मैगी प्रकरण के बहानेः पर्यावरणीय प्रश्न

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-अरुण तिवारी-

maggiमैगी नूडल्स में सीसा यानी लैड की अधिक मात्रा को लेकर उठा बवाल, बाजार का खेल है या स्थिति सचमुच, इतनी खतरनाक है ? इस प्रश्न का उत्तर तो चल रही जांच और बाजार में नूडल्स के नये ब्रांड आने के बाद ही पता चलेगा। फिलहाल, मांग हो रही है कि इस जांच का विस्तार सभी प्रसंस्करित खाद्य पदार्थों को लेकर हो। जांच, कार्रवाई और उसे सार्वजनिक करने की नियमित प्रक्रिया बने। यह सब ठीक है; यह हो। किंतु यहां उठाने लायक व्यापक चित्र भिन्न है।

इधर सख्ती, उधर सुस्ती

मूल चित्र यह है कि सीसे की अधिक मात्रा में उपस्थिति चाहे मैगी नूडल्स में हो अथवा हवा, पानी और मिट्टी में; सेहत के लिए नुकसानदेह तो वह सभी जगह है। जिस तरह किसी खाद्य पदार्थ के दूषित होने के कारण हम बीमार पड़ते अथवा मरते हैं, उसी तरह मिलावटी/असंतुलित रासायनिकी वाली मिट्टी, हवा और पानी के कारण भी हम मर और बीमार पड़ ही रहे हैं। प्रश्न यह है कि मिट्टी, हवा और पानी में मिलावट तथा रासायनिक असंतुलन के दोषियों को लेकर हमारी निगाह, कायदे और सजा उतनी सख्त क्यों नहीं है ? खाद्य पदार्थ की तरह मिट्टी, हवा, पानी का रासायनिक अथवा जैविक असंतुलन बिगाड़ने वालों को लेकर बिना किसी की अनुमति, सीधे-सीधे हत्या अथवा हत्या की कोशिश की धाराओं में प्राथमिक सूचना रिपोर्ट दर्ज क्यों नहीं कराई जा सकती ? क्या ऐसी सख्ती के बगैर, पर्यावरण के प्रदूषकों को नियंत्रित करना संभव है ? क्या यह सच नहीं कि प्रदूषकों को सजा में ढिलाई भी क्या एक ऐसा कारण नहीं है, जिसकी वजह से हमारे विकासकर्ता, पर्यावरण की परवाह नहीं कर रहे ?

 

लक्ष्मण रेखा के प्रश्न

ये सभी प्रश्न इसलिए हैं; ताकि हम अपने भौतिक विकास के नाम पर हो रहे अति दोहन और असंतुलन को समझदारी के साथ लक्ष्मण रेखा में ला सकें। हम समझ सकें कि विकास और पर्यावरण, एक-दूसरे के पूरक होकर ही आगे बढ सकते हैं। यह सच है। यह सच, पर्यावरण और विकास को एक-दूसरे की परवाह करने वाले तंत्र के रूप में चिन्हित करता है। किंतु दुर्भाग्यपूर्ण है कि पर्यावरण और विकास की चाहत रखने वालों ने आज एक-दूसरे को परस्पर विरोधी मान लिया है। भारत के इंटेलीजेंस ब्यूरो ने ऐसे कई संगठनों को विकास में अवरोध उत्पन्न करने के दोषी के रूप में चिन्हित किया है। हाल ही में अपने खातों को ठीक-ठाक न रख पाने के कारण विदेशी धन लेने वाले करीब 9000 संगठनों के लाइसेंस रद्द करने की सरकारी कार्रवाई को भी इसी आइने में देखा जा रहा है। दूसरी ओर, पर्यावरण के मोर्चे पर चुनौतियां ही चुनौतियां हैं। जिनका जवाब बनने की कोशिश कम, सवाल उठाने की कोशिशें ज्यादा हो रही हैं। ऐसा क्यों ? जवाब बनने की कोशिशें भी इलाज के रुप में ही ज्यादा सामने आ रही हैं। बीमारी हो ही न, इसके रोकथाम को प्राथमिकता बनाने का चलन कम नजर आ रहा है। हम समझ रहे हैं कि विकास के जिस रास्ते पर चलने के कारण पर्यावरणीय संकट गहरा गया है, पर्यावरणीय संकट पलटकर उस विकास को ही बौना बना रहा है। जानते, समझते और झेलते हुए भी हम चेत नहीं रहे। ऐसा क्यों ? पर्यावरणीय चुनौतियों के मोर्चे पर समाधान के मूल प्रश्न यही हैं।

 

