महात्मा गांधी और सिनेमा -डॉ. मनोज चतुर्वेदी

एक ऐसे व्यक्ति का नाम राष्ट्रपिता महात्मा गांधी है जिन्होंने भारत की मुक्ति का मंत्र ही नही दिया था बल्कि भारत के द्वारा संपूर्ण विश्व में स्वतंत्रता ,समानता ,अपरिग्रह, भ्रातृत्व ,सत्य, आहिंसा, सत्याग्रह, एवं मानव-मूल्यों पर स्थापित एक ऐसे समाज का स्वरूप दिया था जिसमें किसी व्यक्ति के साथ जाति, धर्म , भाषा और नस्ल के आधार पर भेदभाव नहीं होगा। उन्होंने अपने जीवन को सत्य का प्रयोग कहा, सत्य का साधक कहा, एक सत्याग्रही कहा।क्यों कहा स्वयं को सत्याग्रही ? क्यों कहा स्वयं एक अदना व्यक्ति क्योंकि उनका जीवन ही एक संदेश था। उन्होंने बोला भी, पढ़ा भी, लिखा भी, जीवन में व्यवहत भी किया तथा उसे समाज से जोड़ा भी।

महात्मा गांधी का संपूर्ण जीवन ही एक सिनेमा था । वे स्वयं उसकी कहानी लिखते थे, उस कहानी को पटकथा में ढालते थे तथा उन्होंने भारतीय एवं विश्व रंगमंच पर बहुत ही स्थिर मन से अभिनय , निर्देशन तथा निर्माण कार्य किया। ऊपर लिखे गए शब्दों पर कोई भी व्यक्ति हंस सकता है , बोल सकता है कि गांधी जी न तो कहानीकार थे न तो पटकथा लेखक थे, न तो निर्माता थे ,न तो निर्देशक थे।आखिर गांधी की उल्टी-सीधी व्याख्या क्यों ? गांधी जी बोलते कम थे महावीर ने नहीं बोला, महात्मा बुद्व ने नहीं बोला, गुरूनानक देव जी ने नहीं बोला । महापुरूष हम तुच्छ जनों की तरह ज्यादें बोलते नहीं। वे तो मौन द्वारा ही संदेश देते है। वे मौन द्वारा ही बोलते हैं। गांधी ने बोला कि तुमकों इस राष्ट्र को समझना है तो पहले स्वयं को समझ लो। बस, सबकुछ समझ जाओगे।

सिनेमा संवाद का सबसे सशक्त माध्यम है । यदि हम जनसंचार के सारे माध्यमों से सूचनाओं की बात करें तो यह जनसंवाद तथा मनोरंजन का सबसे बड़ा माध्यम है ?दीपावली पर आयी फिल्म son of sardarऔर jab tak hai jaan ने कमाई का रिकार्ड तोड़ दिया है। इन बातों से यह साबित होता है कि सिनेमा मनोरंजन का साधन न होकर जनता को जोड़ने का, जनता से जुड़ने का तथा जनता पर हावी होने का माध्यम बन चुका है। डॉ. विजय अग्रवाल ने अपनी पुस्तक सिनेमा और समाज में लिखा है कि मैंने 1970 में एक फिल्म देख थी -लाखों में एक ,जिसका नायक महमूद था। जिस समय मैंने यह फिल्म देखी थी ,उस समय तक मैं विद्यालय की पढ़ाई छोड़ चुका था । इस फिल्म का नायक महमूद लोगों के घरों में नौकर की तरह काम करता हुआ अपनी पढ़ाई पूरी करता है । मुझे भी लगा कि मैं भी अपनी पढ़ाई जारी रख सकता हूं और मैंने स्वाध्यायी छात्र के रूप में अपनी पढ़ायी शुरू कर दी।

