11 मई पर विशेषः-
मृत्युंजय दीक्षित
महाकवि सूरदास का हिंदी जगत के साहित्य में अप्रतिम स्थान है। सूरदास के जन्मतिथि स्थान व उनके जन्मांध होने पर विद्वानों मे मतभेद हैं। लेकिन उनकी महानता व कृष्णभक्ति को लेकर सभी विद्वानों में एकरूपता है। सूरदास की साहित्यिक रचनाएं हिंदी जगत के लिए मील का पत्थर साबित हुई हैं। सूर को पढ़े बिना हिंदी साहित्य को नहीं समझा जा सकता । कुछ विद्वानों का मत है कि सूरदास का जनम संवत 1540 के लगभग आगरा से मथुरा जाने वाली सडत्रक के किनारे बसे हुए रूनकता नामक ग्राम में हुआ था जबकि दूसरे विद्वानों का मत है कि सूरदास का जन्म दिल्ली के समीपस्थ सीढ़ी नामक ग्राम में हुआ था।
इसी प्रकार कुछ का मत है कि सूरदास सारस्व्त बा्रहमण थे जबकि कुछ का मत है कि आप चंदवरदाई के वंशज है। सूरदास बचपन से ही अंधे थे। लेकिन उन्होनें अपनी रचनाओं में जिस प्रकार से अनुपम तथा सजीव वर्णन दृश्यों से प्रभावित होकर किया है उससे कुछ विद्वान उन्हें जन्मांध नहीं मानते हैं। उनको जन्मांध बताने वाले विद्वान स्वाभाविक चेष्टाओं प्रकृति क अपरिवर्तित तथ्यों रूपों तथा रंगों का जैसा सूक्ष्म दृश्य भावों के वर्णन का श्रेय एकमात्र भगवान कृष्ण की कृपा को ही मानते हैं । भक्तमाल पुस्तक के आधार पर सूरदास बचपन से ही अंधे हैं। प्रसिद्ध वैष्णवाचार्य बल्लभाचार्य सूरदास के गुरू थे। उनकी आज्ञा पाकर ही श्रीमदभगवत को आधार मानकर सूरसागर की सफल रचना की। उन्होनें अपने साहित्य में बालकांे की स्वाभाविक चेष्टाओं ,प्रकृति के अपरिवर्तित तथ्यों, रूपों तथा रंगों का जैसा सूक्ष्म, सरल एवं मार्मिक वर्णन किया है वह एक जन्मांध साधारण व्यक्ति से नहीं किया जा सकता । सूरदास वैष्णव सम्प्रदाय के सर्वश्रेष्ठ पुष्टिमार्ग के संत थे । भगवान श्रीकृष्ण की भक्ति से ओतप्रोत होने के कारण काव्य में सामाजिक मर्यादा का ध्यान रखा है। सूरदास ने साहित्य में वात्सल्य श्रृंगार का अनुपम एवं बेहद सजीव वर्णन किया है। साहित्य में श्रृंगार रस के संयोग तथा वियोग काजो सांगोपांग सजीव चित्रण अपनी रचनाओं में किया है वह अन्यत्र नहीं मिलता है। रासलीला मुरली माधुरी चीरहरण आदि में संयोग श्रृंगार का चरमोत्कर्ष दिखाई देता है। इसी प्रकार कृष्ण के मथुरा चले जाने पर विरहिणी गोपियों की अंतरदशाओं का वर्णन वियोग श्रंृगार के रूप में दिखाई पड़ता है।
महाकवि सूरदास के साहित्य की शैली गीतकाव्य की मनोरमा शैली है। जिसमें तीन रूप मिलते हैं कथात्मक शैली, भावपूर्ण शैली और अस्पष्ट शैली। सूरदास ने अपने साहित्य में शुद्ध साहित्यिक ब्रजभाषा को अपनाया है। सूर साहित्य में संस्कृत शब्दों का प्रयोग बड़े ही आकर्षक ढंग से हुआ है। श्रृंगार और वात्सल्य के क्षेत्र में जहां तक सूर की दृष्टि पहुंची हैं वहां तक किसी और कवि की नहीं। सूर के अनुसार भगवान श्रीकृष्ण के अनुग्रह से मनुष्य को सदगति मिलती है। अटलभक्ति ज्ञानयोग कर्मयोग से श्रेष्ठ है। सूर ने अपनी प्रतिभा के बल पर कृष्ण के बालस्वरूप का अतिसुंदर , सरल ,सजीव और मनोवैज्ञानिक वर्णन किया है। सूर ने विनय पद भी लिखे हैं। सूर ने अपने साहित्य में यशोदा के शील गुण आदि का सुंदर चित्रण किया है। सूरकाव्य में प्रकृति सौंदर्य का सजीव और सूक्ष्म वर्णन किया है। सूर का काव्य कलापक्ष , भावपक्ष की दृष्टि से भी महत्वपूर्ण है। सूर की भाषा सरल स्वाभाविक तथा वाग्वैदिग्धपूर्ण है। सूरदास हिंदी साहित्य के महाकवि हैं क्योंकि उन्होने न केवल उतार चढ़ाव और भाषा की दृष्टि से साहित्य को पल्लवित किया वरन कृष्ण काव्य की विशिष्ट परम्परा को भी जन्म दिया। सूर का कृष्णकाव्य व्यंग्यत्माक भी है। इसमें उपालम्भ की प्रधानता है। सूर का भ्रमरगीत इसका ज्वलंत उदाहरण है। सूर की कृष्ण काव्यधारा में ज्ञान और कर्म के स्थान पर भक्ति को प्रधानता दी गयी है। सूर साहित्य में ग्राम प्रकृति का भी सुंदर एवं सजीव चित्रण मिलता है। सूर की प्रमुख रचनाओं मे सूरसागर, सूर सारावली, साहित्य लहरी ,नल दमयंती तथा ब्याहलो प्रमुख हैं। जिसमें अंतिम दो अप्राप्य हंै। सबसे प्रसिद्ध रचना सूरसागर है।जिसमें सवा लाख पद बतायें जाते हैं किंतु दुर्भाग्य से केवल छह से सात हजार पद ही मिलते हैं। विद्वानों का मत है कि सूरदास की मृत्यु पारसौली नामक ग्राम में सम्वत 1620 में हुई थी।