वेद और सत्यार्थप्रकाश के स्वाध्याय को जीवन का अंग बनायें

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मनमोहन कुमार आर्य

मनुष्य का जीवात्मा अल्पज्ञ होता है। अल्पज्ञ होने के कारण इसे ज्ञान अर्जित करना होता है। ज्ञान माता-पिता व आचार्यों सहित पुस्तकों वा ग्रन्थों से प्राप्त होता है। माता-पिता का ज्ञान तो सीमित होता है अतः उनसे जितना सम्भव हो वह ज्ञान तो लेना ही चाहिये। इसके अतिरिक्त विद्यालय जाकर आचार्यों से भी अनेक विषयों का ज्ञान प्राप्त करना चाहिये। इस प्रकार से ज्ञान प्राप्त कर लेने के बाद भी मनुष्य का ज्ञान कभी पूर्ण नहीं होता। उसके पढ़े हुए ज्ञान को स्मरण रखने के लिए उसका बार बार पाठ व चिन्तन मनन करना होता है, वहीं नये विषयों का ज्ञान भी प्राप्त करना होता है जिससे आवश्यकता पड़ने पर उससे लाभ उठा सके। जिन मनुष्यों ने अनेक विषयों का ज्ञान प्राप्त किया हुआ होता है उनकी समाज में अधिक प्रतिष्ठा होती है। ज्ञान में अनन्त सुख बताया जाता है। ज्ञान की प्राप्ति का स्रोत वेद, वेदांग, दर्शन, उपनिषद, सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका आदि पुस्तकें भी होती हैं। इनकी आगे चलकर चर्चा करेंगे।

 

पुस्तकों की चर्चा से पूर्व हम यह बताना चाहते हैं कि ईश्वर ‘सर्वज्ञानमय’ है। इसी से ईश्वर ने सृष्टि को बनाया व इसका पालन कर रहा है। साथ ही ईश्वर मनुष्यों आदि प्राणियों को उत्पन्न कर उनके कर्मानुसार सुख व दुःखों की व्यवस्था कर रहा है। संसार में जितना भी ज्ञान हैं वह सब और संसार में व पुस्तकों आदि में जो ज्ञान उपलब्ध नहीं हैं, उस ज्ञान की सत्ता भी ईश्वर में पूर्ण रूप में विद्यमान है। अतः मनुष्यों को सभी प्रकार के ज्ञान की प्राप्ति के लिए ईश्वर की शरण लेनी चाहिये। ईश्वर से ज्ञान कैसे प्राप्त किया जा सकता है? इसका उत्तर है कि हमें ईश्वर के ज्ञान की पुस्तक वेद और वेदों के उच्च कोटि के विद्वान जिन्हें ऋषि कहा जाता है उनके ग्रन्थों का अध्ययन करना चाहिये। इस अध्ययन के बाद हम जब ईश्वर के सान्निध्य में उपासना करने के लिए बैठेंगे और ईश्वर से ज्ञान की याचना करेंगे तो निश्चय ही हमारी पात्रता के अनुसार ईश्वर से हमें ज्ञान प्राप्त होगा। इसकी विधि यही है कि शुद्ध व पवित्र होकर तथा आलस्य का त्याग कर जब हम अपनी आत्मा में ईश्वर की उपस्थिति का अनुभव करने का प्रयत्न करते हैं और इसके साथ ही ईश्वर की वेदमंत्रों से स्तुति, प्रार्थना व उपासना करते हैं तो ईश्वर के सान्निध्य से जीवात्मा के बुरे गुण, कर्म व स्वभाव छूटने लगते हैं।

 