आज जब मैं सोचता हूँ तो लगता है कि यदि महमूद जैसे हास्य कलाकार की फिल्म का मेरे जीवन पर गहरा प्रभाव पड़ता सकता है तो फिर अन्य लोकप्रिय कलाकारों की फिल्मों का अन्य लोगों पर कितना गहरा प्रभाव पड़ रहा होगा। उदाहरण संख्या 2 में यह देखें कि ब्रह्मचारी शिवानंद की एक पुस्तक ब्रह्मचर्य ही जीवन है । उस पुस्तक में उन्होंने बालमन पर फिल्मों के दु:प्रभाव का वर्णन किया है कि किस प्रकार एक फिल्म को देखकर पांच बच्चों ने चोरी की ।

महात्मा गांधी ने अपने बाल्यावस्था में श्रवण पितृभक्ति तथा सत्य हरिश्चंद्र नाटक देखा था। श्रवण कुमार के मातृ – पितृ प्रेम से वे बहुत प्रभावित भी हुए । उनके मन में बराबर यह विचार आता था कि किस प्रकार श्रवण कुमार माता-पिता की सेवा करते हुए स्वर्ग सिधार गए । फिर सत्य हरिश्चंद्र नाटक के संबंध में गांधी जी ने लिखा है कि मैं बार -बार सत्य हरिश्चंद्र नाटक देखना चाहता था पर यह संभव कहा था। मेरे मन ने बार-बार इस नाटक को अपने मन में खेला तथा मैंने सोचा कि सचमुच हरिश्चंद्र की तरह के लोग पैदा हुए हैं जिन्होंने अपने क्या स्वयं के परिवार को भी सत्य के लिए बेच डाला। बाद में मुझे पता चला की हरिश्चंद्र ऐतिहासिक पुरूष नहीं थे।

महात्मा गांधी ने साहित्य एवं कला के संबंध में कहा है कि जिस कला के पीछे प्राणियों पर जुल्म, उनकी, हिंसा ,उत्पीड़़न आदि हो। उसमें बाह्य सौंदर्य कितना भी हो तो भी वह कला कलि अथवा शैतान ही दूसरा नाम है । जो कला मनुष्य की हीन वृत्तियों को उभारती और भोगों की इच्छा को बढ़ाती है वह कला गंदे साहित्य की श्रेणी में ही समझी जाएगी ।महात्मा गांधी द्वारा साहित्य एवं कला संबंधी विचार यह दर्शाता है कि मनुष्य को सत् साहित्य तथा कला का ही दर्शन-अध्ययन करना चाहिए क्योंकि गलत साहित्य तथा कला द्वारा सत्यं शिवं सुंदरं की स्थापना संभव नहीं है। उसके द्वारा समाज में मानवीय दुर्बलताओं का ही प्रचार-प्रसार होगा ।

भारतीय सिनेमा को हम स्वतंत्रता पूर्व तथा स्वतंत्रता पश्चात् के कालखंडों में बाँट सकते है। स्वतंत्रता पूर्व के सिनेमा पर महात्मा गांधी के प्रभाव को देखा जा सकता है। कविवर मैथिली शरण गुप्त, गया प्रसाद शुक्ल , “सनेही”, जयशंकर प्रसाद, ’’ माखन लाल चतुर्वेदी , सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला , रामधारी सिंह दिनकर , रामनरेश त्रिपाठी , सियाराम शरण गुप्त, सरोजिनी नायडू , सुभद्रा कुमारी चौहान आदि अनेक कवि तथा साहित्यकार राष्ट्रीय भावनाओं की अभिव्यक्ति देते हैं। वह तोड़ती पत्थर तथा शिक्षुक कविता ने भारतीय समाज में व्याप्त भय, भूख, तथा भ्रष्टाचार का चित्रण किया है।

