कुपोषण: राष्ट्रीय शर्म बनाम राष्ट्रीय भ्रम

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राजेश कश्यप

हाल ही में प्रधानमंत्री ने भूख और कुपोषण सर्वेक्षण रिपोर्ट (हंगामा-2011) जारी करते हुए, स्पष्टतः स्वीकार किया कि देश में भूखमरी और कुपोषण की स्थिति राष्ट्रीय शर्म का विषय है। निःसन्देह यह रिपोर्ट दुनिया के सबसे बड़े लोकतांत्रिक और विश्व की दूसरी सबसे तेज बढ़ती अर्थव्यवस्था वाले देश को हकीकत का आईना दिखाती है और इसके साथ ही उसके इस भ्रम को भी तोड़ती प्रतीत होती है कि वह वैश्विक महाशक्ति बनने के बिल्कुल करीब है। रिपोर्ट के आंकड़े इस कटू हकीकत के द्योतक हैं कि सत्तारूढ़ सरकारों द्वारा प्रस्तुत की जाने वाली आंकड़ों की बाजीगरी कितनी बड़ी सुनियोजित चाल और आम जनता के प्रति धोखाधड़ी है? ‘सिटीजन्स अलायंस अगेंस्ट मालन्यूट्रीशन’ के अनुरोध पर ‘नंदी फाउण्डेशन’ द्वारा करवाए गए इस सर्वेक्षण के तथ्यों के अनुसार देश के 42 प्रतिशत बच्चे कुपोषण का शिकार हैं और उनका वजन सामान्य से कम है। हालांकि इससे पूर्व यह 53 प्रतिशत था। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह द्वारा इसे राष्ट्रीय शर्म करार देना, सर्वथा उचित और स्वागत योग्य ईमानदार आत्म-स्वीकारोक्ति कहा जाना चाहिए। देश के प्रधानमंत्री की यह ईमानदार आत्म-स्वीकृति सहज बोध कराती है कि सरकारी दावे, ‘हो रहा है भारत का नवनिर्माण’ में कितना दम है?

यह सर्वेक्षण 9 राज्यों के 112 जिलों में 73,000 घरों के 1,09,093 बच्चों और 74,000 माताओं पर आधारित है। ‘सिटीजन्स अलायंस अगेंस्ट मालन्यूट्रीशन’ में युवा सांसद, कलाकार, निर्देशक, सामाजिक कार्यकर्ता और नीति निर्माता शामिल थे। रिपोर्ट के अनुसार देश के 100 जिलों के 60 प्रतिशत बच्चों की वृद्धि भी सामान्य नहीं हो रही है। सबसे बड़ी हैरानी वाली बात तो यह है कि देश की 92 प्रतिशत माताओं ने ‘कुपोषण’ शब्द कभी सुना तक नहीं है। सरकार व सर्वेक्षणकर्ताओं ने इस हकीकत को भी सहज स्वीकार किया है कि मात्र ‘एकीकृत बाल विकास योजना’ (आईसीडीएस) से देश के भावी कर्णधारों को कुपोषण के भंवरजाल से नहीं निकाला जा सकता।

‘हंगामा-2011’ सर्वेक्षण रिपोर्ट में कई चौंकाने वाले तथ्य प्रकाश में आए हैं। सर्वेक्षण में शामिल किए गए 100 जिलों में से 41 जिले तो अकेले उत्तर प्रदेश के हैं। उत्तर प्रदेश के इन जिलों में 50 फीसदी बच्चे कुपोषण के शिकार और 70 फीसदी बच्चे ऐसे हैं, जिनकी सामान्य रूप से वृद्धि नहीं हो पा रही है। इस मामले में अन्य प्रदेशों बिहार, उड़ीसा, राजस्थान, झारखण्ड, मध्य प्रदेश व छतीसगढ़ आदि की भी स्थिति काफी बदतर है। सर्वेक्षण के अन्य महत्वपूर्ण तथ्यों में यह भी सामने आया है कि निम्न आय वर्ग के परिवारों और अनुसूचित जाति व अनजाति से संबधित बच्चों में कुपोषण का स्तर अधिक है। अशिक्षित माताओं के बच्चे सर्वाधिक कुपोषित पाए गए।

