चिकित्सकों का वाजिब विरोध

प्रमोद भार्गव

चंद जायज मांगे लेकर देशभर के चिकित्सकों ने एक पखवाड़े के भीतर सांकेतिक धरने – प्रदर्शन किए हैं। राष्‍ट्रीय फलक पर चिकित्सक उन दो नए कानूनों में संशोधन प्रस्ताव की मांग लेकर आए, जो चिकित्सा क्षेत्र से जुड़े हैं और जिनमें चिकित्सक को भी एक नागरिक मानते हुए संशोधन किया जाना वाजिब है। मध्यप्रदेश में चिकित्सक उन वेतन विसंगतियों को लेकर विरोध कर रहे हैं, जिन्हें पाने का उन्हें जायज हक है, लेकिन प्रशासनिक अमला हठधर्मिता का परिचय देते हुए लगातार चिकित्सकों के अधिकार – हनन में अपमानित करने की हद तक लगा है।

अधिग्रहण प्रवत्ति के सनातन आदि हमारे भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारियों ने हिन्दी शब्दकोश से एक शब्द अधिकृत किया हुआ है, ‘संवेदनशीलता’। इस शब्द का हथियार के रुप में इस्तेमाल कर आईएएस सबसे ज्यादा हमला शिक्षा और चिकित्सा क्षेत्र में बोल रहे हैं। जबकि जो राजस्व विभाग सीधे उनके मातहत है और जिसकी कार्य प्रणाली उन्हीं के दिशा-निर्देश पर क्रियान्वित होती है, उन राजस्व न्यायालयों की चैखटों पर राजस्व दस्तावेजों में पटवारी व राजस्व निरीक्षकों द्वारा जानबूझकर की गई गड़बडि़यों के कारण तमाम किसान और ग्रामीण जहर खाकर दम तोड़ रहे हैं, बावजूद इनकी संवेदनशीलता कमोबेश कुंद ही रहती है। संवेदनशील मर्म की यह कौनसी कसौटी है ?

हमारे यहां आईएएस नौकरशाहों का शिकंजा इतना मजबूत है कि चाहे कानून हो अथवा परियोजना उसको अपनी इच्छानुसार ढालने का काम यही तबका करता है। और इस तरह से इन्हें ढालता है, कि आईएएस के साथ सभी राजस्व अधिकारियों के हित तो सुरक्षित रहें ही, अन्य विभागों का अमला भी उनके अधिकार क्षेत्र में बना रहे। यही कारण है कि पूरे क्षेत्र में जितनी भी शिक्षा, स्वास्थ्य, पेयजल और ग्रामीण विकास व रोजगार से जुड़ी योजनाएं क्रियान्वित हैं उनमें सीधा दखल जिला कलेक्टर व एसडीएम का रहता है। केवल इसी वजह से योजनाओं पर हकीकत में कम, कागजों में ज्यादा अमल हो रहा है। और ये भ्रष्टाचार की गिरफ्त में आकर दम तोड़ रही हैं।

चिकित्सकों से जुड़े जो दो नए कानून वजूद में आए हैं, उनमें किस तरह चिकित्सकों के पक्ष को दरकिनार किया गया है, इसकी बानगियां देखिए। ये कानून यशपाल समिति की रिपोर्ट में दर्ज एकपक्षीय सिफारिशों के आधार पर बनाए गए हैं। पहला कानून है, चिकित्सालय स्थापना अधिनियम-2010 और दूसरा है, राष्टीय मानव संसाधन और स्वास्थ्य ;एनसीएचआरएचद्ध विधेयक – 2011 इन्हें बाकायदा लोकसभा से भी पारित करा लिया गया। लेकिन नौकरशाहों की मनमानी के चलते इन दोनों विधेयकों में उन चिकित्सकों के महत्व को पूरी तरह हाशिए पर डाल दिया गया, जिनके दारोमदार पर न केवल पूरे देश की स्वास्थ्य सेवाएं टिकी हैं, बल्कि स्वास्थ्य संबंधी राष्टीय परियोजनाएं उन्हीं के दायित्व निर्वहन पर अवलंबित हैं। लेकिन संपूर्ण चिकित्सा क्षेत्र को शासन-प्रशासन इसलिए अपनी पकड़ में रखना चाहते हैं, जिससे उनके और उन बहुराष्टीय दवा कंपनियों के हित सधते रहे, जिनके उत्पादों को वे देश के सरकारी अस्पतालों में खपाना चाहते हैं। बर्ड फ्लू का जब हौवा हमारे यहां चला था, तब केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री गुलाम नबी आजाद ने देश के प्रत्येक जिले के लिए 10-10 हजार रुपये की बर्ड फ्लू की दवाएं खरीदी थीं। जबकि आईएमए के पूर्व अध्यक्ष डाॅ अजय कुमार चिल्ला-चिल्लाकर कह रहे थे कि बर्ड फ्लू अरबो-खरबों का घोटाला है। कुछ जगहों के अलावा यह कहीं नहीं है। चिकन या अण्डे को 70 डिग्री सेल्सियस पर गरम करने से बर्ड फ्लू के वायरस मर जाते हैं। किंतु यह बड़ी मात्रा में भारत द्वारा अमेरिकी दवा कंपनियों से फिजुल की दवाएं खरीदने की साजिश थी, इसलिए सरकार खामोश रही।

