महाराष्ट्र का चुनाव होगा दिलचस्प

स्व. बाल ठाकरे, स्व. प्रमोद महाजन और स्व. गोपीनाथ मुंडे ने शायद ही कल्पना की होगी कि उनके न होने से महाराष्ट्र की राजनीति के भाई-भाई इस तरह बैर कर अपनी राहें जुदा कर लेंगे| जिस महागठबंधन की विपक्षी दल भी मिसाल दिया करते थे, जिसकी एकता को राजनीति में अक्षुण्ण माना जाता था, दांव-पेंच में उलझकर खत्म हो गया है| २५ वर्षों का अपनापन सत्ता की हनक में छूट गया और सत्ता भी ऐसी जिसकी सिर्फ संभावना थी, मिली नहीं थी| शिवसेना और भाजपा ने सीटों की लड़ाई को इस मोड़ पर ले जाकर खड़ा कर दिया था जहां सुलह के तमाम रास्ते बंद हो रहे थे| भाजपा के नेता दिल्ली से महाराष्ट्र की राजनीति को हांक रहे थे और मातोश्री को दिल्ली दरबार में झुकना गवारा न था| इस पूरी कवायद में फायदे में कौन रहा और नुकसान किसे हुआ, इसका आकलन चुनाव परिणामों के बाद हो ही जाएगा किन्तु राज्य की जनता जो कांग्रेस-राकांपा की भ्रष्टतम सरकार को सबक सिखाने और शिवसेना-भाजपा महागठबंधन को सत्ता सौंपने को आतुर थी, उसके साथ राजनीति ने ही छल कर दिया|  संभावित मुख्यमंत्री पद के दावेदार का प्रश्न भी दोनों खेमों की रार बढ़ा रहा था। स्व. गोपीनाथ मुंडे के बाद भाजपा के पास कोई सर्वमान्य चेहरा नहीं था तो नितिन गडकरी राज्य की राजनीति में लौटने को लेकर आशंकित थे| ले-देकर शिवसेना प्रमुख उद्धव ठाकरे पर ही निगाह ठहरती थी और उद्धव ने अपनी नई संभावित भूमिका को व्यक्त भी किया था किन्तु भाजपा की राज्य इकाई ने इसे प्रतिष्ठा का प्रश्न बना किया और दिल्ली दरबार से कुछ ऐसे घटनाक्रम हुए जिन्हें स्वस्थ राजनीति नहीं कहा जा सकता| प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की निष्क्रियता, भाजपा अध्यक्ष अमित शाह का उद्धव को नकारना ऐसे संकेत थे जिनसे महागठबंधन का टूटना तय था| यहां मोदी की भूमिका पर संशय होता है| दरअसल स्व. बाल ठाकरे ने लोकसभा चुनाव से पूर्व मोदी के मुकाबले सुषमा स्वराज को प्रधानमंत्री पद का बेहतर उम्मीदवार बताकर मोदी की नाराजी मोल ली थी| यहां तक कि स्व. बाल ठाकरे की अन्तेष्टि में भी मोदी की गैर-मौजूदगी चर्चा का विषय बनी थी| तो क्या यह मान किया जाए कि मोदी काफी पहले ही महाराष्ट्र में शिवसेना से मोह त्याग चुके थे? उनका राज ठाकरे के पक्ष में अधिक आना भी इसपर मुहर लगाता है| हो सकता है मोदी की चुप्पी और उनके अमेरिका जाते ही महागठबंधन तोड़ने की घोषणा में सामंजस्य हो? शिवसेना से अलग होकर भाजपा ने महाराष्ट्र की राजनीति में खुद को स्थापित करने की दिशा में महत्वपूर्ण कदम तो उठा किया है किन्तु उसका यह कदम उसके लिए आत्मघाती भी सिद्ध हो सकता है| दरअसल भाजपा  विदर्भ के अलावा और कहीं उतनी मजबूत नहीं है जितनी की शिवसेना| यदि रणनीति के तहत भाजपा पृथक विदर्भ की मांग उठाती है तो यहां अब उसे अन्य पार्टियों के अलावा शिवसेना के पुरजोर विरोध का सामना करना होगा जो उसके प्रभाव वाले क्षेत्र के लिहाज से ठीक नहीं कहा जाएगा| फिर शिवसेना भाजपा पर महागठबंधन तोड़ने के आरोप लगाकर सहानुभूति बटोरना चाहेगी| इसमें शरद पवार की भूमिका और राज ठाकरे से संभावित नजदीकी भी शिवसेना के