अखिलेश आर्येन्दु
महर्षि दयानंद : तमसो मा ज्योतिर्गय के युगधर्मी संवाहक
उपनिशदों में अंधकार से प्रकाश की तरफ जाने की प्रेरणा दी गर्इ है। तमसो मा ज्योतिर्गमय। अंधकार मृत्यु के समान और प्रकाश जीवन और अमरता के समान माना गया है। मौत से छुटकारा पाने की एक छटपटाहट इंसान के मन में गहरार्इ से दिखार्इ देती है। पुराने ऋषि – मुनि रहे हों या गौतम बुद्ध, महावीर या महर्षि दयानंद। दुनिया में फैले तमाम दुखों, कष्टों, परेशानियों और समस्याओं से निजात पाने के लिए समाज के इन रहनुमाओं ने एक ऐसा रोशन करने वाला रास्ता दिखाया जो इंसान को उसके प्रमुख मकसद को पाने में कामयाब करे। महर्षि दयानंद ने 19वीं शती में दुनिया जहान में छाए अंधकार, अंधविश्वास, पाखंड और तमाम बुराइयों को खत्मकर सही धर्म और इंसानियत का रास्ता दिखाने का जो युगान्तरकारी कार्य किए वह आज भी अदब के साथ याद किया जाता है। एक बार लोगों ने उनसे पूछा-आप क्या इस जिंदगी से हमेशा के लिए छुटकारा नहीं पाना चाहते? यानी जन्नत पाने की इच्छा नहीं है? महर्षि दयानंद ने जवाब दिया-मेरी मुकित यानी मोक्ष हासिल करने से दुनिया में फैले दुख को दूर करना मुमकिन नहीं है। दुनिया का दुख दूर हो यह हमारी इच्छा है। यानी महर्षि अकेले मोक्ष हासिल करना नहीं चाहते थे। वे तो हर इंसान के दुख को दूर करना चाहते थे।
दयानंद मानते थे समाज में जो अधियारा फैला है उसकी वजह वेदों में बताए गए इंसानियत के रास्ते से हट जाना है। वेद में इंसान की भलार्इ और बेहतरी के लिए जो रास्ते बताए गए हैं उसपर गौर न करने से इंसान तमाम ऐसे मतमतांतरों में उलझ गया जो इंसानियत के रास्ते से दूर हटाने वाले थे। इससे इंसान में आलस्य, प्रमाद, स्वार्थ, क्रोध, काम और दूसरे तमाम विकार पैदा हो गए। इंसान उन मकड़जालों में फंसता चला गया जो उसे मानसिक, शारीरिक, राजनैतिक, सांस्कृतिक, आर्थिक और धार्मिक रूप से गुलाम बनाने वाले थे। महर्षि दयानंद ने वेदों की रोशनी देकर इन सभी बंधनों से छुटकारा दिलाने की कोशिश की।
चालिस साल की तपस्या- समाज सुधार का कार्य दुनिया के तमाम सबसे कठिन कार्यों में से एक है। यह तभी आगे बढ़ता है जब सुधार करने वाला व्यकित तपस्वी और संयमी व चरित्रवान हो। महर्षि ने समाज सुधार के कार्य के पहले चालिस सालों तक घोर तपस्या की। वेद, शास्त्रों और दूसरे वैदिक आर्श ग्रंथों का गहन अध्ययन किया। योग और ध्यान के जरिए शारीरिक, बौद्धिक और आतिमक उन्नति की। इन सालों में उन्होंने घूम-घूमकर समाज, देश, संस्कृति और सामाजिक जीवन को बेहतर तरीके से समझा।
समाज सुधार के कार्य- चालिस सालों तक तप, स्वाध्याय और भ्रमण के बाद महर्षि ने समाज, शिक्षा, संस्कृति, धर्म, राजनीति, भाशा, आजादी दिलाने और दलित-स्त्री की बदतर हालात को बेहतर बनाने के कार्य शुरू किए। उनके समाज सुधार के कार्यों की समाज के हर तपके के लोगों ने तारीफ की लेकिन समाज विरोधी और समाज-द्रोही लोगों को उनके समाज सुधार के कार्य अच्छे नहीं लगते थे। क्योंकि इससे उनको जनता का शोषण करने और मनमानी करने की छूट मिली हुर्इ थी। दयानंद ने अपने देश-भ्रमण के