‘महर्षि दयानन्द सरस्वती को चार वेद कब, कहां, कैसे व किससे प्राप्त हुए?’

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-मनमोहन कुमार आर्य-
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हर अध्येता व स्वाध्याय करने वाले को सभी शंकाओं व प्रश्नों के उत्तर सरलता से प्राप्त नहीं होते, परन्तु प्रयास व पुरूषार्थ करने से कुछ के उत्तर मिल जाते हैं और अन्यों के बारे में अनुमान व संगति लगा कर काम चलाना पड़ता है। हम भी स्वामी दयानन्द के सभी ग्रन्थों सहित आर्य विद्वानों के प्रमुख ग्रन्थों को पढ़ने का प्रयास करते हैं। वर्तमान में हमारे कुछ प्रश्न हैं जिनका उत्तर नहीं मिल पा रहा है। उनमें से एक है कि महर्षि दयानन्द को चार वेदों की मन्त्र संहितायें कब, कैसे, कहां से व किससे प्राप्त हुई? वह मन्त्र संहितायें हस्त लिखित थी या मुद्रित थी? यदि मुद्रित थीं तो उनका प्रकाशक कौन था? विचार करने पर हमें लगता है कि महाभारत काल के बाद सन् 1863 में महर्षि दयानन्द का कार्य क्षेत्र में प्रादुर्भाव होने तक भारत में वेदों की मन्त्र संहितायें वा सायण आदि किसी भाष्यकार के वेद भाष्य का मुद्रण व प्रकाशन नहीं हुआ था। ऐसी स्थिति में यदि उन दिनों कोई वेद देखना या पढ़़ना चाहता होगा, तो उसे भारी धन देकर उसकी प्रतिलिपि करानी हुआ करती होगी या किन्हीं लोगों द्वारा की गई प्रतिलिपि, शुद्ध व अशुद्ध, को क्रय करना होता होगा। हमारे पास यह भी जानकारी नहीं है कि वेदों की मन्त्र संहिताओं का प्रेस द्वारा मुद्रण होकर भारत में पहली बार कब प्रकाशन हुआ था? जानकारी के अनुसार यह प्रकाशन सन् 1883 व इसके पश्चात ही हुए प्रतीत होते हैं जिसमें सन् 1889 में पं. गुरूदत्त विद्यार्थी के सम्पादकत्व में लाहौर की विरजानन्द प्रेस से सामवेद संहिता का प्रकाशन है जिसका विद्वान लेखक प्रो. डॉ. रामप्रकाश के पुस्तक के अन्त में दी गई सहायक ग्रन्थों की सूची में किया गया है। हमें बताया गया है कि पण्डित गुरूदत्त जी ने चारों वेदों की संहिताओं का सम्पादन किया था जो प्रकाशित हुईं थीं और यह सभी ग्रन्थ डॉ. राम प्रकाश जी के पास उपलब्घ हैं। विदेशों में लन्दन से चारों वेदों की मन्त्र संहिताओं का प्रकाशन महर्षि दयानन्द के जीवनकाल में ही हो चुका था जिसे प्रो. मैक्समूलर या उनके किसी सहयोगी विद्वान द्वारा सम्पादित किया गया अनुमान होता है। ऐसा प्रतीत होता है कि महाभारत काल के पश्चात वेद मन्त्र संहिताओं का प्रथम मुद्रण व प्रकाशन इंग्लैण्ड के लन्दन नगर में हुआ था।