नए कानूनों में प्रावधान है कि चिकित्सक यदि चिकित्सक का पेशा अपनाता है तो वह न तो अन्य कोई व्यवसाय कर सकता है और न ही अन्य किसी कारोबार में भागीदारी कर सकता है। सेवा निवृत्ति तक पेशा नहीं बदलने की बाध्यकारी शर्त भी चिकित्सकों पर थोपी गई है। क्या ऐसी बाध्यकारी शर्तें अन्य किसी नौकरी में हैं ? नए कानूनों के प्रावधानों के अनुसार केंद्र सरकार एक राष्टीय स्वास्थ्य परिषद् का गठन करेगी। इस परिषद् के किसी भी निर्णय के विरुद्ध चिकित्सक न्यायालय में नहीं जा सकता। मसलन चिकित्सकों को सूली पर लटकाने का हिटलरी फरमान परिषद् जारी करने की निरंकुशता अपनाने के लिए स्वतंत्र है। क्या न्याय की मांग करना संविधान प्रदत्त मौलिक अधिकारों का हनन नहीं हैं ? नागरिक अधिकारों का उल्लघंन करने वाले ऐसे कानूनी प्रावधानों के खिलाफ यदि इंडियन मेडिकल ऐसोसिएशन ने 25 जून 12 को सांकेतिक हड़ताल की तो इसमें चिकित्सक गलत कहां है ?

मध्यप्रदेश के चिकित्सक वेतन विसंगति और बढ़े वेतन की वसूली को लेकर प्रतीकात्मक हड़ताल पर हैं। सामूहिक इस्तीफे भी प्रदेश के चिकित्सकों ने मध्यप्रदेश चिकित्सा अधिकारी संघ को सौंप दिए हैं। यहां गौरतलब है कि लंबी जद्दोजहद के बाद प्रदेश के चिकित्सकों को इसी शिवराज सिंह चैहान सरकार के कार्यकाल में चार स्तरीय वेतनमान 26 अगस्त 08 को मंजूर किए गए थे। इस आदेश के अनुसार दूसरे एवं तीसरे स्तर के वेतनमान सभी चिकित्सकों को और चार स्तरीय वेतनमान 2 फीसदी चिकित्सकों को दिया जाना स्वीकार किया गया था। इस आदेश के पालन में 23 मई 09 से चिकित्सकों को लाभ मिलना शुरु हो गया। लेकिन तीन साल बाद 30 मई 12 को शासन ने इस आदेश को न केवल खारिज कर दिया बल्कि इस दौरान मिले अतिरिक्त वेतन वसूली के आदेश भी जारी कर दिए। यह आदेश किसी चूक को सुधारने की बजाय प्रशासनिक अधिकारियों की लालफीताशाही मनोवृत्ति का परिणाम है। मुख्यमंत्री भी आईएएस लॉबी के इशारे पर वसूली के आदेश को निरस्त करने का भरोसा बार-बार जताने के बावजूद टाल रहे हैं। यदि वाकई शिवराज सिंह सरकार जरा भी संवेदनशील है तो उसे सोचना चाहिए कि प्रदेश में 7000 चिकित्सकों की जरुरत के विरुद्ध केवल 3200 चिकित्सक सरकारी अस्पतालों में तमाम दबावों के बीच आम आदमी के उपचार में डटे हैं, उनकी जायज मांगों का निपटारा तुरंत क्यों नहीं करती ? यह स्थिति सरकारी शिक्षा व्यवस्था को चैपट करने की तरह कहीं सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं को भी बरबाद करने की साजिश तो नहीं ? जिससे केवल निजी स्वास्थ्य सेवाएं फले-फूलें और चिकित्सक सरकारी अस्पताल में नौकरी करे ही नहीं।

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