यह ऐसा ही होता है कि जैसे हम किसी सज्जन व्यक्ति की लम्बे समय तक संगति करें तो हमारे भीतर उसके अनुरूप गुण, कर्म व स्वभाव आ जाते हैं और उसके विपरीत गुण, कर्म व स्वभाव सुप्त, लुप्त व नष्ट हो जाते हैं। ईश्वर की शरण में बैठकर ईश्वर व जीवात्मा के विषय में चिन्तन व मनन करने से भी जीवात्मा में ईश्वर के अनुरूप गुण, कर्म व स्वभाव का प्रकट होना वा बदलना आरम्भ हो जाता है जो समय के साथ वृद्धि को प्राप्त होता जाता है। विद्वानों में इसी प्रक्रिया से गुणों की वृद्धि देखी जाती है। ईश्वर की स्तुति, प्रार्थना, उपासना, चिन्तन-मनन व ध्यान ही योग व उपासना कहलाती है। यह एक प्रकार से ‘स्व’ अर्थात् अपने आप का अध्ययन करना होता है। अपने आप के अध्ययन में हमें यह भी ज्ञान होना चाहिये कि जो ‘स्व’ या ‘मैं’ कहलाता है उसका जन्म कैसे व किससे हुआ, किस उद्देश्य से हुआ, उसकी प्राप्ति कैसे हो सकती है, प्राप्ति के बाद हमारी क्या अवस्था होगी, यदि हम अपने कर्तव्य-कर्मों का पालन नहीं करेंगे तो हमारी क्या स्थिति होगी आदि इन सबका चिन्तन मनन करते हुए इनके उत्तर वैदिक साहित्य से प्राप्त होते हैं। जिन्हें स्वाध्याय कर उत्तर प्राप्त करने के स्थान पर शीघ्र उत्तर चाहियें वह उन विषयों के विषेयज्ञ विद्वानों से इनके उत्तर जान सकते हैं। ऐसा करके तुरन्त जिज्ञासु जन शीघ्र ही इन विषयों में निर्भ्रान्त ज्ञान प्राप्त कर सकेंगे। स्वामी दयानन्द जी ने भी ऐसे प्रश्नों के उत्तर अपने विद्या गुरु स्वामी विरजानन्द सरस्वती सहित अपने आत्म चिन्तन व स्वाध्याय आदि से प्राप्त किये थे।

 

स्वाध्याय का उद्देश्य ज्ञान प्राप्ति है। स्व अर्थात् अपना अध्ययन व ज्ञान प्राप्त करना ही स्वाध्याय कहलाता है। ईश्वर व सृष्टि का सत्य ज्ञान प्राप्त करना भी स्वाध्याय के अन्तर्गत आता है। इसके लिये हमें विद्या के ग्रन्थों की प्राप्ति कर उनका अध्ययन करना होता है। विद्या के प्रमुख ग्रन्थों में सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ की महिमा सर्वोपरि है। सत्यार्थप्रकाश में मनुष्य के मन व मस्तिष्क में उत्पन्न होने वाले प्रायः सभी प्रश्नों के उत्तर मिल जाते हैं। ईश्वर व जीवात्मा सहित प्रकृति, मूल प्रकृति व कार्य प्रकृति दोनों, का ज्ञान भी प्राप्त हो जाता है। मनुष्य के सभी कर्तव्यों का ज्ञान भी सत्यार्थप्रकाश के अध्ययन से प्राप्त होता है। संसार में मत-मतान्तरों ने अज्ञान व अविद्या का विस्तार किया है जिससे संसार के मनुष्यों का जीवन सुख के स्थान पर दुःखों का साधन बन गया है। यदि यह मत-मतान्तर व अविद्या से ग्रस्त इनके आचार्यगण न होते तो संसार में इतना अधिक दुःख न होता। सत्यार्थप्रकाश के अध्ययन से सभी मत-मतान्तरों की अविद्या का दिग्दर्शन भी होता है। धर्म व अधर्म, विद्या व अविद्या, बन्धन व मोक्ष, उपासना की विधि व उपासना से लाभ सहित पठन पठान की विधि, त्याज्य व पढ़ने योग्य ग्रन्थ सहित आचार्य कैसे हों, वेद व उनके अनेक रहस्यों आदि विषयों का विस्तार से ज्ञान होता है जिससे मनुष्य का जीवन आशंकाओं से रहित और ज्ञान से युक्त होकर सुखों का आधार व साधन बन जाता है। अतः सभी मनुष्यों को सत्यार्थप्रकाश अवश्य पढ़ना चाहिये।

 

