मजहब क्यों बने फिजूल का अड़ंगा?

डा. वेद प्रताप वैदिक

hindu muslimआज ऐसी दो घटनाएं सामने आईं, जिनसे पता चलता है कि मज़हब या धर्म या संप्रदाय को फिजूल ही अड़ंगा बनाया जाता है। ये दो घटनाएं हैं, केरल और मेरठ की! केरल के एक महिला कालेज में हिंदू लड़की नीरजा पढ़ती है। इस काॅलेज को ‘मुस्लिम एजुकेशन सोसायटी’ चलाती है। इस काॅलेज ने नीरजा का कालेज में आना इसलिए बंद कर दिया है कि उसने मुहम्मद रमीज़ नामक एक लड़के से शादी कर ली है। यह शादी दोनों ने कोर्ट में की है, क्योंकि दोनों के माता-पिता असहमत थे। दोनों ने शादी तो की है लेकिन दोनों में से किसी ने अपना मजहब नहीं बदला है।
आश्चर्य है कि एक हिंदू लड़की, एक मुसलमान के घर में बैठ गई, इसका विरोध एक मुस्लिम काॅलेज कर रहा है। कालेज मुसलमानों का है तो उन्हें खुश होना चाहिए कि उनकी एक संख्या बढ़ी। लेकिन वह खुश नहीं हैं। शायद इसलिए कि उस लड़की ने अपना धर्म नहीं बदला। वह हिंदू ही रही। इससे भी बड़ा कारण यह हो सकता है कि कालेज के संचालक डर गए हों। उन्हें लग रहा हो कि उनके कालेज की एक हिंदू लड़की यदि मुसलमान के घर बैठ गई तो कहीं केरल के हिंदू उन पर टूट न पड़ें। उनके काॅलेज में पढ़ रही सारी हिंदू लड़कियों के माता-पिता उनको काॅलेज से निकाल न लें। कारण जो भी हो, नीरजा और रमीज़ ने जो किया, उससे यह सिद्ध होता है कि मजहब या धर्म के मुकाबले प्रेम बड़ी चीज है। जिसने शुद्ध प्रेम का प्याला पिया हो उसके लिए मजहब क्या चीज है? वह धावक मंदिर और मस्जिद की उंची से उंची दीवारों को पलक झपकते ही लांघ जाता है। उसके सामने सारी सृष्टि एक खिलौना बन जाती है। दोनों प्रेमी एक-दूसरे के मजहब का सम्मान करते हैं लेकिन उन्हें वे अपने रास्ते का कांटा नहीं बनने देते। ऐसे लोग ही सच्चे धार्मिक होते हैं। वह धर्म ही क्या है, जो इंसान और इंसान में फर्क पैदा कर दे?
यही बात मेरठ में भी देखने में आई। मेरठ में एक अंधविद्यालय है, उसमें 7 साल की एक बच्ची, रिदा जे़हरा, पढ़ती है। वह देख नहीं सकती, लेकिन सुन सकती है और बोल सकती हे। उसने सुन-सुनकर गीता के श्लोक इस तरह रट लिये हैं, जैसे कि वह उन्हें पढ़कर सुना रही हो। उसके अध्यापक प्रवीण शर्मा ने उसे एक श्लोक-वाचन प्रतिस्पर्धा के लिए तैयार किया था। रिदा जेहरा से जब किसी ने पूछा कि तुम अल्लाह को मानती हो या भगवान को? तो उसका जवाब था, ‘मैं अंधी हूं। मैं तो उसे कभी देख नहीं पाउंगी। मैं तो उसकी इबादत (पूजा) करती हूं। गीता और कुरान दोनों पढ़कर।’ जेहरा के पिता रईस हैदर ने कहा कि ‘मैं चाहता हूं कि मेरी बच्ची पढ़-लिखकर बड़ी बने। इससे क्या फर्क पढ़ता है कि वह कुरान पढ़ती है या गीता? यदि वह दूसरे मजहब के बारे में भी जानकार है तो यह तो और भी अच्छी बात है।’ इस मामले में भी मजहब आड़े नहीं आ रहा। लेकिन हमारे मजहबी राजनीति में फंसे लोगों के लिए इंसानियत का यह मजहब बिल्कुल नागवार गुजरता है। उन्हें लगता है कि अगर लोग इसी तरह ढील लेने लगे तो हमारी दुकानों का क्या होगा?

2 COMMENTS

  1. मज़हब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना –
    हिंदी हैं हम वतन है हिंदुस्तान हमारा

    • कितने भारतीय इसको अपने जीवन में उतारने को तैयार हैं?

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