सन् 1869 में काषी विद्या की नगरी कही व मानी जाती थी। काषी में बड़े-बड़े सनातन धर्मी पौराणिक विद्वान पं. विषुद्धानन्द षास्त्री व पं. बालषास्त्री आदि विद्यमान थे परन्तु इनमें भी यथार्थ वेद वैदुष्य षून्य या नाममात्र था। जब विद्या और धर्म की नगरी काषी में कोई वेदों का पठन-पाठन करता ही नहीं था तो कहां से विद्वान अध्यापक मिलते, कौन किसको पढ़ाता व कौन पढ़ता। ऐसी स्थिति में वेदों को मुद्रित व प्रकाषित कौन कराता? ऐसा होने पर भी प्राचीन हस्त लिखित वैदिक साहित्य की रक्षा हो सकी और आज हमें चार वेद, चारों बा्रह्मण ग्रन्थ, कुछ वेदांग व उपांग, दर्षन व उपनिषद्, आयुर्वेद के ग्रन्थ चरक व सुश्रुत आदि, प्रक्षेपों से युक्त मनुस्मृति व अन्य अनेक ग्रन्थ सुरक्षित उपलब्ध हैं, यह अपने आपने में विष्व का सबसे बड़ा चमत्कार है। जिन पूर्वजों ने निःस्वार्थ भाव से इन ग्रन्थों की रक्षा की, सारी मानव जाति उनकी भी कृतज्ञ है। हमारे पौराणिक सनातन धर्मी विद्वान गीता, बाल्मिकी रामायण, रामचरित मानस, उपनिषद्, वेदान्त दर्षन, योग दर्षन व अर्वाचीन ग्रन्थ पुराणों को पढ़-पढ़ाकर काम चला लेते थे और इसी पर वह वैदिक विद्वान होने का दम्भ भरते थे। इससे सम्बन्धित मनोरंजक व खोजपूर्ण विवरण पं. ब्रह्मदत्त जिज्ञासु ग्रन्थावली में विद्यमान हैं जो विद्वानों व स्वायध्याय करने वालों के लिए पठनीय है। इस विवरण से ज्ञात होता है कि भारत में ईष्वरीय ज्ञान वेद, संहिताओं व सायण भाष्य के रूप में हस्तलिखित रूप में ही यत्र-तत्र विद्यमान रहे होगें। ऐसे में यदि कहीं व किसी के पास हस्त-लिखित वेदों की प्रतियां रहीं भी होगीं तो इने-गिने नगण्य प्रायः लोगों के पास ही रही होगीं। ऐसे लोगों से यदि कोई वेद मंत्र संहितायें मांगता तो उनका मिलना कठिन ही था यद्यपि इन वेद के धारकों के पास वेदों का कुछ भी उपयोग नहीं था। ऐसी स्थिति में यदि उन्हें कोई बड़ा आर्थिक प्रलोभन देता होगा तो सम्भव है कि वह उसे अपनी हस्तलिखित वेद सम्पदा को दे सकते थे। वेद संहिताओं को प्राप्त करने का दूसरा विकल्प यह हो सकता था कि महर्षि के जीवनकाल में वेद संहिताओं का प्रकाशन लन्दन में हो चुका था। इन वेद मन्त्र संहिताओं का एक सेट महर्षि दयानन्द सरस्वती की उत्तराधिकारिणी सभा, परोपकारिणी सभा, अजमेर में उपलब्ध है। हमें वैदिक यन्त्रालय के प्रबन्धक मोहनचन्द तंवर जी ने लन्दन से सन् 1875 से पूर्व प्रकाशित इन ग्रन्थों को देख कर बताया है कि इन वेद संहिताओं में सभी मन्त्रों के साथ-साथ मन्त्र का पद-पाठ भी दिया हुआ है। अतः एक सम्भावना यह है कि महर्षि दयानन्द ने वेद संहितायें लन्दन से ही मंगाई हों या यदि यह भारत में किसी पुस्तक विक्रेता आदि से उपलब्ध रहीं हो तो उनसे से किसी एक से खरीदी होे।