दौरान यह अनुभव किया था कि किस तरह धर्म, योग, अध्यात्म, स्वर्ग, नरक, पाप और पुण्य के नाम पर पंडे-पुजारी और पुरोहित शोषण कर अपना स्वार्थ साधते हैं। किस तरह बेसिर-पैर की किताबों को वेद बताकर लोगों को ये पाखंडी ठगते हैं। और देश के किसान और मजदूर किस तरह से सामंतों, जमींदारों और महाजन कहे जाने वाले धनियों के जरिए प्रताडि़त और शोषित होते हैं। समाज का हर तपका बदहाली में जानवरों से भी गर्इ बीती जिंदगी गुजारने के लिए मजबूर था। दयानंद ने सबको एक साथ सुधारने का वीड़ा उठाया और समाज की हर चुनौती को स्वीकार किया।
वेदों को आधार बनाया-महर्षि दयानंद ने वेदों को अपने समाज सुधार का ही आधार नहीं बनाया बलिक देश में छायी विदेशी गुलामी को खत्म करने के लिए भी वेदों का सहारा लिया। उन्होंने ‘वेदों की ओर लौटो का नारा दिया। उनका साफतौर पर मानना था कि वेदों के पठन-पाठन और वेद के मुताबिक जीवन न होने से सारे समाज की हालात बदतर हुर्इ है। उन्होंने कहा- भारत अपने पुराने गौरव को हासिल कर सकता है बशर्ते, वेदों में बताए रास्ते पर आगे बढ़े। गौरतलब है, वेदों में स्वराज्य, स्वभाषा, स्वधर्म, स्वसंस्कृति, स्वदेशी, स्वराज्य और स्वाभिमान जगाने की प्रेरणा दी गर्इ है। ‘स्व के जगे बिना किसी भी क्षेत्र में हमारी उन्नति नहीं हो सकती है। राष्ट्रवाद और मानवतावाद की जैसी अवधारणा महर्षि दयानंद ने पेश की उनके पहले किसी ने नहीं पेश की थी। महर्षि ने ‘स्व को जगाकर भारत की पददलित, आलसी, प्रमादी और अज्ञानी जनता को अपने पुराने गौरव को हासिल करने का जो युगांतरकारी कार्य किए वह इतिहास का ऐसा स्वर्णिम अध्याय है जिसे पढ़ और आत्मसात कर कोर्इ भी व्यकित सुधार के रास्ते पर आगे बढ़ सकता है।
सत्यार्थ प्रकाश का सृजन- महर्षि दयानंद ने जहां अपने प्रवचनों, व्याख्यानों और शास्त्रार्थों के जरिए समाज, देश, संस्कृति और धर्म के सुधार का असंभव लगने वाले कार्य को किया वहीं पर सत्यार्थ प्रकाश जैसा विश्व प्रसिद्ध ग्रंथ का निर्माण भी किया। सत्यार्थ प्रकाश में उन्होंने ईश्वर, शिक्षा, आश्रम व्यवस्था, वर्ण व्यवस्था, राजनीति का बेहतर स्वरूप,जीवन में किए जाने वाले पुरुषार्थ, अंधविश्वासों, पाखंडों, कुरीतियों का भंडाफोड़, विभिन्न मतमतांतरों की समीक्षा और बेहतर समाज और विश्व के बारे में निष्पक्ष तरीके से लिखा।
आर्य समाज आंदोलन की शुरुआत-महर्षि दयानंद ने समाज सुधार और देश को गुलामी से छुटकारा दिलाने के साथ मुम्बर्इ की काकड़बाड़ी में 1875 में आर्य समाज की स्थापना की। आर्य समाज की स्थापना के पीछे उनके यूं तो कर्इ मकसद थे लेकिन ‘कृण्वंतो विश्वमार्यम यानी दुनिया को श्रेष्ठता की राह पर ले चलो, सबसे बड़ा मकसद था। आर्य समाज की स्थापना के बाद तो देश और समाज में एक युगांतकारी आंदोलन की शुरुआत हुर्इ। इस आंदोलन ने सारे देश में बदलाव की ऐसी आंधी पैदा की कि, सभी तरह के समाज, देश, संस्कृति, धर्म और इंसानियत के खिलाफत करने वालों के पैर उखड़ गए।
