क्या आयोजक आम जनता के हितों का ध्यान रखते है ?
डा राधेश्याम द्विवेदी.
भारत एक प्रजातंत्रात्मक गण राज्य है। यहां हमारे साहित्य और संस्कृति में अनादिकाल से ही गणतंत्र की परम्परा चली आ रही है। इसका निर्वहन करते हुए परमब्रह्म द्वारा सृष्टि की उत्पत्ति की गयी। इसके उपरान्त यहां त्रिदेवों एवं त्रिशक्तियों की परम्परा का श्रीगणेश हुआ है। फिर उन्ही से अभिप्रेरित होकर यम, वरूण, इन्द्र, अग्नि, वायु और जल आदि देवताओं के सायुज्म से वे अपना कार्य सम्पादित करवाते चले आ रहे हैं। वे अपने अन्यानेक सहायको, परिचरो, ऋषि-महर्षियों, सन्त महात्माओं तथा महान पुरूषों के माध्यम से सृष्टि का संतुलित सृजन, संचालन तथा उत्सर्जन करते चले आ रहे हैं। इस क्रम में पुरानी परम्परा के सभी अच्छे तत्वों को ग्रहण करते हुए नयी परम्पराये भी जुड़ती चली आ रही हैं। इससे भारतीय गणतंत्र का स्वरूप और निखरते हुए वर्तमान स्वरूप को प्राप्त हुआ है।
हमें अपना इतिहास देखने से यह पता चलता है कि यहां अनेक एसे परमतत्वों से परिपूर्ण महापुरूष –राम, कष्ण, बुद्ध, महाबीर, जीजस तथा मोहम्मद साहब आदि अवतरित हुए हैं जो सभी सकारात्मक एवं संतुलित प्रजा के कर्तव्यो व अधिकारों के प्रति सदैव सचेत रहे हैं। संस्कृत साहित्य के महान कवि भवभूति ने ’’प्रतिमा नाटक’’ नामक ग्रंथ में लिखा है –
स्नेहं दया च सौख्यं च ,यदि वा जानकीमपि ।
आराधनाय लोकस्य मु´्चते नास्ति में व्यथा।।
भारतीय गणतंत्र के प्रारम्भिक राजाओं, उनके कुल गुरूओं, राज्याधिकारियों तथा प्रजाजनों ने इन परम्पराओं को बखूबी समझा , निर्वहन किया तथा असंतुलन की स्थिति में उन्हीं में से उनका समाधान भी निकाला है। इन मानव मूल्यों के लोकतात्रिक परम्पराओं का अनुसरण करने के कारण अशोक, चन्द्रगुन्त द्वितीय विक्रमादित्य तथा अकबर आदि शासकों को महान शासक का दर्जा मिल चुका है। वे भारतीय लोकतंत्र व गणतंत्र के हमारे प्रेरक एवं आदर्श माने जाते रहे हैं।
हमारे इन आदर्शो व मानव पर सबसे ज्यादा कुठाराघात विदेशी आक्रमणकारियों ने किया है। अपने तत्कालिक लाभ के लिए उन्होने हमारी विरासतो , परम्पराओं तथा संस्कृति को बहुत नुकसान पहुचाया है। यवन आक्रमणकारी तथा अंग्रेज कभी भी लोकतंत्र के सच्चे हिमायती नहीं रहे हैं। इन सब के बावजूद हमारे संविधान सभा के निर्माताओं ने विदेशियों द्वारा अपनायी गई कुत्सित परम्पराओं को तिलांजलि देते हुए भारतीय गणतंत्र की मूल आत्मा को अपने संविधान में समेटने का भरसक प्रयास किया है। इस परम्परा में जनता से अपनी बात कहने के लिए शास्त्रार्थ , चर्चायें और महासम्मेलनों (रैलियों ) का आयेजन किया जाने लगा है।