स्वामी दयानन्द ने लेखन, प्रचार तथा शास्त्रों आदि के द्वारा वेदों का प्रचार किया। जब वह सन् 1860 में गुरू विरजानन्द सरस्वती की कुटिया में अध्ययनार्थ पहुंचे थे तो यह किंवदन्ती है कि गुरूजी ने उनसे पूछा था कि तुम क्या-क्या पढ़े हो और कौन-2 से ग्रन्थ तुम्हारे पास हैं। स्वामी जी के द्वारा जानकारी दिये जाने पर अनार्श ग्रन्थों को उन्होंने यमुना नदी में बहा आने को कहा था और यह बताया जाता है कि स्वामी दयानन्द जी ने उनकी आज्ञा का पालन किया। अक्तूबर-नवम्बर, सन् 1863 में षिक्षा पूरी कर स्वामीजी गुरू दक्षिणा की परम्परा का निर्वाह कर आगरा आये और यहां लम्बे समय तक रहे। वेदों की उपलब्धि या प्राप्ति के बारे में हम महर्षि दयानन्द के पं. लेखराम रचित जीवन चरित से दो उदाहरण प्रस्तुत करते हैं। पहला उदाहरण सन् 1864 का है जिसे ‘वेदों की खोज में धौलपुर की ओर प्रस्थान’ शीर्षक दिया गया हैं। इस उदाहरण में कहा गया है कि ‘एक दिन स्वामी जी ने पंडित सुन्दरलाल जी से कहा कि कहीं से वेद की पुस्तक लानी चाहिए। सुन्दर लाल जी बड़ी-खोज करने के पष्चात् पंडित चेतोलाल जी और कालिदास जी से कुछ पत्रे वेद के लाये। स्वामीजी ने उन पत्रों को देखकर कहा कि यह थोड़े हैं, इनसे कुछ काम न निकलेगा। हम बाहर जाकर कहीं से मांग लावेंगे। आगरा में ठहरने की अवस्था में स्वामीजी समय-समय पर पत्र द्वारा अथवा स्वयं मिलकर विरजानन्द जी से अपने सन्देह निवृत कर लिया करते थे।’ इस विवरण से यह ज्ञात होता है कि उन दिनों देश में वेद उपलब्ध थे। इसी लिए उन्होंने कहा कि हम बाहर जाकर कहीं से मांग लावेंगे। उनके द्वारा कही गई पंक्तियों में आत्म विष्वास दिखाई देता है। उन्हें विष्वास था कि उन्हें अन्य किसी स्थान से वेद उपलब्ध हो जायेगें। कहां से उपलब्ध होगें, इस पर प्रकाश नहीं पड़ता। हमारा विचार है कि यदि वेद कहीं रहे भी होंगे तो वह पौराणिक ब्राह्मणों के पास ही रहे होंगे? वह उन्हें वेद क्यों देते? उन्होंने यदि यह षब्द कहे तो इसका अर्थ था कि उन्हें वेद मिलने की सम्भावनाओं का पूरा-पूरा पता था। यह भी हो सकता है कि लन्दन से प्रकाशित वेद संहितायें भारत के किसी प्रमुख पुस्तक विक्रेता के पास उपलब्ध रहीं हों?

पं. लेखराम रचित जीवन चरित में सन् 1867 की एक घटना दी गई है। शीर्षक है कि ‘उन्हें केवल वेद ही मान्य थे-स्वामी महानन्द सरस्वती, यह स्वामी महानन्द जी उस समय दादूपंथ में थे- इस कुम्भ पर स्वामीजी से मिले। उनकी संस्कृत की अच्छी योग्यता है। वह कहते हैं कि स्वामी जी ने उस समय रूद्राक्ष की माला, जिसमें एक-एक बिल्लौर या स्फटिक का दाना पड़ा हुआ था, पहनी हुई थी; परन्तु धार्मिक रूप में नहीं। हमने वेदों के दर्शन, वहां स्वामी जी के पास किये, उससे पहले वेद नहीं देखे थे। हम बहुत प्रसन्न हुए कि आप वेद का अर्थ जानते हैं। उस समय स्वामीजी वेदों के अतिरिक्त किसी को (स्वतः प्रमाण) न मानते थे।’ इस प्रमाण से यह स्पष्ट है कि सन् 1867 व उससे पहले से स्वामी जी के पास वेद उपलब्ध थे।