राष्ट्रीय आंदोलन में सिनेमा या चलचित्र एक संपर्क रेखा है। जो पूर्ण रूपेण गांधी और राष्ट्रीय आंदोलन से प्रभावित रहा । भारत में कुछ फिल्मों का आगमन 20 वीं शताब्दी में ही हो गया था । 1921 में राष्ट्रीय आंदोलन तथा महात्मा गांधी से प्रभावित फिल्म भक्त विदुर। इस फिल्म का पात्र महात्मा गांधी से मेल खाता था, सरकार ने इस पर प्रतिबंध लगा दिया। फिर वंदेमातरम् आश्रम फिल्म 1927 में आयी। वह फिल्म सरकारी शिक्षा तंत्र को दर्शाती थी । सरकार ने उस पर भी प्रतिबंध लगा दिया। 1936 में नितिन बोस के निर्देशन में धरती मां बनी । उस समय साउंड का आगमन हो चुका था। धरती माता में राष्ट्रीय एकता का चित्रण हुआ । सरकार ने फिर अवरोध किया । 1938 में एक फिल्म आयी इसमें गांधी, नेहरू तथा चरखा का चित्रण हुआ था। महात्मा गांधी ,द्वारा प्रतिपादित आंदोलन ने भारतीय जनमानस को झकझोर दिया था।

गांधी जी की हत्या तथा भारत विभाजन के पश्चात एक फिल्म आयी ‘ गर्म हवा ’ जिसमें दो समुदायों के विद्वेष को दर्शाया गया था तथा उसने प्रश्न उठाया कि भारत विभाजन तथा धर्मांधता जैसे तत्व भारतीय एकता के लिए साक्षात् विष वृक्ष हैं। 1931 में फिल्म स्वराज ने अंग्रेजी राज तथा हिंद स्वराज्य पर ध्यान केंद्रित किया। देश की आजादी के बाद राष्ट्रभक्ति प्रमुख विषय रहा है । प्रसिद्व फिल्म निर्माता , निदेशक तथा अभिनेता मनोज कुमार ने उपकार , पूरब और पश्चिम , तथा रोटी कपड़ा और मकान में देशभक्ति परक गीत तथा देशभक्त नायक का चित्रण किया गया है। इसमें नायक राष्ट्रीय एकता सांप्रदायिक सद्भाव हेतु लड़ता तथा संघर्ष करता है। हरेक फिल्म मे नायक भारत है जो मनोज कुमार को भारत कुमार के रूप में प्रसिद्धी दिलाता है। चेतन आनंद की फिल्म हकीकत , एल. ओ. सी ,बॉर्डर तथा लक्ष्य ने राष्ट्रीय आंदोलन में महात्मा गांधी के योगदान पर जोर दिया है।

बड़ी मात्रा में पौन्ड तथा डालर कमाने के लिए भारतीयों ने विदेशों में पलायन किया । यह समाज न्याय-अन्याय तथा नीति-अनीति, घूस और बेईमानी से अर्जित धन के कारण फिल्मों के तरफ आकार्षित हुआ। ऑस्कर की आड़ में दीपा मेहता जैसी निर्देशिकाओें के आगमन ने भारतीय सिनेमा को प्रभावित किया । सिनेमा का मनोविज्ञान , सेक्स का मनोविज्ञान , हिंसा का मनोविज्ञान ने निर्माताओं – निर्देशकों को अपनी और खींचा । डॉलरी दर्शन सिंगापुर , न्यूयार्क , स्विट्जरलैंड के दृश्य को देखना चाहता है । वह कीमती साड़ियों तथा बिना वस्त्र के नायिका के अभिनय को देखना चाहता है डॉलरीकृत़ तथा पौंडीकृत अर्थव्यवस्था ने गांधी की ओर देखा। क्या गांधी बिक सकते है? उसने गांधी जी की प्रसंगिकता पर जोर दिया । सर रिचर्ड एटनबरों ने गांधी , श्याम बेनेगल ने द मेकिंग ऑफ महात्मा , अनुपम खेर ने ’ मैंने गांधी को नहीं मारा ’ तथा राजकुमार हीरानी ने भी लगे रहो मुन्ना भाई के माध्यम से महात्मा गांधी की व्याख्या की।

मि नाथूराम गोडसे बोलतोय का मंचन जब हो रहा था तो कुछ लोगों ने अडंगा डाला। यह इसलिए कि उक्त नाटक में महात्मा गांधी पर नाथूराम गोडसे किस प्रकार हावी होता है कुछ लोग महात्मा गांधी की मर्तियाँ रखते है, उनके फोटो लगाते है। लेकिन गांधी के विचारों को ही भूल जाते हैं। गांधी की पूजा करने की परंपरा सी बन जाती है।