देश के भावी कर्णधारों के कुपोषण से संबंधित चिंतित तथ्यों वाली यह कोई नई रिपोर्ट नहीं है। इससे पूर्व भी कई सर्वेक्षणों और अध्ययनों की रिपोर्टें इस समस्या से अवगत करवा चुके हैं। लेकिन, उन्हें आश्चर्यजनक तरीके से नजरअंदाज कर दिया गया। विश्व स्तरीय रिपोर्टों के अनुसार विश्व में कुल 14 करोड़ 60 लाख बच्चे कुपोषण का शिकार हैं, जिनमें 5 करोड़, 70 लाख बच्चे भारतीय हैं। इसका अभिप्राय यह है कि दुनिया के हर तीन कुपोषित बच्चों में एक भारतीय है। संयुक्त राष्ट्र की मानव विकास सूचकांक के आंकड़े भी काफी समय से चीख-चीखकर बतला रहे हैं कि भारत में महिलाओं और बच्चों में कुपोषण की स्थिति अत्यन्त चिन्तनीय है और कई अफ्रीकी निर्धन देशों से भी बदतर है। बाल कुपोषण के मामले में भारत की स्थिति अन्य देशों नेपाल (48 प्रतिशत), बांग्लादेश (48 फीसदी), इथोपिया (47 प्रतिशत), अफगानिस्तान (39 प्रतिशत), सब-सहारा अफ्रीका (24 प्रतिशत), थाईलैण्ड (18 प्रतिशत), चीन (8 प्रतिशत) आदि की तुलना में बेहद शर्मनाक है। यूनिसेफ के पोषण संबंधी मामलों के प्रमुख डॉ. विक्यर अनुयाओं के मुताबिक भारत में वर्ष 2005-06 के दौरान 6 करोड़ 10 लाख (46 प्रतिशत) बच्चे कुपोषण के अभिशाप से जूझ रहे थे और 2 करोड़ 5 लाख बच्चे जिन्दा लाश की तरह जीने को बाध्य थे। इन अत्यन्त गम्भीर एवं चिन्तनीय तथ्यों के बावजूद सरकार का उदासीन रवैया, उसकी नीयत एवं नीतियों पर गहरे प्रश्नचिन्ह खड़े करता है।

यह बेहद आश्चर्य की बात है कि देश में बाल-कुपोषण की समस्या से निजात पाने के लिए ‘एकीकृत बाल विकास योजना’ (आईसीडीएस) योजना के अलावा पंचवर्षीय योजनाओं में भी करोड़ों-अरबों की राशि निर्धारित की जाती है। इसके बावजूद समस्या लगभग जस की तस ही है। यह भी कितनी बड़ी विडम्बना का विषय है कि देश में प्रतिवर्ष हजारों-लाखों टन अनाज देखरेख के अभाव में गोदामों में सड़ जाता है और देश के 20 करोड़ से अधिक व्यक्ति, बच्चे एवं महिलाएं भूखे पेट सोने को विवश होते हैं। सरकारी आंकड़ांे के मुताबिक वर्ष 1997 से अक्तूबर, 2007 तक की दस वर्षीय अवधि में एफसीआई के गोदामों में 10 लाख, 37 हजार, 738 मीट्रिक टन अनाज सड़ गया। इस अनाज से अनुमानतः एक करोड़ से अधिक लोग एक वर्ष तक भरपेट खाना खा सकते थे। लेकिन, सरकार को यह मंजूर नहीं हुआ। सबसे रोचक बात तो यह भी है कि गत वर्ष 12 अगस्त, 2011 को सर्वोच्च न्यायालय द्वारा सरकार को आदेषात्मक सुझाव दिया कि अनाज सड़ाने की बजाय गरीबों को ‘सार्वजनिक वितरण प्रणाली’ (पीडीएस) के जरिए मुफ्त बांटने दिया जाए। लेकिन, इसे भी सरकार ने नकार दिया। कितने बड़े शर्म की बात है कि एक तरफ देश के लोग भूख से बेहाल आम की गुठली, घास, सिलीकॉन युक्त मिट्टी के ढ़ेले, चूहे आदि खाकर भयंकर बीमारियों का शिकार होने को विवश होते हैं, दूसरी तरफ सरकारें ‘फील गुड’ और ‘नव-निर्माण’ का अहसास कराने के लिए करोड़ों रूपए विज्ञापनों व प्रचार-प्रसार पर खर्च करती रहती हैं और बढ़ती जीडीपी का राग अलापती रहती हैं। असल में यही देश का सबसे बड़ा दुर्भाग्य है।

