“ईश्वर प्रदत्त सद्धर्म वेद के प्रचार में प्रमुख बाधायें”

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-मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

महाभारत युद्ध के बाद सत्य वैदिक धर्म का प्रचार व प्रसार बाधित हुआ जिससे कालान्तर में अनेकानेक
अविद्यायुक्त मत-मतान्तर अस्तित्व में आये। इन अविद्यायुक्त मतों का प्रभाव दिन प्रतिदिन
बढ़ता गया जिससे इनके अनुयायियों की संख्या में वृद्धि होती गई और सत्य व सनातन वैदिक
मत के अनुयायियों की संख्या में कमी आती रही। स्थिति यह हो गई थी कि यदि ऋषि दयानन्द
सरस्वती (1825-1883) का आविर्भाव न हुआ होता तो तो सत्य वैदिक धर्म इतिहास की वस्तु बन
जाता और लोगों को सत्य वैदिक मत की मान्यताओं व सिद्धान्तों का कभी ज्ञान भी न होता है।
हमें आश्चर्य होता है कि वर्तमान समय में ज्ञान विज्ञान नई-नई खोज करके पुरानी सभी
अज्ञानयुक्त बातों का सुधार करते हुए नई ऊंचाईयों को प्राप्त कर रहा है परन्तु धर्म व मत-
मतान्तर के क्षेत्र में आज भी अविद्यायुक्त मत-मतान्तर सत्य वैदिक मान्यताओं व
सिद्धान्तों, जिनका प्रकाश सृष्टि के आरम्भ में सृष्टिकर्ता परमात्मा से हुआ था, उन्हें स्वीकार
करने के लिए तत्पर नहीं है। हमारा अध्ययन बताता है कि यदि संसार के सभी मत-मतान्तर
अपने अविद्यायुक्त वचनों व कथनों सहित अपनी समाज व अन्य मतों के लिये अहितकारी मान्यताओं, सिद्धान्तों,
परम्पराओं व योजनाओं में सुधार कर लें तो इससे विश्व के मनुष्यों को कहीं अधिक सुख व शान्ति प्राप्त होने के साथ सभी
मनुष्यों को इस जन्म व परजन्म में भी सुख आदि का लाभ प्राप्त हो सकता है।
वर्तमान समय में आर्यसमाज द्वारा वैदिक धर्म के प्रचार प्रसार में न्यूनता व शिथिलता दृष्टिगोचर होती है जिसका
एक कारण संगठन की दुर्बलतायें हैं तथापि अतीत में ऋषि दयानन्द व उनके प्रमुख अनुयायियों द्वारा देश देशान्तर में वेदों का
जो प्रचार किया गया व वर्तमान में भी किया जा रहा है, उसे मत-मतान्तरों के आचार्यों का सहयोग प्राप्त नहीं हुआ और न अब
ही हो रहा है। हम अपनी बात को एक उदाहरण से स्पष्ट करना चाहते हैं। विद्यालय में सभी छात्र अपने आचार्य से जो विषय
सुनते व पढ़ते हैं, तो उन्हें उस ज्ञान को ग्रहण एवं धारण करने में प्रसन्नता होती है। यदि धर्म व मत-मतान्तरों के क्षेत्र में हम व
अन्य लोग जब किसी विपक्षी विद्वान की सत्य बातों को भी सुनते हैं तो उस सत्य विचार व मत को ग्रहण करने में हममें से
अधिकांश की रुचि नहीं होती। ऐसा देखा जाता है कि लोग अपने मत की अविद्यायुक्त बातों को छोड़ना नहीं चाहते अपितु
दूसरे मत के लोगों से उन्हें बिना विचार व परीक्षा किये मनवाना चाहते हैं, ऐसा वर्तमान में हो भी रहा है, जिससे संघर्ष की
स्थिति बनती है या फिर सत्य ज्ञान के प्रचार का काम निष्प्रभावी या बन्द सा हो जाता है। यदि ऐसी स्थिति भविष्य में भी
