मकर संक्रांति 

सूर्य का मकर राशि में प्रवेश करना ही मकर संक्रांति कहलाता है। इस दिन से सूर्य उत्तरायण हो जाता है। शास्त्रों में उत्तरायण की अवधि को देवताओं का दिन और दक्षिणायन को देवताओं की रात कहा गया है। इस दिन स्नान, दान, तप, जप और अनुष्ठान का अत्यधिक महत्व है।

संक्रान्ति पर्व के दिन से शुभ कार्यो का मुहूर्त समय शुरु होता है. इस दिन से सूर्य दक्षिणायण से निकल कर उतरायण में प्रवेश करते है. विवाह, ग्रह प्रवेश के लिये मुहूर्त समय कि प्रतिक्षा कर रहे लोगों का इन्तजार समाप्त होता है. इस दिन को देवता छ: माह की निद्रा से जागते है. सूर्य का मकर राशि में प्रवेश करना, एक नये जीवन की शुरुआत का दिन होता है. प्राचीन काल से ही इस दिन को शुभ माना जाता रहा है. हमारे ऋषियों और मुनियो के अनुसार इस दिन कार्यो को प्रारम्भ करना विशेष शुभ होता है.

 

मकरसंक्रांति का आध्यात्मिक और वैज्ञानिक महत्व के साथ साथ समाजिक उत्सव के रूप में बड़ा ही महत्व पूर्ण स्थान है। ज्योतिष शास्त्र में इस पर विस्तार से विचार किया गया है। सृष्टि के आरम्भ में परम पुरुष नारायण ने अपनी योगमाया से अपनी प्रकृति में प्रवेश कर सर्वप्रथम जल में अपना आधान किया। इस कारण से इन्हें हिरण्यगर्भ भी कहा जाता है। सर्वप्रथम होने कारण ये आदित्य देव भी कहलाते हैं। इस वर्ष रविवार 14 जनवरी 2018 को मनाई जाएगी।

 

सूर्य से ही सोम यानी चन्द्रमा ,पृथ्वी, बुद्ध एवं मंगल की उतप्ति हुई । जबकि आकाश से बृहस्पति जल से शुक्र एवं वायु से शनि को उत्त्पन्न करके ब्रह्मा जी ने मनः कल्पित वृत्त को बारह राशियों तथा बाइस नक्षत्रों में विभक्त किया। उसके बाद श्रेष्ठ ,मध्यम एवं निम्न स्रोतों से सत , रज एवं तम यानी की तीन तरह की प्रकृति का निर्माण किया।

 

इतना ही नही देवता, मानव,दानव,यक्ष ,गन्धर्व और अन्य चराचर जगत का निर्माण भी किया। ब्रह्माण्ड का निर्माण करके उसमे समस्त लोक स्थापित किये। जिसे आकाश गंगा या ब्रह्माण्ड की परिधि आदि कहते हैं। जिसमे असंख्य विद्याधर एवं प्राणी सदैव भ्रमण करते रहते हैं

 

“मकर-संक्राति”अर्थात सूर्य का शनि की राशि “मकर” में प्रवेश होना। सिर्फ यही त्यौहार है जिसकी तारीख लगभग निश्चित है। यह “उत्तरायण पुण्यकाल” के नाम से भी जाना जाता है। इस काल में लोग गंगा-स्नान करके अपने को पाप से मुक्त करते है।

 

शास्त्रों में इस दिन को देवदान पर्व भी कहा गया है.सम्पूर्ण दिन पुण्यकाल हेतु दान, स्नान आदि का सर्वोत्तम मुहूर्त है. माघ मास में सूर्य जब मकर राशि में होता है तब इसका लाभ प्राप्त करने के लिए देवी-देवताओं आदि पृथ्वी पर आ जाते है. अतः माघ मास एवं मकरगत सूर्य जाने पर यह दिन दान- पुण्य के लिए महत्वपूर्ण है. इस दिन व्रत रखकर, तिल, कंबल, सर्दियों के वस्त्र, आंवला आदि दान करने का विधि-विधान है.

 

शास्त्रों में सूर्य को राज, सम्मान और पिता का कारक कहा गया है. और सूर्य पुत्र शनि देव को न्याय और प्रजा का प्रतीक माना गया है. ज्योतिष शास्त्र में जिन व्यक्तियों की कुण्डली में सूर्य-शनि की युति हो, या सूर्य -शनि के शुभ फल प्राप्त नहीं हो पा रहे हों, उन व्यक्तियों को मकर संक्रान्ति का व्रत कर, सूर्य-शनि के दान करने चाहिए. ऎसा करने से दोनों ग्रहों कि शुभता प्राप्त होती है. इसके अलावा जिस व्यक्ति के संबन्ध अपने पिता या पुत्र से मधुर न चल रहे हों, उनके लिये भी इस दिन दान-व्रत करना विशेष शुभ रहता है.