बाल कुपोषण के प्रमुख कारकों में गरीबी, बेरोजगारी, बेकारी, अशिक्षा और जागरूकता आदि का भारी अभाव है। ‘हंगामा-2011’ सर्वेक्षण रिपोर्ट में भी ये तथ्य सामने आए हैं। गरीब परिवारों में पल रहे बच्चे सर्वाधिक कुपोषित मिले हैं। सर्वेक्षण में स्कूली शिक्षा से वंचित 66 फीसदी माताएं मिलीं। निरक्षर माताओं के बच्चों में कुपोषण का स्तर 45 प्रतिशत मिला और 63 प्रतिशत बच्चों में समान्य वृद्धि का अभाव मिला। शिक्षा और जागरूकता के अभाव के कारण ही 51 प्रतिशत माताओं ने अपने नवजात शिशु को अपना पहला दूध ही नहीं पिलाया। सर्वेक्षण में यह तथ्य भी सामने आया कि 58 प्रतिशत महिलाएं बच्चे को छह माह से पहले ही पानी पिलाना शुरू कर देती हैं।

भूख व कुपोषण की समस्या अशिक्षा व जागरूकता के अभाव से कहीं अधिक गरीबी, बेरोजगारी व बेकारी की वजह से विकराल बनी हुई है। विष्व भूख सूचकांक, 2011 के अनुसार 81 विकासशील देशों की सूचनी में भारत का 15वां स्थान है। इस सूचकांक के मुताबिक भूखमरी के मामले में पाकिस्तान, बांग्लादेश, युगांडा, जिम्बाबे व मलावी देशों की तुलना में भारत की स्थिति बेहद बदतर है। यदि गरीबी के आंकड़ों पर नजर डाला जाए तो विश्व बैंक के अनुसार भारत में वर्ष 2005 में 41.6 प्रतिशत लोग गरीबी की रेखा से नीचे थे। एशियाई विकास बैंक के अनुसार यह आंकड़ा 62.2 प्रतिशत बनता है। केन्द्र सरकार द्वारा गठित एक विशेषज्ञ समूह द्वारा सुझाए गए मापदण्डों के अनुसार देश में गरीबों की संख्या 50 प्रतिशत तक हो सकती है। गरीबों की गिनती के लिए मापदण्ड तय करने में जुटे विशेषज्ञों के समूह की सिफारिश के मुताबिक देश की 50 प्रतिशत आबादी गरीबी की रेखा से नीचे (बीपीएल) पहुंच जाती है।

गरीबी, भूखमरी, महंगाई, बेरोजगारी और बेकारी की मार के चलते बच्चों और माताओं को समुचित मात्रा में पौष्टिक भोजन नहीं मिल पाता। संयुक्त राष्ट्र संघ की एक रिपोर्ट के मुताबिक भारत में 63 फीसदी बच्चों को भरपेट खाना नहीं मिल पाता है। इसका बच्चों के स्वास्थ्य पर भारी कुप्रभाव पड़ रहा है। एक अनुमान के मुताबिक 5 वर्ष से कम आयु वाले 47 प्रतिशत बच्चे कम वजन वाले हैं, 45 प्रतिशत बच्चों की वृद्धि रूकी हुई है और 16 प्रतिशत बच्चे भीषण कुपोषण के शिकार हैं। एक अनुमान के अनुसार 43.8 प्रतिशत बच्चे औसत अंश के प्रोटीन ऊर्जा कुपोषण के शिकार हैं और 8.7 प्रतिशत बच्चे भयानक कुपोषण के शिकार हैं। देश में लगभग 60 हजार बच्चे प्रतिवर्ष विटामीन ‘ए’ की कमी के साथ-साथ प्रोटीन ऊर्जा कुपोषण के चलते अन्धेपन का शिकार होने को मजबूर होते हैं।