संकट में पर्यावास

सब जानते हैं कि बढ़ता तापमान और बढता कचरा, पर्यावरण ही नहीं, विकास के हर पहलू की सबसे बड़ी चुनौती है। वैज्ञानिक आकलन है कि जैसे-जैसे तापमान बढ़ेगा, तो बर्फ पिघलने की रफ्तार बढ़ती जायेगी। समुद्रों का जलस्तर बढेगा। नतीजे में कुछ छोटे देश व टापू डूब जायेंगे। समुद्र किनारे की कृषि भूमि कम होगी। लवणता बढ़ेगी। समुद्री किनारों पर पेयजल का संकट गहरायेगा। समुद्री खाद्य उत्पादन के रूप में उपलब्ध जीव कम होंगे। वातावरण में मौजूद जल की मात्रा में परिवर्तन होगा। परिणामस्वरूप, मौसम में और परिवर्तन होंगे। बदलता मौसम तूफान, सूखा और बाढ लायेगा। हेमंत और बसंत ऋतु गायब हो जायेंगी। इससे मध्य एशिया के कुछ इलाकों में खाद्यान्न उत्पादन बढ़ेगा। किंतु दक्षिण एशिया में घटेगा। नहीं चेते, तो खाद्यान्न के मामले में स्वावलंबी भारत जैसे देश में भी खाद्यान्न आयात की स्थिति बनेगी। पानी का संकट बढ़ेगा। जहां बाढ़ और सुखाड़ कभी नहीं आते थे, वे नये ’सूखा क्षेत्र’ और ’बाढ़ क्षेत्र’ के रूप में चिन्हित होंगे। जाहिर है कि इन सभी कारणों से मंहगाई बढेगी। दूसरी ओर मौसमी परिवर्तन के कारण पौधों और जीवों के स्वभाव में परिवर्तन आयेगा। पंछी समय से पूर्व अंडे देने लगेंगे। ठंडी प्रकृति वाले पंछी अपना ठिकाना बदलने को मजबूर होंगे। इससे उनके मूल स्थान पर उनका भोजन रहे जीवों की संख्या एकाएक बढ़ जायेगी। कई प्रजातियां लुप्त हो जायेंगे। मनुष्य भी लू, हैजा, जापानी बुखार जैसी बीमारियों और महामारियों का शिकार बनेगा। ये आकलन, जलवायु परिवर्तन पर गठित अंतर-सरकारी पैनल के हैं।

 

जिम्मेदार कौन ?

पर्यावरण कार्यकर्ता और अन्य आकलन भी इस सभी के लिए इंसान की अतिवादी गतिविधियों को जिम्मेदार मानते हैं। तापमान में बढ़ोत्तरी का 90 प्रतिशत जिम्मेदार तो अकेले ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन को ही माना गया है। मूल कारण है, अतिवादी उपभोग। सारी दुनिया, यदि अमेरिकी लोगों जैसी जीवन शैली जीने लग जाये, तो 3.9 अतिरिक्त पृथ्वी के बगैर हमारा गुजारा चलने वाला नहीं। अमेरिका, दुनिया का नबंर एक प्रदूषक है, तो चीन नंबर दो। चेतावनी साफ है; फिर भी भारत, उपभोगवादी चीन और अमेरिका जैसा बनना चाहता है। क्या यह ठीक है ? जवाब के लिए अमेरिका विकास और पर्यावरण के जरिए आइये समझ लें कि विकास, समग्र अच्छा होता या सिर्फ भौतिक और आर्थिक ?

 

अमेरिकी विकास और पर्यावरण

संयुक्त राज्य अमेरिका में दुनिया की पांच प्रतिशत आबादी रहती है। किंतु प्रदूषण मे उसकी हिस्सेदारी 25 प्रतिशत है। कारण कि वहां 30 करोड़ की आबादी के पास 25 करोड़ कारें हैं। बहुमत के पास पैसा है, इसलिए ’यूज एण्ड थ्रो’ की प्रवृति भी है। उपभोग ज्यादा हैं, तो कचरा भी ज्यादा है और संसाधन की खपत भी। एक ओर ताजे पानी का बढ़ता खर्च, घटते जल स्त्रोत और दूसरी तरफ किसान, उद्योग और शहर के बीच खपत व बंटवारे के बढ़ते विवाद। बड़ी आबादी उपभोग की अति कर रही है, तो करीब एक करोड़ अमेरिकी जीवन की न्यूनतम जरूरतों के लिए संघर्ष कर रहे हैं। विषमता का यह विष, सामाजिक विन्यास बिगाड़ रहा है। हम इससे सीखकर सतर्क हों या प्रेरित हों ? सोचिए!

 

यह खोना है कि पाना ?

