मगहर की दिव्यता एवं अलौकिकता

magharडा.राधेश्याम द्विवेदी

 

उत्तर प्रदेश  के बस्ती एवं गोरखपुर का सरयूपारी क्षेत्र महात्माओं, सिद्ध सन्तों, मयार्दा पुरूषोत्तम भगवान राम तथा भगवान बुद्ध के जन्म व कर्म स्थलों, महर्षि श्रृंगी , वशिष्ठ, कपिल,कनक, क्रकुन्छन्द, कबीर तथा तुलसी जैसे महान सन्तों-गुरूओं के आश्रमों से युक्त है। गोरखपुर से लगभग 30 किमी. पश्चिम, बस्ती से 43 किमी. पूर्व पहले गोरखपुर, फिर बस्ती तथा अब सन्तकबीरनगर जिले में आमी नदी के तट पर मगहर नामक एक दिव्य एवं अलौकिक कस्बा अवस्थित है। इसके नाम के  बारे में अलग अलग तरह की भ्रान्तियां एवं किवदन्तियां प्रचलित है। मेरे विचार से भाशाशास्त्र  के शब्द व्युत्पत्ति को देखते हुए ’’मामा का घर’’  को  मगहर के रूप में जाना जा सकता है । यह किस मामा से संवंधित है। यह शोध एवं खोज का विषय हो सकता है। यह भी हो सकता है कि भगवान बुद्ध या अन्य किसी इतिहास पुरुष के ननिहाल या मामा का घर इस क्षेत्र में होने के कारण इसको पहले मामा का घर और बाद में मगहर कहा जाने लगा हो।

कहा जाता है कि ईसा पूर्व छठी शता. में इसी मार्ग से बौद्ध भिक्षु कपिलवस्तु लुम्बनी तथा श्रावस्ती आदि पवित्र स्थलों को दर्षन हेतु जाते थे । चोर डाकुओं द्वारा इस सूनसान स्थान पर लोगों को लूट लिया जाता था। इस असुरक्षित स्थल को ’मार्ग हर’ कहा जाता था। बाद में यही मगहर कहा जाने लगा। एक अन्य अनुश्रूति में कहा गया है कि कभी मगध का राजा अजातशत्रु यहां बीमार होने पर विश्राम किया था। इस घटना के घटित होने  के कारण इसे मगधहर फिर मगहहर और बाद में मगहर कहा जाने लगा। कबीरपंथियों ने इस स्थान की अलग ही व्याख्या की है जो सर्वाधिक सार्थक प्रतीत होता है। ’मगहर’ मार्ग हर शब्द से बना है जिसका अर्थ ’ज्ञान का रास्ता’ होता है।

1394 ई. में जौनपुर के वजीर के रूप में मलिक सरकार ख्वाजाजहां अपना स्वतंत्र प्रभार संभाला था। ख्वाजाजहां बाद में विद्रोही जमींदारो को पराजित कर दिया तथा अपना अधिकार कन्नौज से विहार तक स्थापित कर लिया था। बस्ती और समीपवर्ती जनपद ख्वाजाजहां के उत्तराधिकारियों के अधीन स्वतंत्र रूप से 1479 ई.में आया था  उसने जौनपुर में अपनी राजधानी बनाया था। उस समय संघीय शासन बहलोल लोदी द्वारा दिल्ली से शासित होता था। बहलोल लोदी ने अपने भतीजे काला पहार फारमूली को सरयूपार क्षेत्र की वागडोर देते हुए एक दूसरी राजधानी बहराइच में बनवाया था। बस्ती के आस पास का क्षेत्र इस समय बहराइच से नियंत्रित होने लगा था।

उसी समय महात्मा कबीर की प्रसिद्धि एक कवि एवं दार्शनिक के रूप में होने लगी थी । यह कहा जाता है कि हिन्दू और मुसलमान कबीर की शिक्षाओं का खंडन नहीं किये ,जो ईश्वर की एक सत्ता में विश्वास करते हैं । इस प्रकार  वे कबीर को एक प्रमुख संत के रूप में मानने लगे। कुछ मुल्ला और पंडित सुल्तान सिकन्दर लोदी के पास गये और इस क्षेत्र को अपने में मिलाने को कहा। वह उस पूर्वी क्षेत्र को 1494 ई. में अपने अधीन किया। सुल्तान ने कबीर को अपने सामने बुलवाया परन्तु उन्हें दण्ड देने के लिए कोई आधार नहीं पाया। किसी प्रकार की गलतफहमी को नजरन्दाज करने के लिए सुल्तान ने महात्मा कबीर को वाराणसी से मगहर भेज दिया था।