वैदिक शिक्षा का सूत्रपात-अंग्रेज़ र्इसार्इयत और अंग्रेजीयत को बढ़ाने में पूरी ऊर्जा लगा रहे थे। सारा भारतीय समाज गुमराह हो रहा था। ऐसे में जरूरी था कि उनका विकल्प जनता के सामने रखा जाए। महर्षि ने विकल्प के रूप में वैदिक शिक्षा पद्धति के आधार गुरुकुल की स्थापना पर जोर देना शुरू किया। महज बालकों के गुरुकुल नहीं बलिक बालिकाओं के लिए कन्या गुरुकुलों की स्थापना का युगधर्मी कार्य की शुरुआत की गर्इ। और इसका पढ़ाने का माध्यम हिंदी रखा। और हिंदी को उन्होंने आर्य भाषा कहकर पुकारा। इसी के साथ उन्होंने गौकृशिदि रक्षणी सभा की स्थापना करके गौवंश और किसानों की दशा को बेहतर बनाने के कार्य शुरू किया। उन्होंने कहा-अन्न दाता किसान राजाओं के भी राजा हैं। इनकी स्थिति हर हाल में बेहतर होनी ही चाहिए।
शास्त्रार्थों की परम्परा को पुनर्जीवन- भारत में तमाम परम्पराओं में विषय की सच्चार्इ को जानने के लिए नीर-क्षीर को अलग यानी शास़्त्रार्थ किए जाते थे। क्या सही है क्या गलत है, धर्मयुक्त क्या है और अधर्मयुक्त क्या है, इंसान की भलार्इ किसमें है और इंसान की बुरार्इ किसमें है जैसे व्यकित, समाज और संस्कृति तथा धर्म से ताल्लुक रखने वाले सवालों केा सही ढंग से जानने के लिए शास्त्रार्थ करने की परम्परा थी। महर्षि समाज के हर तपके के विज्ञजनों से शास्त्रार्थ किये और जनता को बेहतरी का रास्ता दिखाया।
धर्म के सही स्परूप की स्थापना- महर्षि के समाज सुधार और शास़्त्रार्थ के जरिए समाज एक बेहतर रास्ते पर आगे बढ़ने लगा। तमाम रूढि़वादी और पाखंडी पौराणिक लोग इससे उनसे चिढ़ने लगे थे। लेकिन महर्षि ने इसकी एक न परवाह की। उन्हें समाज सुधार और वेदों के प्रचार-प्रसार के कार्य से रोकने के लिए अनेक बार जहर दिए गए, पत्थर फिकवाए गए और मौत के घाट उतरवाने के लिए तरह-तरह के तरीके अपनाए गए। लेकिन दयानंद अकेले अपने संकल्प और साहस से इंसानियत की हिफाजत और वेद प्रचार-प्रसार तथा समाज सुधार के कार्य में लगे रहे। उन्होंने वेदों के जरिए सही धर्म के स्वयरूप को लोगों के सामने रखा।
गांधी जी ने आर्य समाज का समर्थन किया-महात्मा गांधी ने आर्य समाज के जरिए किए जाने वाले कार्यो की खूब तरीफ की। उन्होंने महर्षि दयानंद को एक युगांतरकारी महामानव कहकर पुकारा। इतना ही नहीं, देश-दुनिया के तमाम महापुरुषों, शिक्षाविदों और राजनेताओं ने भी महर्षि दयानंद और आर्य समाज के कार्यों की खुलकर तारीफ की। गांधी जी ने कहा-मैं जहां जहां से गुजरता हूं आर्य समाज वहां पहले ही गुजर चुका होता है।
मानवमूल्यों के संरक्षक- रसोइए के जरिए दिए गए जहर के कारण महर्षि को जहर के असर का पता चल गया था। लेकिन जैसा जीवन एक महापुरुष का होना चाहिए वैसा दयानंद का भी था। 19वीं शती के इस महामानव की जिंदगी का अंतिम समय भी बहुत प्रेरक और अचरज भरा था। दयानंद वास्तव में दया के सागर थे। मानवीय मूल्यों के महज संरक्षक ही नहीं उसे जिंदगी में सार्थक करके भी दिखाया। जब जहर का असर का उन्हें पता चल गया तो रसोइए से बोले-‘ये लो रुपये और भाग जाओ नेपालादि देशों में। वरना पकड़े जाने पर जिंदा नहीं बचोगे। इस तरह इंसानियत का यह महासूर्य 1883 र्इ0 में दीपावली के दिन हमेशा-हमेशा के लिए धरती से चला गया।