आर्थिक विकास की असलियत बताते अन्य आंकड़े यह हैं कि प्रदूषित हवा की वजह से यूरोपीय देशों ने एक ही वर्ष में 1.6 ट्रिलियन डाॅलर और 6 लाख जीवन खो दिए। एक अन्य आंकड़ा है कि वर्ष-2013 में प्राकृतिक आपदा की वजह से दुनिया ने 192 बिलियन डाॅलर खो दिए। दुखद है कि दुनिया में 7400 लाख लोगों को वह पानी मुहैया नहीं, जिसे किसी भी मुल्क के मानक पीने योग्य मानते हैं। दुनिया में 40 प्रतिशत मौत पानी, मिट्टी और हवा में बढ़ आये प्रदूषण की वजह से हो रही हैं। हमें होने वाली 80 प्रतिशत बीमारियों की मूल वजह पानी का प्रदूषण, कमी या अधिकता ही बताया जा रहा है। कहा जा रहा है कि दिल्ली की हवा में बीजिंग से ज्यादा कचरा है। भारत की नदियों में कचरा है। अब यह कचरा मिट्टी मंे भी उतर रहा है। भारत, भूजल में आर्सेनिक, नाइट्रेट, फ्लोराइड तथा भारी धातु वाली अशुद्धियों की तेजी से बढोत्तरी वाला देश बन गया है। विकास को हमारा तौर-तरीका कचरा बढा रहा है और प्राकृतिक संसाधन को बेहिसाब खा रहा है।

..तो हम क्या करें ? क्या आदिम युग का जीवन जीयें ? क्या गरीब के गरीब ही बने रहें ? आप यह प्रश्न कर सकते हैं। ढांचागत और आर्थिक विकास के पक्षधर भी यही प्रश्न कर रहे हैं।

 

भारत क्या करें ?

जवाब है कि भारत सबसे पहले अपने से प्रश्न करें कि यह खोना है कि पाना ? भारत, सभी के शुभ के लिए लाभ कमाने की अपनी महाजनी परंपरा को याद करे। हर समस्या में समाधान स्वतः निहित होता है। इस स्पष्टता के बावजूद हम न तो पानी के उपयोग में अनुशासन तथा पुर्नोपयोग व कचरा प्रबंधन में दक्षता ला पा रहे हैं और नहीं ऊर्जा के। यह कैसे हो ? सोचें और करें। नैतिक और कानूनी.. दोनो स्तर पर यह सुनिश्चित करें कि जो उद्योग जितना पानी खर्च करे, वह उसी क्षेत्र में कम से कम उतने पानी के संचयन का इंतजाम करे। प्राकृतिक संसाधन के दोहन कचरे के निष्पादन, शोधन और पुर्नोपयोग को लेकर उद्योगों को अपनी क्षमता और ईमानदारी, व्यवहार में दिखानी होगी। सरकार को भी चाहिए कि वह पानी-पर्यावरण की चिंता करने वाले कार्यकर्ताओं को विकास विरोधी बताने की बजाय, समझे कि पानी बचेगा, तो ही उद्योग बचेंगे; वरना् किया गया निवेश भी जायेगा और भारत का औद्योगिक स्वावलंबन भी।

सोच बदलें

नियमन के मोर्चे पर जरूरत परियोजनाओं से होने वाले मुनाफे में स्थानीय समुदाय की हिस्सेदारी के प्रावधान करने से ज्यादा, प्राकृतिक संसाधनों का शोषण रोकने की है। भारतीय प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी जी ने अमेरिकी राष्ट्रपति के साथ अपनी बातचीत में प्रकृति से साथ रिश्ते की भारतीय संस्कृति का संदर्भ पेश करते हुए प्राकृतिक संसाधनों का बेलगाम दोहन रोकने की अपनी प्रतिबद्धता दोहराई है। जरूरी है कि यह प्रतिबद्धता, जमीन पर उतरे। बैराज, नदी जोड़, जलमार्ग, जलविद्युत, भूमि विकास, नगर विकास, खनन, उद्योग आदि के बारे में निर्णय लेते वक्त विश्लेषण हो कि इनसे किसे कितना रोजगार मिलेगा, कितना छिनेगा ? किसे, कितना मुनाफा होगा और किसका, कितना मुनाफा छिन जायेगा ? जीडीपी को आर्थिक विकास का सबसे अच्छा संकेतक मानने से पहले सोचना ही होगा कि जिन वर्षों में भारत में जीडीपी सर्वोच्च रही, उन्ही वर्षों में किसानों की आत्महत्याओं के आंकड़े सर्वोच्च क्यों रहें ?

पर्यावरण को लेकर बढ़ते विवाद, बढ़ती राजनीति, बढ़ता बाजार, बढ़ते बीमार, बढ़ती प्यास और घटती उपलब्धता को देखते हुए यह नकारा नहीं जा सकता कि पर्यावरण, विकास को प्रभावित करने वाला सर्वाधिक महत्वपूर्ण तत्व है। प्राकृतिक संसाधनों की उपलब्धता जितनी घटती जायेगी, विकास के सभी पैमाने हासिल करने की चीख-पुकार उतनी बढ़ती जायेगी। अतः प्राकृतिक संसाधनों की उपलब्धता और शुचिता बढाने की प्राथमिकता है ही। विकास, उपभोग और पर्यावरण के बीच संतुलन साधकर ही यह संभव है। संतुलन बिगाड़ने वालों को लक्ष्मण रेखा में लाकर ही हो सकता है। मैगी नूडल्स में सीसे का संदेश यही है और पर्यावरण दिवस का भी।

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