 

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पतंग उड़ाने का महत्व- मकर संक्रांति पर पतंग उड़ाने के पीछे कोई धार्मिक कारण नहीं है। संक्रांति पर जब सूर्य उत्तरायण होता है तब इसकी किरणें हमारे शरीर के लिए औषधि का काम करती है। पतंग उड़ाते समय हमारा शरीर सीधे सूर्य की किरणों के संपर्क में आ जाता है जिससे सर्दी में होने वाले रोग नष्ट हो जाते हैं। और हमारा शरीर स्वस्थ रहता है।
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तिल का महत्व- संक्रांति के दिन सूर्य मकर राशि में प्रवेश करते हैं। मकर राशि के स्वामी शनि देव हैं, जो सूर्य देव के पुत्र होते हुए भी सूर्य से शत्रु भाव रखते हैं। इसलिए शनिदेव के घर में सूर्य की उपस्थिति के दौरान शनि उन्हें कष्ट न दें, इसलिए मकर संक्रांति पर तिल का दान किया जाता है।
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दान का महत्व- मकर संक्रांति के दिन ब्राह्मणों को अनाज, वस्त्र, ऊनी कपड़े, फल आदि दान करने से शारीरिक कष्टों से मुक्ति मिलती है। कहते हैं कि इस दिन किया गया दान सौ गुना होकर प्राप्त होता है। मकर संक्रांति के दिन दान करने वाला व्यक्ति संपूर्ण भोगों को भोगकर मोक्ष को प्राप्त होता है।
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पूर्व  में संक्रांति का पर्व मनाए जाने का क्रम— 
16 व 17वीं शताब्दी में 9 व 10 जनवरी
17 व 18वीं शताब्दी में 11 व 12 को
18 व 19वीं शताब्दी में 13 व 14 जनवरी को
19 व 20वीं शताब्दी में 14 व 15 को
21 व 22वीं शताब्दी में 14, 15 और 16 जनवरी तक मनाई जाने लगेगी।
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हर दो सालवर्ष  में बदलेगा क्रम— 
अगले वर्ष  2016 में भी मकर संक्रांति 15 को ही मनेगी। फिर ये क्रम हर दो साल के अंतराल में बदलता रहेगा। लीप ईयर वर्ष आने के कारण मकर संक्रांति वर्ष 2017 व 2018 में वापस 14 को ही मनेगी। साल 19 व 20 को 15 को मनेगी। ये क्रम 2030 तक चलेगा।
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खगोलीय मत- अंतर आयन गति से—- 
मकर संक्रांति का अंतर पृथ्वी की आयन गति से होता है। आसमान का वर्नल इक्वीनोक्स (वैज्ञानिक गणना का एक काल्पनिक बिंदु) खिसकता रहता है। यह 26 हजार साल में एक बार आसमान का एक चक्कर पूरा करता है, जो हर साल 52 सेकंड आगे खिसक जाता है। समय के साथ बदलाव जुड़ते-जुड़ते करीब 70 से 80 साल में एक दिन आगे बढ़ जाता है।
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तिल और गुड़ का सेवन- तिल में कार्बोहाइड्रेट, कैल्शियम तथा फॉस्फोरस पाया जाता है। इसमें विटामिन बी और सी की भी काफी मात्रा होती है। यह पाचक, पौष्टिक, स्वादिष्ट और स्वास्थ्य रक्षक है। गुड़ में भी अनेक प्रकार के खनिज पदार्थ होते हैं। इसमें कैल्शियम, आयरन और विटामिनों भरपूर मात्रा में होता है। गुड़ जीवन शक्ति बढ़ाता है। शारीरिक श्रम के बाद गुड़ खाने से थकावट दूर होती है और शक्ति मिलती है। गुड़ खाने से हृदय भी मजबूत बनता है और कोलेस्ट्रॉल घटता है। तिल व गुड़ मिलाकर खाने से शरीर पर सर्दी का असर कम होता है। यही वजह है कि मकर संक्रांति का पर्व जो कड़ाके की ठंड के वक्त जनवरी महीने में आता है, उसमें हमारे शरीर को गर्म रखने के इरादे से तिल और गुड़ के सेवन पर जोर दिया जाता है।
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जानिए मकर संक्रांति 2018 का सभी 12 राशियों पर प्रभाव—

 