यूनिसेफ की रिपोर्ट के अनुसार दुनिया में 5 वर्ष से कम उम्र के लगभग 8 करोड़ 30 लाख बच्चे कुपोषित जीवन जीने को बाध्य हैं। इससे बड़ा चौंकाने वाला तथ्य यह है कि इनमें अकेले भारत के 6.1 बच्चे शामिल हैं, जोकि देश की कुल जनसंख्या का 48 प्रतिशत बनता है। यह पड़ौसी देश पाकिस्तान (42 प्रतिशत) और बांग्लादेश (43 प्रतिशत) से भी अधिक है। केवल इतना ही नहीं, विश्व स्वास्थ्य संगठन के आंकड़ो के अनुसार ऐसे बच्चे जिनका विकास अवरूद्ध हो चुका है, उनमें 34 प्रतिशत बच्चे भारत में है। रिपोर्ट के अनुसार देश में मध्य प्रदेश, बिहार और झारखण्ड में सर्वाधिक कुपोषित बच्चों की संख्या है।

अंतर्राष्ट्रीय आंकड़े बताते हैं कि भूख, गरीबी, शोषण, रोग तथा बाल-दुर्व्यवहार, प्राथमिक स्वास्थ्य व शिक्षण सुविधाओं के मामले में भारत की हालत अत्यन्त दयनीय है। ‘द स्टेट ऑफ वल्डर्स चिल्ड्रन’ नाम से जारी होने वाली यनिसेफ की रिपोर्ट के मुताबिक 5 वर्ष की उम्र के बच्चों के मौतों के मामले में भारत विश्व में 49वाँ स्थान है, जबकि पड़ौसी देशों बांग्लादेश का 58वाँ और नेपाल का 60वाँ स्थान है। एक अनुमान के मुताबिक भारत में प्रतिवर्ष लगभग 2.5 करोड़ बच्चे जन्म लेते हैं और प्रति 1000 बच्चों में से 124 बच्चे 5 वर्ष होने के पूर्व ही, जिनमें से लगभग 20 लाख बच्चे एक वर्ष पूरा होने के पहले ही मौत के मुँह में समा जाते हैं। ये मौतें अधिकतर कुपोषण एवं बीमारियों के कारण ही होती हैं।

देश में मातृ-मृत्यु दर के आंकड़े भी बड़े चौकाने वाले हैं। यूनिसेफ के अनुसार वर्ष 1995-2003 के दौरान भारत में प्रति लाख जीवित जन्मों पर 540 मातृ-मृत्यु दर थी। रिपोर्ट के मुताबिक पूरी दुनिया में प्रतिवर्ष लगभग 5.30 लाख माताएं प्रसव के दौरान मर जाती हैं और भारत में लगभग एक लाख माताएं प्रसव के दौरान प्रतिवर्ष मृत्यु का शिकार हो जाती हैं। लगभग 90 प्रतिशत महिलाएं खून की कमी का शिकार होती हैं और 56 प्रतिशत गर्भवती महिलाएं अपने गर्भावस्था के तीसरे चरण में आयरन की कमी से ग्रसित होती हैं।

कुल मिलाकर राष्ट्रीय व अंतर्राष्ट्रीय सर्वेक्षणों, अध्ययनों और शोध रिपोर्टों के सनसनीखेज आंकड़े स्वतंत्रता के छह दशक पार करने वाले विश्व के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश के लिए न केवल चिन्तनीय एवं चुनौतिपूर्ण हैं, बल्कि, बेहद शर्मनाक भी हैं। देश से भूखमरी व कुपोषण को मिटाने के लिए अचूक कारगर योजनाओं के निर्माण एवं उन्हें ईमानदारी से क्रियान्वित करने, सरकार की दृढ़ इच्छा शक्ति और स्वास्थ्य व शिक्षा के स्तर को सुधारना बेहद जरूरी है। यदि त्वरित रूप से ऐसा नहीं हुआ तो निश्चित तौरपर देश का भविष्य एकदम अंधकारमय होगा।

2 COMMENTS

  1. शर्म की बात तो ये है कि आजादी के बाद अधिकाँश समय तक राज करने के बावजूद देश के निर्धनों के इस हालात के लिए अपनी पार्टी और नेताओं की नाकामी पर मनमोहन को शर्म या ग्लानी नहीं है.
    सुशासन किस चिड़िया का नाम है, इन्हें पता ही नहीं. बस राग-सेकुलर के बल पे जैसे तैसे तिकड़म बाजी करना और सत्ता हथियाना ही इनका मकसद है. जाहिर है ऐसे में ये निकम्मे देश की अवदशा करेंगे ही.

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