1966 में बनी फिल्म द मेकिंग आफ महात्मा में गांधी दक्षिण अफ्रीका में मुकदमा लड़ने जाते हैं। वहाँ वह भारतीयों व अन्य एशियाई नागरिकों के साथ नस्लिय भेद व जातिय भेदभाव को देखकर द्रवित हो जाते हैं और शुरु होता है प्रथम सत्याग्रह तथा पत्रकारिता का अस्त्र। भारतीयों व मूल अफ्रीकियों के संघर्ष में सहभागिता के लिए डरबन में भी जाकर सत्याग्रह का बिगुल फूँकते है तथा वहाँ से द मेकिंग आफ द महात्मा बनकर ब्रिटिश दासता से मुक्ति के लिए भारत में आंदोलन करते हैं।

रिचर्ड एटनबरो द्वारा निर्देशित व निर्मित फिल्म ‘गांधी ‘ ने तो कमाल कर दिया । 1982 में बनी यह फिल्म मोहन दास करमचंद गांधी के जीवन पर केंद्रित थी। जिसमें महात्मा गांधी एक भारतीय वकील ,एक आंदोलनकारी तथा एक राष्ट्रीय नेता के रूप में दर्शाए गए हैं। इसमें असहयोग आंदोलन ,सत्याग्रह तथा अन्य गांधीवादी साधनों का यथा संभव सजीव चित्रण किया गया है। इसमें बेन किंग्सले ने गांधी की भूमिका निभायी । ग्यारह श्रेणियों में अकादमी पुरस्कार , आठ पुरस्कार तथा यह श्रेष्ठ सिनेमा घोषित हुआ। इसमें बने किंग्सले को श्रेष्ठनायक का पुरस्कार मिला।

महात्मा गांधी तथा नाथूराम गोडसे को लेकर 1989 में प्रदीप दलवी द्वारा निर्मित/निर्देशित नाटक मी नाथूराम गोडसे बोलतोय को महाराष्ट्र शासन ने प्रतिबंधित कर दिया। नाटक की शुरूआत दर्शकों के पीछे से होती है । नाथूराम गोडसे दर्शकों में से या ईधर -उधर कुछ ढूँढ़ रहे हैं। एकाएक वे दर्शकों को दिखायी दे देते हैं। दर्शकों के बीच वे कुछ प्रश्न खड़ा करते है कि मेरे बारे में जो कुछ भी बताया जाता है वह केवल गलत , सरकारी इतिहास में मुझे हिन्दू अतिवादी के रूप में पढ़ाया जाता है। नायक नाथूराम दर्शकों से पुछता है। कौन नाथूराम है? हमारे घर क्यों उनको लेकर जला दिए गए आप में से कुछ ने मेरे द्वारा तथा नाना आप्टे द्वारा निकलने वाली ‘ अग्रणी को पढ़ी व देखी होगी। आप में से कुछ ने मेरे भाषणों को पढ़ी तथा सुनी होगी । लेकिन ,आपने 30 जनवरी ,1948 के बाद मुझे दरकिनार कर दिया।आप जानते हो मैं कैसे बूढ़ा हो गया हूँ मैं 1990 में 88 वर्षों का हो गया हूँ क्या आप सोचते हो ?मेरे नवयौवन का रहस्य मेरी मृत्यु है।

मैं 19 मई,1910 को पैदा हुआ। मेरे पिता पोस्टल सेवा में थे तथा मां का नाम लक्ष्मी था।मेरा जीवन ठीक-ठाक ढ़ंग से चल रहा था।