मेष राशि  -सम्मान बढ़ेगा
वृषभ राशि – तनाव की संभावना
मिथुन राशि – धन लाभ होगा
कर्क राशि -हानि की संभावना
सिंह राशि -भूमि लाभ
कन्या राशि -समृद्धि की संभावना
तुला राशि – आर्थिक लाभ होगा
वृश्चिक राशि -चिंता बढ़ेगी,
धनु राशि -सुख मिलेगा
मकर राशि – लाभ होगा
कुम्भ राशि -पदोन्नति होगी
मीन राशि  -कष्ट मिलेगा
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पृथ्वी की गति से राशियों में परिवर्तन—
पृथ्वी की गति से राशियों में परिवर्तन दिखाई देता है। इसे सुमेरु कहते हैं सुमेरु के दोनों ओर उतरी और दक्षिणी ध्रुव स्थित है। जब सूर्य उत्तरी धुव में रहता है तब मेष आदि राशियों में देवताओं को उनका दर्शन होता है। जब दक्षणि गोलार्ध में रहता है तब तुला आदि राशियों में वह असुरों को दिखाई देता है। ज्योतिष शास्त्र के अनुसार सूर्य जब एक राशिसे दूसरी राशि में प्रवेश करता है उस काल को संक्रमण काल कहते हैं।

बारह राशि के बारह संक्रांति होते हैं लेकिन धनु से मकर में संक्रमण सबसे महत्वपूर्ण है। इसका सबसे बड़ा कारण यह है की सूर्य अपनी चरम यात्रा के बाद धनु से मकर में प्रवेश करता है। इसीलिए मकर संक्रांति का महत्व भारतीय संस्कृति में आदि काल से महत्वपूर्ण रहा है।

मकर संक्रांति को कई दृष्टियों से देखा जाता है। -इसे पिता और पुत्र यानी सूर्य एवं शनि के निकटता के रूप में भी देखा जाता है। वैसे ज्योतिष का मानना है कि शनि और सूर्य एक साथ नही होते हैं लेकिन मकरसंक्रांति के दिन आदित्य (सूर्य) देव स्वयं शनिदेव के यहां पहुंचते हैं। चूँकि मकर राशि का स्वामी शनि है और मकरसंक्रांति के दिन सूर्य अपनी राशि से निकलकर मकर राशि में प्रवेश करते हैं इसलिए इसे पिता पुत्र के नजदीकी के रूप में जाना जाता है।

कहते हैं की भीष्म पितामह ने सूर्य के उत्तरायण होने का इन्तजार अपने शरीर को त्यागने के लिए किया था। कहते हैं कि मकरसंक्रांति के ही दिन भगवान विष्णु ने दैत्यों का दलन करके उनसे विधिवत युद्ध के समाप्ति की घोषणा की थी । सभी दैत्यों के मस्तक को काटकर मंदार पर्वत के अंदर भगवान विष्णु ने स्वयं दवा दिया था। आज भी मंदार पर्वत पर बिहार के बांका जिला में इस अवसर पर विशाल मेले का आयोजन बड़े ही धूम धाम से किया जाता है।

मकरसंक्रांति के दिन ही भागीरथ ने अपने पूर्वजों का तर्पण किया था। इसी दिन गंगा सागर में जाकर समाहित हुई और महाराजा सगर के पुत्रों का उद्धार किया, इसलिए कई मायने में मकरसंक्रांति महत्वपूर्ण हो जाती है। आज भी गंगा सागर मेला के बारे में कहा जाता है कि सारे तीर्थ बार बार गंगा सागर एक बार।

वैसे सायन गणना के अनुसार 22 दिसंबर को सूर्य उत्तरायण एवं 22 जुन को दक्षिणायन होता है। मिथिलांचल में इस अवसर पर खिचड़ी पर्व का आयोजन होता है। इसमें चावल दाल के साथ तिल डालकर लोग भोजन बनाते हैं।

सब कुछ मिलाकर बनाने का मतलब एकता का प्रतीक होता है। धर्म शास्त्र में नियमन की परम्परा आदिकाल से चली आ रही है। मकर शंक्रान्ति के दिन लोग तिल का तेल लगाकर नदियों में स्नान करते हैं एवं तिल गुड चावल आदि का भोजन एवं दान करते हैं इससे अक्षय पुण्य की प्राप्ति होती है।यह भी कहा जाता है  जो लोग आज के दिन स्नान नही करते हैं उन्हें सात जन्मों तक रोगी रहना पड़ता है। इस अवसर पर पंजाब में लोहड़ी एवं दक्षिण भारत में पोंगल का त्यौहार बड़े धूमधाम से मनाते हैं।

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