भी दोनों निलंबित व पुनः बहाल हुए विधायकों, चौधरी राकेश सिंह चतुर्वेदी व कल्पना परुलेकर ने पार्टी आलाकमान के सामने उनके कमजोर नेतृत्व व संगठन में घुन कर चुकी खेमेबाजी को उजागर कर उनकी प्रदेश अध्यक्षी पर सवालिया निशान लगा दिए हैं| विश्वस्त सूत्रों की माने तो १० जनपथ भूरिया के प्रदेश में विकल्प के बारे में गंभीरता से चिंतन-मनन कर रहा है|
अब सवाल उठता है कि यदि भूरिया को प्रदेश से निकाला देकर वापस केंद्र की राजनीति में स्थापित किया तो प्रदेश की कमान किसके हाथों में होगी? क्या दिग्विजय सिंह पुनः प्रदेश में कांग्रेस के खेवनहार बनेंगे? इसकी संभावना हालांकि कम ही है| चूँकि दिग्गी के १० वर्षों के अंधकारमय कार्यकाल को प्रदेश की जनता भूली नहीं है और कहीं न कहीं उसकी टीस अभी बाकी है अतः पार्टी आलाकमान उन्हें यह जिम्मेदारी सौंपने से पहले सौ दफा सोचेगी| तो क्या कमलनाथ| इसकी भी आशंका काफी कम है क्योंकि कमलनाथ का मन प्रदेश में कम दिल्ली से अधिक रमता है| जहां तक सुरेश पचौरी के नेतृत्व की बात है तो यह भी असंभव नज़र आती है| अव्वल तो उनका खराब स्वास्थ्य ऊपर से उनकी पहली पारी में उनपर ब्राम्हणवाद के आरोप शायद ही उनकी प्रदेश में वापसी करवाएं| हाल ही में प्रदेश से राज्यसभा सांसद बने सत्यव्रत चतुर्वेदी की भी प्रदेश की कमान संभालने में कोई दिलचस्पी नहीं है| अल्पसंख्यक चेहरे की बात करें तो फिलहाल प्रदेश में कोई ऐसा चेहरा नहीं दिखता जो कांग्रेस की सेक्यूलर राजनीति को आगे बढ़ाए| ऐसे में नज़र ग्वालियर-चम्बल संभाग के एकमात्र कांग्रेसी क्षत्रप ज्योतिरादित्य सिंधिया पर जाकर ठहरती है| हालांकि उनकी रुचि भी प्रदेश में कम ही है लेकिन विगत दो-तीन माह से उनकी प्रदेश में जिस प्रकार सक्रियता बढ़ी है उससे यह अनुमान लगाए जा रहे हैं कि २०१३ के विधानसभा चुनाव हेतु सिंधिया कांग्रेस के ट्रंप कार्ड साबित हो सकते हैं| युवा होने के अतिरिक्त उनका मुखर होना व निर्विवाद छवि उनको भाजपा के शिव मामा के मुकाबले मजबूती से खड़ा कर सकती है| बची खुची कसर उनके दिवंगत पिता की जननायक छवि पूरी कर देगी| यह मैं नहीं कह रहा अलबत्ता ऐसी राय कई कांग्रेसियों की है जो हाशिये पर पड़े हैं और सच में पार्टी का भला चाहते हैं| हालांकि इसकी संभावना भी है कि सिंधिया को भी प्रदेश में उन्हीं मुश्किलों से दो-चार होना पड़ेगा जिनसे पूरवर्ती सेनाध्यक्ष पीड़ित रहे हैं, मगर उनकी पार्टी को गर्त से निकाल सकने की क्षमता पार्टी को एकसूत्र में बाँधने का माद्दा रखती है|
हालांकि सिंधिया की प्रदेश में सक्रियता को लेकर कोई मुंह खोलने को तैयार नहीं है पर उनकी लगातार बढ़ती सक्रियता को यूँही नकारा भी नहीं जा सकता| इसी माह मध्यप्रदेश क्रिकेट एसोसिएशन के चुनाव होना है और प्रदेश के ताकतवर कबीना मंत्री कैलाश विजयवर्गीय उन्हें कड़ी चुनौती पेश करते नज़र आ रहे हैं| पिछले वर्ष भी कैलाश विजयवर्गीय ने सिंधिया को सड़क पर उतरने हेतु मजबूर किया था और मात्र ७० वोटों से हुई हार को भी जीत की तरह प्रचारित किया गया था| इस बार तो मामला और भी पेचीदा नज़र आ रहा है| कहा जा रहा है कि विजयवर्गीय ने अपने प्रभाव का इस्तेमाल करते हुए इंदौर के रजिस्ट्रार ऑफिस से सिंधिया समेत २० अन्य पदाधिकारियों को वोट डालने के अधिकार से वंचित करवा दिया है लिहाजा सिंधिया गुट हाशिये पर है| सिंधिया किसी भी हाल में मध्यप्रदेश क्रिकेट एसोसिएशन पर अपना आधिपत्य नहीं छोड़ना चाहेंगे और विजयवर्गीय सिंधिया को हराकर प्रदेश में नए समीकरणों को जन्म देने की पटकथा लिखने की कोशिश करेंगे| सिंधिया की प्रदेश में पार्टी को संभालने और उसकी दशा-दिशा मुकम्मल करने की मुहिम का भविष्य काफी हद तक इस चुनाव परिणाम पर भी निर्भर करेगा| वैसे देखा जाए तो सिंधिया की प्रदेश में बढ़ती सक्रियता ने प्रदेश भाजपा के कान खड़े कर दिए हैं| यह कहने में कोई गुरेज नहीं होना चाहिए कि मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान की लोकप्रियता के आगे सिंधिया एक्कीसे ही साबित होते हैं| मैंने भाजपा के कई कार्यकर्ताओं से बात की तो उनका भी कहना था कि सिंधिया की धमक से भाजपा खेमे में हलचल तो है ही और यदि सिंधिया सच में प्रदेश की कमान संभालने आते हैं या २०१३ में उनका सीधा मुकाबला शिवराज सिंह चौहान से होता है तो भाजपा को अपनी रणनीति बदलने पर मजबूर होना ही पड़ेगा| हाल ही में प्रदेश के दो दिग्गजों के यहाँ पड़े छापों से मुख्यमंत्री पर ऊँगली उठी थी वहीं विधायक बर्खास्दगी कांड में भी मुख्यमंत्री की कमजोर छवि उभरकर सामने आई थी| सिंधिया के प्रदेश आगमन से मुख्यमंत्री की अन्य कमजोरियां भी उजागर होंगी और आरोप-प्रत्यारोप व छीछालेदार की राजनीति से प्रदेश को छुटकारा मिलेगा| प्रदेश में न सिर्फ ग्वालियर-चम्बल संभाग वरन मालवांचल, विन्ध्य प्रदेश, मध्य क्षेत्र इत्यादि क्षेत्रों में भी सिंधिया को करिश्माई नेता माना जाता है और उनके समर्थकों की बड़ी संख्या भी उनकी ताकत को साबित करती है| लिहाजा यह कहा जा सकता है कि सिंधिया ही वर्तमान में ऐसे करिश्माई नेता हैं जो प्रदेश में मृतप्राय कांग्रेस को संजीवनी दे सकते हैं|