वर्तमान समय के महासम्मेलनों के आयोजक इसके लिए कहीं कहीं कार्यकताओं से चन्दा तक वसूलते हैं या उन्हे भीड़ जुटाने के लिए लक्ष्य निर्धारित करने लगे हैं। समाचारप़त्रों, टेल्ीवीजन तथा केबिल प्रसारणों पर बार बार उद्घोषणायें करवायी जाती है। छोटे छोटे नेताओं में पैसा खर्चकर अपना रूतबा बढाने का होड़ लग जाता है। बड़े बड़े होर्डिंग से शहर पट जाता है। बैनर और झण्डों से सारा वातावरण एक अलग स्वरूप में नजर आने लगता है। कभी कभी ये प्रचार सामग्री इतने बेतरतीब ढ़ंग से लगाये जाते हैं कि उस क्षेत्र में आये हुए नये आगंतुको को अनेक समस्याओं से दो चार होना पड़ता है। पहले से लगे साइन वोर्डों व नाम पट्टिकाओं को ढ़क या छिपा तक दिया जाता है।
आज के जमाने में रैलियां मात्र अपनी बात कहने का एक साधन व माध्यम नहीं रह गई हैं। आज हमारे राजनेता ने क्या इस पुरानी परम्परा का निर्वहन करते है ? आज रैलिया बात कहने का नहीं शक्ति प्रदर्शन का साधन बन गई हैं । अपनी ताकत दिखाने का यह एक थोपी हुई दास्तानें बन गई हैं। लोकतंत्र के नाम पर इसे अनुमति प्रदानकर जहां शासन और प्रशासन को अपना पसीना बहाना पड़ता है। वहीं आम जनता इस जुल्म का सर्वाधिक शिकार होती है। गाड़ियां रेंग रेंगकर चलती हैं। वातावरण में शोर बढ़ जाता है। कार्वन के उत्सर्जन की मात्रा बढ़ जाती है। श्वास के मरीजों की संख्या बढ़ जाती है। कान की सुनने की क्षमता भी प्रभावित होती है। बच्चे स्कूल से आते जाते इस जाम में फंस जाते हैं। गम्भीर रूप से बीमार मरीजों तथा प्रसूता महिलाओं को अपनी जान तक गवांनी पड़ जाती है।
किराये के वाहन व किराये की भीड़ ? यह आमदनी या मनोरंजन का एक साधन तो हो सकता है, लेकिन इससे उस क्षेत्र की सारी गतिविधियां पंगु हो जाती है। व्यापार ठप्प हो जाता है। श्रमिकों को रोटी के लाले पड़ जाते हैं। उस क्षेत्र में गन्दगी का आलम बढ़ जाता है। कुछ छुट पूंजी वाले दुकानों की तो बन आती है। इतना ही नहीं कुछ छोटे दुकानों के सामानो को यह भीड़ लूट भी लेती है। ट्रेन बसों में आदमियों का रेलमरेला चलने लगता है। नियमित आरक्षण कराकर यात्रा करने वालों को सीट से उठा तक दिया जाता हैं। उनके साथ बदसलूकियां तक की जाती है। आयोजक और सरकार इन समस्याओं के निदान के लिए या तो कोई खास कार्यक्रम ही नहीं बना कर चलते हैं। यदि कुछ इन्तजाम भी किये तो वह भी नाकाफी होते हैं। हमारे राष्ट्रीय स्मारकों पर भीड़ का इतना दबाव बढ़ जाता है कि इसे नियंत्रित और सुगम बनाने में व्यवस्थाकारों को पसीने आ जाते है।
काश ! इतना पैसा किसी अन्य सार्वजनिक कार्य पर यदि खर्च किया जाता तो कुछ लोगों को रोजी रोटी की स्थाई व्यवस्था हो जाती और कुछ लोगों की जिम्मेदारियो व समस्याओं से निजात मिल जाती । सरकार द्वारा व्यवस्था में किया जाने वाला खर्च आखिर आम जनता के मत्थे पर ही चढ़ता है। नेताओं द्वारा खर्च किया गया धन भी किसी न किसी रूप में जायज या नाजायज जनता से ही वसूला जाता है। फिर यह जिनके लिए आयोजित की जाती है, उसे फायदा क्या मिला ? वह तो पहले भी नेताऔं से पिसता रहा और बाद में भी पिसता रहेगा।
आओ स्वस्थ जनतंत्र में इस समस्या के बारे में गंभीरता से सोचे । इसके परिणामों का आकलन करें तथा इसके पड़ने वाले दुष्परिणामों से बचें। तभी हमारा लोकतंत्र मजबूत होगा औेर हम सच्चे अर्थो में एक लोकतंत्र देश के नागरिक होने का गौरव प्राप्त कर सकेगे।