कबीर के समय काशी विद्या और धर्म साधना का बहुत बड़ा केन्द्र था। वह वस्त्र कर्मियों, व्यवसायियों तथा जुलाहों का भी केन्द्र था। देश  के हर भाग के लोग वहां आते थे। उनके अनुरोध पर कबीर को बाहर जाना पड़ता था। मगहर के बारे में यह अंध विश्वास था कि यह भूमि अभिशप्त है। यहां किसी को मुक्ति नहीं मिलती है। इसे नरक का द्वार भी कहा जाता था। यहां मरने वाला गधा होता है। ऐसी लोक मान्यता थी सारे भारत को मुक्ति देने वाली नगरी काशी में अपनी जिन्दगी के अधिकांश समय को विताने के बाद मरने के तीन साल पहले कबीरदासजी ने वह यह कहते हुए काशी छोड़ दिया था –

लोकामति के भोरा रे, जो काशी तन तजै कबीरा , तो रामहिं कौन निहोरा रे।

उन दिनों मगहर में भीषण अकाल पड़ा हुआ था । ऊसर एवं पथरीली सूखी जमीन हो गई थी  ,पानी का कोई नामोंनिशान तक नहीं था। सारी जनता में त्राहि त्राहि मची थी। तब खलीलाबाद के शासक फिदाई खान ने कबीर को मगहर चलकर दुखियों का कष्ट दूर करने का आग्रह किया था। बृद्ध तथा कमजोर होने के बावजूद कबीर साहब वहां आने को तैयार हो गये थे । उनके शिष्यों एवं अनुयायियों के मना करने पर भी वह नहीं माने। उनके कोई्र व्यास मित्र ने उन्हें यह भी डरवाया कि मगहर मरने से मुिक्त नहीं होती है। सबकी प्रार्थनाओं को दरकिनार करते हुए मगहर जाकर उन्होने वहां के लगे कलंक को मिटाकर दिखाया। उन्होंने पुरानी मान्यताओं को नजरन्दाज करते हुए कर्म और आचरणपर बल देते हुए वह काशी से मगहर को प्रस्थान किया था। यहीं उन्होने अपनी बाकी जिन्दगी गुजारी थी। उनकी पूरी जिन्दगी पाखंड और पलायन न पर आधारित धर्म के विपरीत कर्म और अंतरदृष्टि पर आधारित  थी ।कबीर की 1510 ई. में मृत्यु माना जाता है। उनको शरीर छोड़ने के लिए इससे अच्छा स्थान और कहीं नहीं था। उनका जन्म रूढ़ियो और अंधविश्वासों को तोड़ने के लिए हुआ था। कबीर की मृत्यु सामान्य मृत्यु नहीं थी अपितु तत्कालीन आडम्बरों पर करारा प्रहार था। उनके अनुसार –

जा मरने सो जग डरे , मेरे मन आनन्द । कब मरिहों कब भेंटिहों , पूरण परमानन्द ।।

1680 ई. में औरंगजेब ने एक काजी खलील उर रहमान को चकलेदार ( कर वसूलनेवाला ) के रूप में गोरखपुर भेजा जो स्थानीय राजाओं को अपने अधीन लेते हुए उनसे  पुनः नियमित करों का भुगतान करवाने लगा था।। गवर्नर ने तब मगहर के लिए प्रस्थान किया था। वहां के सौनिक किले को पुनः शाही सेना के अधीन मिलाया था। मगहर के राजा को कार्यमुक्त कर राप्ती के तट पर स्थित बांसी के किले में वापस जाने को बाध्य कर दिया था। काजी खलील का मगहर में मकबरा बना हुआ है।

सुगौली युद्ध के इतिहास का मुख्य प्रभाव गोरखपुर शहर तथा तत्कालीन बस्ती के आन्तरिक परिस्थितियों पर भी प्रभाव पड़ा था। इस युद्ध ने बस्ती जिले की शांतिपूर्ण विकास में काफी व्यवधान उत्पन्न किया था। कानून व्यवस्था की स्थिति इतनी बिगड़ गई कि मार्च 1815 ई. में कुछ ही दूरी पर लौटने में ब्रिटिश सेना व किला स्थित होने के बावजूद में बांसी तहसील पर 200 सियारमारों ( छोटे वंश व कुल में पैदा हुए लोगों ) ने आक्रमण कर दिया। इतना ही नहीं डकौतों ने मगहर को भी अपने कब्जे में लेकर खजाने को लूट लिया था। ब्रिटिशकाल में गोरखपुर के खजाने से इसके देखरेख के लिए चार आना ( 0.25 रूपये) का भुगतान किया जाता रहा । यह अनुदान की तिथि प्रायः नबाब सफदरजंग के दौरे के समय नियत किया जाता था। जब वह मंदिर की जरूरी चीजों की व्यवस्था करवाता था।