पक्ष में जाएगी| शिवसेना पुरानी रणनीति के तहत मराठी-गुजराती बहस को जिंदा कर मराठी माणूस को अपने पक्ष में करने का प्रयास करेगी| मुंबई, जो शिवसेना का गढ़ है, संयुक्त महाराष्ट्र का आंदोलन शिवसेना के पक्ष में पहले भी देख चुकी है जब मुंबई को महाराष्ट्र और गुजरात में से किसी एक राज्य को चुनना था| मुंबई और उसके आस-पास की दर्जनों विधानसभाओं के क्षेत्र इस मुद्दे से शिवसेना को सीधा लाभ पहुंचा सकते हैं| इन सबमें यह देखना दिलचस्प होगा कि क्या शिवसेना चुनाव बाद के समीकरणों को देखते हुए अपनी भाषा तल्ख़ रखती है या नहीं| कुछ ऐसा ही भाजपा खेमे से देखने को मिल सकता है|
दरअसल संबंध-विच्छेद के बाद भी दोनों ही दल यह जानते हैं कि दोनों राज्य की राजनीति में एक-दूसरे के पूरक हैं| ऐसा नहीं है कि दोनों के बीच सीटों को लेकर पूर्व में झगड़े और अलगाव की नौबत तक वे न पहुंचे हों, किंतु स्व. बाल ठाकरे, स्व. प्रमोद महाजन और स्व. गोपीनाथ मुंडे के संयुक्त प्रयासों ने राजनीतिक तलाक की इस प्रक्रिया को काफी हद तक रोके रखा था। अब दोनों ही चेहरे राजनीति में नहीं हैं और जो हैं, उनकी राजनीतिक महत्वाकांक्षा उन्हें बाला साहब, महाजन और मुंडे जैसा नहीं बना सकती, लिहाजा रार बढ़ती गई।बाल ठाकरे ने राजनीति में पद न लेकर जो शुचिता कायम की थी, शिवसेना ने उसका उल्लंघन किया, तो वहीं शिवसैनिकों के बलबूते राज्य में मजबूत हुई भाजपा अहसान मानना तो दूर, उलटे उसी पर आंखें तरेर रही थी। ऐसे में दोनों को फायदा कम और नुकसान ज्यादा था और आगे भी होगा| वैसे भी महाराष्ट्र में सेना-भाजपा की अलग-अलग कल्पना नहीं की जा सकती और यदि दोनों दलों के नेतृत्व को यह लगता है कि वे राह अलग कर सत्ता पा लेंगे तो यह उनकी गलतफहमी है। दोनों का अपना संयुक्त वोट बैंक है और अलग होने पर वह निश्चित रूप से बंटेगा, जिसका बड़ा फायदा राकांपा को होना तय है| महाराष्ट्र में क्षेत्रीयता को कैसे भुनाया जाता है यह इस चुनाव को देखने को मिलेगा और इस स्थिति में राकांपा का भविष्य मजबूत माना जा सकता है|
महाराष्ट्र देश का एकलौता राज्य था जहां सत्तापक्ष और विपक्ष दोनों ही गठबंधन की बैसाखियों पर टिके हुए थे| बैसाखियां टूटीं तो मुकाबला भी अब रोचक हो चला है| सत्तारूढ़ कांग्रेस-राकांपा गठबंधन टूटने पर मुहर तो उस वक़्त ही लग गई थी जब अजित पवार ने एनसीपी कोटे से मुख्यमंत्री पद की मांग की थी| हालांकि छोटे पवार की यह मांग दिखावा थी, असल मुद्दा तो लोकसभा चुनाव में कांग्रेस की दुर्गति से जुड़ा था| राकांपा को लगता था कि कांग्रेस का साथ देने से उसे वैसा ही नुकसान होगा जैसा उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह को हुआ था वह भी तब जबकि मुलायम दिखावे का कांग्रेस विरोधी झंडा उठाते थे, जबकि यहां तो दोनों ही दल गलबहियां करते हुए सत्ता सुख भोग रहे थे| हालांकि राकांपा की यह सोच एकतरफा थी| हकीकत यह थी कि कांग्रेस से अधिक नुकसान राकांपा को उठाना पड़ता| चूंकि महाराष्ट्र में सत्ताधारी सरकार की तमाम आर्थिक, सामाजिक एवं राजनीतिक विसंगतियों को राकांपा के मंत्रियों से जोड़कर प्रस्तुत किया जा रहा था लिहाजा राकांपा को अपनी ढाल