हमें यहां दो सम्भावनायें लगती हैं कि या तो यह उन्हें भारत के किसी पण्डितजी से प्राप्त हुए होंगे। यह सम्भावना कम लगती है। यह भी हो सकता है कि लन्दन में मैक्समूलर आदि पाश्चात्य किसी विद्वान ने वेद संहिताओं का जो प्रकाशन किया था वह भारत में पुस्तक विक्रेताओं के पास उपलब्ध रहा हो, उससे महर्षि या उनके किसी भक्त ने खरीद कर स्वामीजी को उपलब्ध कराया हो। यह भी हो सकता है कि महर्षि के किसी ने भक्त ने उनके कहने पर लन्दन से ही इसे डाक आदि माध्यम से मंगवाया हो। महर्षि दयानन्द ने अपने ग्रन्थों व लेखों में विदेशी विद्वानों के कुछ ग्रन्थों का उल्लेख किया है जिसमें भारत की प्रशंसा अथवा आलोचना दोनों ही हैं। इन्हें भी उन्होंने देश या विदेश से मंगवाया होना प्रतीत होता है। जो भी हो यह सुखद स्थिति है कि उन्हें वेद प्राप्त हो सके जिससे वह सत्यार्थ प्रकाष, ऋग्वेदादि भाष्य भूमिका, संस्कार विधि, वेद भाष्य जैसे महत् कार्य सम्पादित कर सके। हमें यह भी ज्ञात हुआ है कि भारत में वेदों का मुद्रण व प्रकाषन पहली बार लाहौर में सन् 1889 में हुआ था जिसे आर्य जगत के प्रसिद्ध विद्वान व महर्षि दयानन्द के अनन्य भक्त पं. गुरूदत्त विद्यार्थी जी ने सम्पादित मकपज किया था। इसकी एक प्रति डा. रामप्रकाश, गुरूकुल कांगड़ी के पास उपलब्ध है। इसके बाद वेदों का एक संस्करण दामोदर सातवलेकर जी ने सन् 1927 में प्रकाशित किया था। इस ग्रन्थ में रह गई कुछ अशुद्धियों की आर्य जगत के विद्वान पं. ब्रह्मदत्त जिज्ञासु जी ने विस्तृत आलोचना की जिन्हें जिज्ञासु ग्रन्थावली में देखा जा सकता है।

हमारे लेख का मुख्य विषय महर्षि दयानन्द को सन् 1864 से 1867 के बीच वेद संहिताओं की प्राप्ति से सम्बन्धित है। इस प्रष्न व शंका का समाधान हो जाता यदि स्वामी दयानन्द की उत्तराधिकारिणी सभा ‘परोपकारिणी सभा, अजमेर’ ने महर्षि दयानन्द की 30 अक्तूबर, सन् 1883 ई. को देहावसान होने के बाद उनके पास अन्य लेखकों, विद्वानों व ग्रन्थकारों की लिखित व प्रकाषित समस्त साहित्यिक सम्पदा अर्थात्, ग्रन्थों, पुस्तकों, पाण्डुलिपियों आदि की एक ग्रन्थ सूची प्रकाशित करा दी होती। यह ग्रन्थ सूची 131 वर्ष व्यतीत हो जाने पर भी सभा ने प्रकाशित क्यों नहीं, हमारी समझ से बाहर है। अनेक विद्वान इसका अभाव अनुभव करते हैं और परस्पर अपनी पीड़ा को बांटते हैं। यदि ऋषि के पास उपलब्ध ग्रन्थों की सूची प्रकाशित करा दी जाती तो हमें यह ज्ञात होता कि ऋषि के पास जो वेद संहितायें थी, वह पाण्डुलिपि व हस्तलिखित थी या मुद्रित थी? यदि मुद्रित थी तो उसका प्रकाशक कौन था और वह कहां से प्रकाशित हुईं थी। वह सभी संहितायें एक ही प्रकाशक की थी व भिन्न प्रकाषकों द्वारा प्रकाशित थी और उनके प्रकाशन के वर्ष कौन-2 से हैं? यहां हम आर्य जनता का ध्यान महर्षि दयानन्द द्वारा वेद भाष्य का आरम्भ करते हुए ऋग्वेद भाष्य के प्रथम मण्डल के 61 वें सूक्त तक किये गये भाष्य जिसमें उन्होंने प्रत्येक मन्त्र के दो-दो अर्थ एक व्यवहारिक व दूसरा पारमार्थिक अर्थ किया था, की ओर दिलाना चाहते हैं। सभा ने उनके इस विशिष्ट भाष्य को आज तक प्रकाषित नहीं किया। पं. मीमासंक जी का कथन है कि बाद में यह ग्रन्थ सभा ने खो दिया। इस पर मीमांसक जी टिप्पणी है कि जिस महत्वपूर्ण कार्य की उपेक्षा की जाती है उसका इसी प्रकार का हश्र होता है। यह और ऐसे अनेक ग्रन्थ जिनकी संख्या लगभग दो दर्जन है, अभी भी प्रकाषन की प्रतीक्षा में हैं। इनमें से कितने उपलब्ध हैं या नहीं है, इसका विवरण शायद् ही सभा के अधिकारियों को ज्ञात हो।