कबीर का आश्रम एवं समाधि :-मगहर पहुंचकर कबीर शाह ने  एक जगह धूनी रमाई। उनके तप के बल पर वहां एक जल का स्रोत फूट पड़ा था। इसे आज गोरख तलौया के नाम से जाना जाता है। कहा जाता है कि साधुओं व भक्तों की सुविधा के लिए कबीर ने जल की धारा उल्टी तरफ मोड़ दिया था। आज भी आमी नदी में कबीर शाह के परिनिवार्ण दिवस पर लोग स्नान करके असाध्य चर्म रोग को दूर करते है।

तालाब से थोड़ा हटकर उन्होंने अपना एक आश्रम स्थापित किया था। अन्तिम समय वे अपने शिष्यों को पूर्व सूचना देते हुए प्राण त्यजे थे। उनके शिष्यों में हिन्दू व मुसलमान दोनों थे। अपनी पूरी जिन्दगी में उन्होने साम्प्रदायिक संकीर्णता के आचरणों पर प्रहार किया था जिससे ऊपर उठते हुए वह सही मार्गपर चलने का निर्देश दिये। उनके शरीर की अंतिम संस्कार के लिए उनके शिष्यों में मतभेद हो गया थां । हिन्दू काशी ( रींवा ) नरेश बीर सिंह के नेतृत्व में शस्त्र सहित कूच कर गये थे । इधर मुसलमान तत्कालीन नबाब बिजली खां पठान की सेना के माध्यम से गोलबन्द हो गये थे । हिन्दू उन्हें जलाना तथा मुसलमान दफनाना चाह रहे थे । उनकी तपश्चर्या व प्रेरणा से आश्चर्यजनक रूप में उनका पंचभैतिक शरीर फूलों मे बदल गया था। आधे आधे फूल बांटकर हिन्दुओं ने अपने गुरू की भव्य समाधि बनाई तथा मुसलमानों ने गुरू की स्मृति में एक दिव्य मकबरा बनवाया । दोनो प्रतीकों के बीच में एक दीवार बनवायी गई।  मृत्यु के बाद भी उन्होने साम्न्रदायिक सदभाव को विगड़ने नहीं दिया। उनके सम्मान में से शब्द निकलते है। –

राम रहीम एक हैं, नाम धराया दोय ।कहैं कबीर दो नाम सुनि , भरम पड़ो मति कोय ।।

उत्तर प्रदेश  राज्य द्वारा संरक्षित स्मारक:-

कबीर साहब की स्मृतियों को चिरस्थाई बनाने के लिए बस्ती से गोरखपुर राजमार्ग से उत्तर 2-3 किमी. अन्दर मगहर में कबीर दास के निर्माण स्थल पर उनके अनुयायियों ने मजार एवं मन्दिर बनवाया है। अकबर के समय 1567 ई. में  मगहर का शासक फिदाई खान ने इस स्मारक का पुनरूद्धार कराया था। इसी प्रकार एक अन्य प्रमाण के अनुसार गाजीपुर एवं पटना के पहाड़खां के पुत्र विजली खां ने कबीर की समाधि व मन्दिर का पुनरूद्धार करवाया था। यह मंदिर पहले जुलाहों के नियंत्रण में था।

उनकी समाधि व मजार लगभग 100 फिट की दूरी पर अगल बगल स्थित है। यह उत्तर प्रदेश  राज्य सरकार के अधीन एक संरक्षित स्मारक है। स्मारक के दीवालों पर कबीरदास के दोहे उकेरे गये हैं। 1518 ईस्वी में मजार तथा 1520 ईस्वी में मन्दिर का निर्माण होना कहा जाता है। कबीर के मजार के बगल उनके पुत्र व शिष्य कमाल साहब की मजार है। कबीर की मजार में प्रवेश के लिए 4 फिट ऊंचा एक प्रवेश द्वार है। समाधि से थोड़ी ही दूरी पर कबीर की एक गुफा है। जिसमें कबीर दास जी साधना करते थे इसमें नीचे उतरने के लिए 60 सीढ़ियां हैं। यह भी  उत्तर प्रदेश  पुरातत्व विभाग द्वारा संरक्षित है। कबीर के अनुयाई इस गुफा को साधना स्थल के रूप में प्रयोग में लाते थे।