चलती रही तो सत्य धर्म का प्रचार न होने के कारण विश्व के लोगों को उसका यथार्थ महत्व विदित नहीं होगा और इससे लोगों
की जो शारीरिक, आत्मिक एवं सामाजिक उन्नति व लाभ हो सकते हैं, वह भी नहीं होंगे। मत-मतान्तरों की मान्यताओं व
परम्पराओं के कारण देश व विश्व के हितकारी पशु-पक्षी आदि प्राणियों को जो मांसाहारी लोग कष्ट व दुःख देते आ रहे हैं, वह
भी बन्द नहीं होगा। निरन्तर निर्दोष, मूक, असहाय व मनुष्यों के लिये उपयोगी पशुओं की हिंसा व हत्या होती रहेगी जिससे
मनुष्यों के लिये अनेक प्रकार की समस्यायें उत्पन्न होती रहेंगी और मनुष्य जीवन सुख का धाम न होकर दुःख का धाम बना
रहेगा। अतः वर्तमान में इस बात की आवश्यकता अनुभव होती है कि सभी मनुष्य अपने मत के पक्षपात से ऊपर उठकर सत्य
के जानने व उसे ग्रहण करने में तत्पर हों। ऐसा होने पर ही मनुष्य को मननशील व सत्यासत्य का निर्णयकर्ता व धारणकर्ता
मनुष्य कहा जा सकता है अन्यथा मत-मतान्तरों के अस्तित्व से होने वाले परस्पर संघर्षों व समस्याओं से उत्पन्न होने वाले
कष्टों को दूर नहीं किया जा सकेगा।

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प्रश्न है कि सत्य मत वेद का प्रचार आवश्यक क्यों है? इसका उत्तर यह है कि सत्य व असत्य का ज्ञान एवं सत्य कर्मों
का आचरण ही मनुष्य जाति की उन्नति का कारण होते हैं। इसके विपरीत असत्य व अविद्या मनुष्य जाति की अवनति,
दुःखों, पराभव, परतन्त्रता व विनाश का कारण होती हैं। इसलिये सत्य मान्यताओं व सिद्धान्तों का प्रचार करना, असत्य का
खण्डन, सत्य का मण्डन, शास्त्रार्थ, शंका-समाधान आदि विद्वानों व ईश्वर की भक्ति करने वाले मनुष्यों के लिये आवश्यक
कार्य होते हैं। यही कारण था कि ऋषि दयानन्द ने इस कार्य में ही अपना जीवन लगाया था। उनके कार्यों का सुपरिणाम देश को
स्वतन्त्रता की प्राप्ति, ज्ञान-विज्ञान की उन्नति, मनुष्यों के दुःखों का नाश व सुखों की प्राप्ति, नारी सम्मान में वृद्धि आदि के
रूप में हुआ। ईश्वर व जीवात्मा के सत्यस्वरूप का प्रचार, यज्ञों का प्रचार, मिथ्या परम्पराओं की हानियों से लोगों का परिचय
भी ऋषि दयानन्द के प्रचार कार्यों से हुआ। इसके साथ अन्धविश्वासों तथा मिथ्या परम्पराओं का खण्डन, समाज सुधार एवं
सामाजिक उन्नति का कार्य भी हुआ। देश, समाज व मनुष्य जीवन की उन्नति का ऐसा कोई क्षेत्र नहीं है जहां आर्यसमाज ने
अपनी उपस्थिति दर्ज न कराई हो। आर्यसमाज ने ही कम आयु की विधवाओं को पुनर्विवाह का अधिकार दिया तथा विवाह को
जन्मना-जाति के स्थान पर गुण-कर्म व स्वभाव पर आधारित करने का समर्थन एवं प्रचार किया। इसका असर हम आज के
समाज में देख रहे हैं। देश ने आर्यसमाज की इस मान्यता को प्रायः स्वीकार कर लिया है। गुण-कर्म-स्वभाव पर आधारित