हम इस लेख को विराम दे रहे हैं। वर्तमान में अनुमान के आधार पर हमारे प्रश्नों के जो उत्तर हैं, वह यह है कि महर्षि दयानन्द को चार वेद भारत में सन् 1864-65 में हस्तलिखित पाण्डुलिपियों के रूप में प्राप्त हुए थे। यह भी सम्भव है कि उन्होंने लन्दन से प्रकाशित वेद संहिताओं को भारत में ही प्राप्त किया हो या लन्दन से मंगवाया हो। वस्तुतः वह किससे कब व कहां मिले इसका अनुसंधान किया जाना है। हम इस लेख में उठायें गये प्रश्नों के समाधान के लिए प्रयास करते रहेंगे। आर्य जगत के सभी विद्वानों से प्रार्थना है कि यदि उन्हें इनके समाधान पता हों, तो इमें सूचित करने की कृपा करें। हम उनके हृदय से आभारी होंगे।

2 COMMENTS

  1. Ved Tadpatron par kab tak likhe jate rahe aur inka mudran kab aramb hua. Pahla vedo ka mudran kab hua? kisne kiya? kahan kiya?

    hamaras prasna hai ki maharishi dayanand saraswati jee ke pas jo ved sanhitayen thee, wah kya mudrit thee va tad patro par ankit thee.

    hamara prasan yeh bhee hai ki kya sabse pahli mudrit prati aaj surakshit hai . yadi ha to vah kahan hai?

    ek prasna yeh bhee hai ki Sayan ne jo char vedo ka bhasya kiya tha, kya wah tad patron par hua tha. Ise tad patron par likne me kitna samay laga hoga? anya vidwano tak ise pahuchane me iske kitne pratiyan karai gai honge?

    Ham aabhari honge yadi koi vidwan hamare in prashno ke uttar dekar hame kritarth karenge.

  2. वेद श्रुति परम्परा से अगली पीढ़ियों तक पहुँचते रहे हैं । मुद्रण से पूर्व तक सनातन वांग्मय ताड़-पत्रों पर ही अभिलिखित होता रहा है । वैदिक ज्ञान अभी तक सुरक्षित है तो बीच में लुप्त होने का प्रश्न ही नहीं उठता। हाँ ! मुद्रण पर प्रश्न अवश्य उठाये जा सकते हैं । मूल पांडुलिपियाँ यदि मैक्समूलर को उपलब्ध हो सकती थीं तो महर्षि दयानन्द जी सरस्वती को क्यों नहीं ?

    • नमस्ते एवं धन्यवाद। वेदो के विलुप्त होने से मेरा अभिप्राय यह है की महाभारत के पश्चात वेदो का अध्ययन व अध्यापन बंद हो गया था। वेदो के सत्य अर्थ विलुप्त हो गए थे। स्वार्थी व अज्ञानी लोगो ने वेदो के नाम पर यज्ञों में पशुओं की हिंसा करना आरम्भ करना प्रारम्भ कर दिया था। अध्ययन व गुण, कर्म व स्वभाव पर आधारित वर्ण व्यवस्था का स्थान गुण, कर्म व स्वभाव रहित जन्म पर आधारित जन्म-जाति व्यवस्था ने ले लिया था। वेदो की पुस्तके आसानी से कहीं सुलभ नहीं थी। स्त्रियां वा शूद्र वेद पढ़ नहीं सकते थे। इस कारण यह कहना वा मानना पड़ता है कि वेद विलुप्त हो गए थे..

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