कबीर निर्माण स्थल का पूरा परिसर वर्तमान में 27 एकड़ के विशाल  भूभाग में फैला हुआ है। 1932 ई. में गोरखपुर के तत्कालीन आयुक्त एस. सी.  राबर्ट ने मगहर के प्रसिद्ध व्यवसायी स्व. प्रियाशरण सिंह उर्फ झिनकू सिंह बाबू के सहयोग से मेले व महोत्सव का आयोजन कराते रहे है। वे हर साल इस आयोजन में भाग लेते रहे है। उसके बाद 1955 से 1957 तक लगातार तीन साल मेलों का आयोजन किया गया।

1982 ई. में इस परिसर को अधिग्रहीतकर 15 एकड़ भूभाग पर एक उद्यान बनवाया गया है। यहां बड़ी संख्या में बृक्ष लगे हुए है, जो एक दिव्य अनुभूति का एहसास कराते हैं। कबीरदास मठ की मूल पीठ वाराणसी के कबीर चैरा नामक स्थान पर है। उनके कुछ अनुयायी ही मगहर कबीर मठ की पूरी देखभाल करते रहते हैं। आश्रम में श्वेत वर्ण के बस्त्रों में कबीरपंथी पुरुष व नारी पूरे परिसर को एक अलग ही पहचान देते है। 1987 में मेले के स्वरूप को बदलने का प्रयास किया गया 1989 मे महोत्सव सात दिन का उसके बाद पांच दिन का आयोजित किया जाने लगा । 1993 ई. में यहाँ तत्कालीन राज्यपाल माननीय मोतीलाल बोरा ने सन्त कबीर शोध संस्थान की स्थापना कराई थी। जो इसी परिसर में स्थित है। यहां शोधार्थियों के सारे खर्चे की व्यवस्था संस्थान उठाता है। इसका एक पुस्तकालय भी है। संतों की बानी पर आधारित प्राचीन पाण्डुलिपियां तथा परम्परागत कबीर के पदों व रचनाओं के आधार पर गाये जाने वाले साहित्य की पाण्डुलिपियां तथा उनके ओडियो व वीडियों यदि एकत्र कर उसका प्रचार प्रसार तथा भंडारण किया जाय तो शोध, साहित्य एवं संस्कृति को एक नया आयाम मिल सकेगा।

अनेक आकर्षककार्यक्रम व महोत्सव समारोह:-यहां हर साल तीन बड़े कार्यक्रम आयोजित किये जाते है। पहले एक दिन का कार्य्रक्रम होता था। मकर संग्रान्ति के अवसर पर 12 से 16 जनवरी तक मगहर महोत्सव और कबीर मेला आयोजित किया जाता है । माध शुक्ला एकादशी को तीन दिवसीय कबीर निर्माण दिवस समारोह का आयोजन होता है। इनमें संगोष्ठी, परिचर्चायें , चित्र और पुस्तक प्रदर्शनी के अलावा सांस्कृतिक कार्यक्रम होते है। संगीत सत्संग साधना गोसेवा बृद्धाश्रम तथा यात्रियों के आवास की भी  व्यवस्थायें संभाली जाती है। इस महोत्सव में विभिन्न प्रकार के सांस्कृतिक कार्यक्रम, विचारगोष्ठी, कबीर दरबार , कव्वाली , सत्संग, भजन कीर्तन तथा अखिल भारतीय कवि सम्मेलन तथा मुशायरा आयोजित किये जाते है। माघ शुक्ल एकादशी पर कबीर निर्माण दिवस का आयोजन किया जाता है।

जनकल्याणकारी संस्थायेंः- संत कबीर के आदर्शों पर आधारित अनेक जनोपयोगी संस्थायें गठित की गई हैं। कबीर शिक्षा समिति के माध्यम से आस पास करीब एक दर्जन से अधिक महाविद्यालय , इन्टर कालेज ,तथा अन्य विद्यालय संचालित हो रहे हैं। अनाथ बच्चों की शिक्षा दीक्षा के लिए निःशुल्क शिक्षा की व्यवस्था है। प्रयाग संगीत समिति से मान्यता प्राप्त एक संगीत महाविद्यालय भी चलाया जा रहा है। इसमें कबीर तथा अन्य संतो के पदो पर आधारित संगीत रचनाओं पर विशेष ध्यान दिया जाता है।

मगहर में अनेक राष्ट्र प्रमुख समय समय पर आते रहते है। 11 अगस्त 2003 में ततकालीन राष्ट्र पति एपीजे अब्दुल कलाम आये थे। एसे अवसर पर इस के विकास में थोड़ी बढ़ोत्तरी हो जाती है। उसके बाद यह स्थान इतनी महत्ता का होते हुए भी अपनी कोई अंर्तराष्ट्रीय छवि बनाने में सफल नहीं हो सका है।

 

 

 

 

 

 

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