युवक-युवतियों के विवाह का कोई बुद्धिमान विरोधी नहीं है। आर्यसमाज देश का एक ऐसा समाज बन गया है जिसमें न केवल
आर्य हिन्दुओं के किसी वर्ग विशेष के लोग अपितु सभी जन्मना-जातियों के लोग सम्मिलित हुए हैं और आपस में एक परिवार
व सम्बन्धियों जैसा व्यवहार करते हैं। आर्यसमाज में देश-विदेश में स्थापित सभी मत-मतान्तरों के विद्वान व सामान्य लोग
भी सम्मिलित हुए हैं। आर्यसमाज से देश विदेश के अनेक निष्पक्ष विद्वान सहानुभूति एवं प्रेम रखते हैं। विदेशी विद्वानों ने
भी वेद के महत्व को स्वीकार किया है। ऋषि दयानन्द के ग्रन्थों व उसकी मान्यताओं का भी उन्होंने समर्थन व उसे मानवजाति
के लिये हितकारी बताया है। ऋषि दयानन्द के ग्रन्थ सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, संस्कारविधि, आर्याभिविनय,
गोकरुणानिधि, व्यवहारभानु आदि संसार से अविद्या दूर कर एक सत्य मत की स्थापना के लिये ही रचे गये हैं जिससे देश व
समाज में लोग मत-मतान्तरों के कारण उत्पन्न दूरी व द्वेष को मिटाकर आपस में प्रेम रहे एवं देश की उन्नति में साधन बने,
बाधक न बनें।
ऋषि दयानन्द के जीवन पर दृष्टि डालते हैं तो वह सत्य की खोज करने, सत्य को प्राप्त करने, उसे अपने जीवन में
अपनाने तथा उसका दूसरों में प्रचार करने जिससे सभी को सत्य ज्ञान व सत्यकार्यों का लाभ प्राप्त हो सके, प्रतीत होते हैं।
माता-पिता व आचार्यों अथवा अध्यापकों के कार्य को देंखे तो यह सभी भी सन्तानों व शिष्यों के जीवन से असत्य को हटाने
तथा सत्य को स्थापित करने का कार्य करते हुए दीखते हैं। आश्चर्य है कि आज के सरकारी स्कूलों में धर्म विषय नहीं पढ़ाया
जाता। आज सबसे बड़ी आवश्यकता है कि विश्व स्तर पर सभी कक्षाओं के बच्चों को धर्म के मूल तत्वों का ज्ञान कराया जाना
चाहिये। विद्यार्थियों को यह भी सिखाया जाना चाहिये कि मनुष्य को अपने जीवन में धार्मिक व सामाजिक मान्यताओं को
सत्य की कसौटी पर कस कर ही अपनाना चाहिये और सत्य को ही अपने आचरण में लाना चाहिये। धर्म व मत-मतान्तर की
जो बातें सत्य सिद्ध न हो, उनका त्याग कर देना चाहिये और दूसरों को भी इन बातों को बताना चाहिये। इक्कीसवीं शताब्दी
का विश्व समाज ऐसा समाज होना चाहिये जिसमें प्रत्येक मनुष्य संकल्प करें कि वह असत्य व अविद्या का त्याग करेगा और
किसी भी प्रकार की धार्मिक, सामाजिक एवं राजनैतिक मान्यताओं जिसमें किंचित भी असत्य हो, उसका त्याग करेगा और
केवल सत्य की परीक्षा कर उसे ही स्वीकार करेगा। हम यह भी अनुभव करते हैं कि देश के कानूनों में देश विरोधी कार्य करने,
देश विरोधी व स्वार्थ से प्रेरित होकर अनावश्यक नारे लगाने वालों, अनावश्यक स्वार्थपूर्ति के लिये आन्दोलन करने व नगर
बन्द, भारत बन्द तथा हड़ताल द्वारा दूसरों के लिये कठिनाईयां उत्पन्न करने वालों के लिये सख्त कानून होने चाहिये। सारे