स्वाध्याय में दर्शन, उपनिषद, मनुस्मृति, चरक, सुश्रुत आदि आयुर्वेद व सूर्य सिद्धान्त आदि ज्योतिष विषयक ग्रन्थ, रामायण और महाभारत के अध्ययन से भी लाभ होता है। 6 वेदांग भी यदि पढ़े जा सकें तो सभी को पढ़ने चाहियें। इसके बाद वेद का अध्ययन करना चाहिये। वेदाध्ययन से पूर्व ऋषि दयानन्द की ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका का अध्ययन आवश्यक है। वेदाध्ययन कर लेने पर मनुष्य का ईश्वर, जीवात्मा और मनुष्य जीवन के कर्तव्य व अकर्तव्यों का ज्ञान पूर्ण हो जाता है। सांसारिक विषयों का ज्ञान भी सभी मनुष्यों को प्राप्त करना चाहिये। इसके लिए अनेक ग्रन्थ उपलब्ध हैं। उन विषयों की पुस्तकों का अध्ययन कर उन्हें समझा जा सकता है। यह स्वाध्याय मनुष्य को प्रातःकाल व सांयकाल पारिवारिक व सामाजिक जीवन की व्यवस्तताओं सहित व्यवसाय के कार्यों से अवकाश मिलने पर किया जा सकता है। ऐसा करने से मनुष्य अच्छा ज्ञानी बन जाता है और संसार के सभी रहस्यों से परिचित हो जाता है। वह एक अच्छा वक्ता, लेखक, धर्म प्रचारक, लोगों का प्रेरक व मार्गदर्शक भी बन सकता है व बन जाता है। इतना अध्ययन कर मनुष्य उपासना के मर्म को भी जान लेता है। यज्ञ करने से लाभ व यज्ञ की विधि से भी परिचित हो जाता है। हमें लगता है कि ऐसा जीवन एक पूर्ण मनुष्य का जीवन होता है।

ज्ञान का महत्व है परन्तु वह मनुष्य के आचरण में भी आना चाहिये। इस प्रकार से ज्ञान प्राप्त मनुष्य को अपना आचरण पूर्णतः अपने ज्ञान के अनुरूप रखना चाहिये। यदि वह ऐसा करेंगे तो उन्हें इस जन्म व परजन्म में लाभ होगा साथ ही ऐसे सदाचारी मनुष्यों से देश व समाज का भी भला होगा। ऐसे सज्जन व विद्वान लोगों से देश व समाज का भला होता है, उपकार किसी का नहीं होता। यदि देश व विश्व में ऐसे लोगों की वृद्धि होती रहे, तो विश्व में सुख व शान्ति की स्थापना हो सकती है। आज विश्व में विश्व युद्ध के खतरे मण्डरा रहे हैं। यदि वेदों के उत्तम विचार सभी देशों में पहुंच जायें तो लोग युद्ध की बातें न कर परस्पर अपने अपने देशों के लोगों के जीवन की उन्नति व उनके सुखों में वृद्धि की बातें करेंगे। इसके सभी देश एक दूसरे के साथ सहयोग करेंगे। ऐसा ही वेदों के अध्ययन व प्रचार से होता है। अतः स्वाध्याय को सभी लोग अपने जीवन का अंग बनायें और अध्ययन पूरा कर देश देशान्तर में वेद व वैदिक साहित्य का प्रचार करें। एक बार हमने देश व विदेश के लोगों को वैदिक साहित्य का महत्व बता दिया तो फिर वह स्वयं ही सर्वत्र प्रचार कर सकते हैं। इस स्वप्न को पूरा करने के लिए ऋषि भक्तों की भूमिका सबसे अधिक महत्वपूर्ण हैं। वह अपने कर्तव्य को समझे और वेद प्रचार के कार्य में निकल पड़े। तब तक न रूके जब तक कि सारा विश्व आर्य व श्रेष्ठ विचारों वाला न बन जाये। हम वेद और सत्यार्थप्रकाश आदि ग्रन्थों का स्वाध्याय नित्य प्रति किया करें। स्वाध्याय में प्रमाद कभी न करें। वेदों से हम सदैव जुड़े रहें और दूसरों को भी वेदों की शरण में लायें जिससे वह भी वेदों से लाभान्वित हो सकें।

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