के लिए कांग्रेस का इस्तेमाल करना ज़रूरी हो गया था| निजी तौर पर ईमानदार मुख्यमंत्री पृथ्वीराज चव्हाण की छवि पवार परिवार पर भरी पड़ रही थी| राकांपा का कांग्रेस से अलग होना उसके लिए संभावनाओं के नए द्वार खोल रहा है, वह भी ऐसे समय जबकि शिवसेना-भाजपा का महागठबंधन टूट चुका है| जहां तक  महाराष्ट्र नव निर्माण सेना के नेता राज ठाकरे की प्रासंगिकता की है तो  पिछले लोकसभा चुनाव में उनकी पार्टी की करारी हार हुई थी किन्तु बदली परिस्थितियों में भाजपा से उनकी नजदीकियां बढ़ सकती हैं| चूंकि उनके कई विधायकों ने भाजपा का दामन थामा था और राज की तरफ से कोई प्रतिक्रिया नहीं आई थी लिहाजा भविष्य की दृष्टि से इस संबंध के होने को नकारा नहीं जा सकता| कुल मिलाकर महाराष्ट्र की राजनीति एक नए कलेवर को जन्म देने वाली है जिसमें राष्ट्रीयता बनाम क्षेत्रीयता, धर्मनिरपेक्षता बनाम सांप्रदायिकता की भूमिका बढ़ जाएगी| भ्रष्टाचार के मुद्दे पर भाजपा और शिवसेना दोनों के ही निशाने पर कांग्रेस नहीं आ पाएगी, क्योंकि ज़्यादातर भ्रष्टाचार राकांपा के खाते में गया है जो क्षेत्रीयता के मुद्दे के आगे गौण है| यानी महाराष्ट्र में मुकाबला को पंचकोणीय दिख रहा है किन्तु फायदे में शिवसेना और राकांपा रहेंगी|
सिद्धार्थ शंकर गौतम 
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सिद्धार्थ शंकर गौतम
ललितपुर(उत्तरप्रदेश) में जन्‍मे सिद्धार्थजी ने स्कूली शिक्षा जामनगर (गुजरात) से प्राप्त की, ज़िन्दगी क्या है इसे पुणे (महाराष्ट्र) में जाना और जीना इंदौर/उज्जैन (मध्यप्रदेश) में सीखा। पढ़ाई-लिखाई से उन्‍हें छुटकारा मिला तो घुमक्कड़ी जीवन व्यतीत कर भारत को करीब से देखा। वर्तमान में उनका केन्‍द्र भोपाल (मध्यप्रदेश) है। पेशे से पत्रकार हैं, सो अपने आसपास जो भी घटित महसूसते हैं उसे कागज़ की कतरनों पर लेखन के माध्यम से उड़ेल देते हैं। राजनीति पसंदीदा विषय है किन्तु जब समाज के प्रति अपनी जिम्मेदारियों का भान होता है तो सामाजिक विषयों पर भी जमकर लिखते हैं। वर्तमान में दैनिक जागरण, दैनिक भास्कर, हरिभूमि, पत्रिका, नवभारत, राज एक्सप्रेस, प्रदेश टुडे, राष्ट्रीय सहारा, जनसंदेश टाइम्स, डेली न्यूज़ एक्टिविस्ट, सन्मार्ग, दैनिक दबंग दुनिया, स्वदेश, आचरण (सभी समाचार पत्र), हमसमवेत, एक्सप्रेस न्यूज़ (हिंदी भाषी न्यूज़ एजेंसी) सहित कई वेबसाइटों के लिए लेखन कार्य कर रहे हैं और आज भी उन्‍हें अपनी लेखनी में धार का इंतज़ार है।

2 COMMENTS

  1. sabhi rajnaitik dal swarthi logo ka sangthan hai. Inko rashtrahit se koi lena dena nahi hai. vartman chunav pranali purn rup se hanikarak hai. isliye desh me agla kranti vaidik chayan pranali ke prachar aur kriyanvayan ke liye hi hoga. jo desh ki sabhi samasyaon ka poora-poora samadhan karega.

  2. vartman chunav pranali purn rup se hanikarak hai. isliye desh me agla kranti vaidik chayan pranali ke prachar aur kriyanvayan ke liye hi hoga. jo desh ki sabhi samasyaon ka poora-poora samadhan karega.

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