लेकिन मैंने शरणार्थियों के कैंप को देखा। वे भोजन, वस्त्र और आवास हीन होकर तड़फड़ा रहे थे। मैने देखा कि तड़फते,बिलखते और असहायों के ऊपर दु:ख देने वाला मात्र गांधी ही था। इसके साथ ही 55 करोड़ रूपये की बात को नाथूराम गोडसे ने उठाया है। 13 जनवरी,1948 को गांधी ने 55 करोड़ देने के लिए उपवास शुरू किया तथा उसी तारीख को सरकार ने उक्त फैसले को स्वीकार कर लिया। मैंने गांधी वध का फैसला कर लिया।

जहनु बरुआ द्वारा निर्देशित तथा अनुपम खेर द्ववारा निर्मित फिल्म मैने गांधी को नहीं मारा के लेखक जहनु बरूआ तथा संजय चौहान थे। इस फिल्म के मुख्य कलाकारों में अनुपम खेर तथा उर्मिला मातोंडकर थी।

उत्तम चौधरी हिन्दी से अवकाश प्राप्त प्रोफेसर हैं तथा वह डीमेंसिया रोग से पीड़ित है। उत्तम चौधरी को विश्वास है कि उसने ही राष्ट्र पिता महात्मा गांधी की हत्या की। और वह गन खिलौना न होकर सही गन था जब उत्तम के पिता उसे मारते हैं तो वह कहता है कि मैने गांधी को नहीं मारा।उत्तम चौधरी को लगता है कि हत्या में उसका घर ही जेल तथा भोजन में विष मिलाया जा सकता है क्योंकि उसने ही गांधी को मारा है। डॉक्टर के खाने पर ही उत्तम चौधरी को विषरहित भोजन का एहसास होता है।उत्तम चौधरी कोर्ट में हैं तथा गन एक्सपर्ट जांच द्वारा यह बताता है कि Toy gun द्वारा किसी की हत्या नहीं की जा सकती।

फिल्म गांधी टू हिटलर दो विरोधी विचारधाराओं पर केन्द्रित है। लेखक,निर्देशक का यह कदम सराहने योग्य है कि उन्होनें गांधी और हिटलर को आमने-सामने रखकर यह दर्शाने की कोशिश भी की है कि वे युद्ध तथा हिंसा के मार्ग को छोड़कर शांति और हिंसा के मार्ग को अपनाएँ। अपने अंतिम समय में हिटलर एकांकी जीवन की ओर अग्रसर हो रहे हैं तथा गांधी भी अपने सहयोगियों से दु:खी एवं उदास हैं तथा उनकी हत्या हो जाती है।

वर्तमान समय में महात्मा गांधी को सिनेमा से जोड़ने की जरूरत है। ऐसा सिनेमा जो मानवीय मूल्यों से ओतप्रोत हो। लेकिन सिनेमा जगत गांधी जी के सिद्वांतों पर चल रहा है क्या? क्या सिनेमा गांधी जी के मूल्यों एवं सिद्वातों का निर्वहन कर रहा है । कोई मूर्ख भी व्यक्ति होगा तो वह यही कहेगा कि जिस प्रकार राजनीतिज्ञ , पत्रकार ,शिक्षाविद , उद्योगपति, विद्यार्थी और समाज सेवी , बार- बार गांधीवाद की हत्या कर रहे हैं। ठीक उसी प्रकार सिनेमा भी कर रहा है।जयप्रकाश चौकसे का यह कहना है कि आज सिनेमा गांधी जी के मूल्यों एवं सिद्धांतों का निर्वहन कर रहा है। यह सौ प्रतिशत गलत है।यदि गीतकार ,पटकथा लेखक, निर्माता तथा निर्देशक गांधी के रास्ते से चलकर फिल्म का निर्माण करते तो जिस्म, सात खून माफ ,राज-2, कहानी , शंधाई, मर्डर ,हिरोइन तथा डर्टी पिक्चर जैसी फिल्में नहीं बनतीं। भारतीय समाज में मूल्यों की स्थापना के लिए सिनेमा कर्मियों को मिल , बैठकर विचार करना होगा। किस प्रकार का हम फिल्म बनाएं जिससे युवाओं में सकारात्मक विचारों का प्रचार-प्रसार हो गांधी जी के सपनों का भारत का स्वप्न साकार हो ।

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