देश में सभी लोगों के लिये एक कानून होना चाहिये। परसनल कानून मनुष्य को मनुष्य से दूर करते हैं। इसमें पक्षपात
दृष्टिगोचर होता है। इसका समाधान व निराकरण किया जाना चाहिये। देश की सरकार के मंत्रियों एवं अधिकारियों का
समुचित कार्य न करने पर उत्तरदायित्व निर्धारित किया जाना चाहिये जिससे सामान्य देशवासी को किसी प्रकार की कठिनाई

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न हो। कार्य में विलम्ब न हो, इसका भी ध्यान रखा जाना चाहिये। जो भी मंत्री व सरकारी अधिकारी जितना वेतन लेते हैं उसके
अनुसार ही उनको कार्य भी करना चाहिये। भारत के प्रधान मंत्री श्री नरेन्द्र मोदी जी बिना छुट्टी लिये वर्ष में 365 दिन आठ घंटे
के स्थान पर 18 घंटे तक कार्य करने का आदर्श उदाहरण हैं। ऐसा प्रधानमंत्री भारत को आजादी के बाद पहली बार मिला है।
मनुष्य अल्पज्ञ है और यह अपने प्रयोजन की सिद्धि, हठ, दुराग्रह एवं अविद्यादि को छोड़ कर विपरीत व्यवहार भी कर
सकता है। अतः मनुष्य कितना भी बड़ा व महान क्यों न हो, उसकी भी प्रत्येक बात की परीक्षा कर ही उसे स्वीकार करना
चाहिये। बड़े व महान लोगों से भी गल्तियां हुआ करती हैं। इसका अर्थ यह नहीं होता कि बड़े लोगों की बुरी बातों को भी स्वीकार
किया जाये। मनुष्यों के ज्ञान, कार्य तथा आचरण में नाना प्रकार की कमियां होती हैं। भारत के बड़े बड़े नेताओं में भी इसके
उदाहरण मिलते हैं। अतः ऐसी स्थिति में वेद अथवा ईश्वर का साक्षात्कार किये हुए ऋषियों व योगियों की व्यवस्थाओं को ही
स्वीकार करना चाहिये।
ईश्वरीय ज्ञान वेदों पर आधारित वैदिक धर्म पूर्ण है, सत्य है एवं प्रामाणिक है। यह मानव मात्र ही नहीं प्राणी मात्र का
हितकारी धर्म है। इसका विश्व में प्रचार होना चाहिये और सभी लोगों को इसको अपनाना चाहिये। प्रचार की कमी और मत-
मतान्तरों के लोगों के अपने अपने हित-अहित के कारण सत्य मत के ग्रहण और असत्य मत व विचारों के त्याग में बाधायें
विद्यमान हैं। जिस दिन विश्व के लोग सत्य के महत्व को समझ लेंगे और उसे स्वीकार करने को अपना कर्तव्य मान लेंगे, उस
दिन सभी मिथ्या मतों व उनकी मान्यताओं का तिरस्कार व व्यवहार दूर हो सकता है। ईश्वर से ही करते हैं कि वह इस कार्य
में सहायक हों। उन्होंने जैसे महर्षि दयानन्द द्वारा सत्य मान्यताओं का प्रचार कराया है, वैसा भी वह पुनः विश्व स्तर पर
अनेक महापुरुषों से पुनः करायें। सत्य के प्रचार व सत्य को स्वीकार करने से ही विश्व में सभी प्रकार के संघर्षों व आन्दोलनों,
परस्पर की समस्याओं सहित अज्ञान, अन्याय, शोषण, अभाव, हिंसा, अनैतिक व्यवहार, भ्रष्टाचार आदि का दमन व
निराकरण होगा। ओ३म् शम्।

-मनमोहन कुमार आर्य
पताः 196 चुक्खूवाला-2
देहरादून-248001
फोनः09412985121

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