तुष्टीकरण की राह पर ममता सरकार

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अरविंद जयतिलक

वोटयुक्ति की लालच में पश्चिम बंगाल की ममता सरकार ने जिस तरह मुस्लिम समुदाय के लाखों लोगों को सड़क पर उतरकर अराजकता फैलाने, पुलिस पर हमला बोलने, थाने में आग लगाने, अल्पसंख्यक हिंदू समुदाय के लोगों की दुकानें लूटने और घर में घूसकर उन्हें अपमानित करने की छूट दी उससे देश की संप्रभुता, सामाजिकता और एकता लहूलुहान हुई है। समझ से परे है कि जब पैगंबर मोहम्मद के बारे में आपत्तिजनक टिप्पणी करने वाला शख्स जेल की सलाखों के पीछे है और उसे रासुका जैसे कठोर कानून के तहत निरुद्ध किया गया है फिर भी ऐसी क्या नौबत आन पड़ी कि मालदा के कलियाचक में मुस्लिम समुदाय के लाखों लोग इकठ्ठा होकर अराजकता का प्रदर्शन कर अपनी ताकत का अहसास कराए। देश के मुस्लिम समुदाय के जिम्मेदार लोगों को स्पष्ट करना चाहिए कि इस तरह के हिंसक प्रदर्शन का क्या औचित्य था? क्या अपनी अभिव्यक्ति लोकतांत्रिक ढ़ंग से नहीं जाहिर की जा सकती थी? आखिर हिंसा और कटुता पर आधारित विरोध किस तरह समाजसम्मत हो सकता है? कहना गलत नहीं होगा कि कलियाचक का प्रदर्शन हिंसा और सांप्रदायिकता से लैस था और उपद्रवियों ने जानबूझकर माहौल खराब करने की चेष्टा की।

सांप्रदायिक नारे लगाते हुए पुलिस के हथियारों को लूटा और महिला कांस्टेबलों के साथ छेड़छाड़ की। इस तरह का आचरण लोकतांत्रिक नहीं होता। निःसंदेह पैगंबर मोहम्मद या किसी भी धर्म के देवताओं के विरुद्ध आपत्तिजनक टिप्पणी नहीं की जानी चाहिए। लेकिन सच यह भी है कि हिंदू देवी-देवताओं के विरुद्ध भी अकसर अपमानजनक टिप्पणी की जाती है और उनके अश्लील चित्र बनाए जाते हैं। बावजूद इसके कभी भी हिंदू समुदाय के लोगों ने इस तरह का भीड़ इकठ्ठा कर कानून-व्यवस्था को अपने हाथ में लेने की कोशिश नहीं की। इसका मतलब यह नहीं कि उनमे ंआक्रोश पैदा नहीं होता। लेकिन चूंकि उनका संविधान व कानून में विश्वास है लिहाजा वे अराजकता में विश्वास नहीं करते। अन्य समुदायों को भी इसी तरह के आचरण का प्रदर्शन करना चाहिए। राज्य सरकारों की भी जिम्मेदारी बनती है कि वह राज्य में कानून-व्यवस्था बरकरार रखे। लेकिन विचलित करने वाला है कि ममता बनर्जी की सरकार अपने उत्तरदायित्वों से विमुख दिखी जब कि उसका उत्तरदायित्व था कि वह भीड़ को इकठ्ठा न होने दे। लेकिन जिस तरह वह हाथ पर हाथ धरी बैठी रही उससे साफ जाहिर होता है कि भीड़ को सरकार का संरक्षण हासिल था। निःसंदेह सभी को अपनी बात रखने और विरोध करने का लोकतांत्रिक अधिकार है। लेकिन यह कहां तक उचित है कि लोकतांत्रिक विरोध की आड़ में अराजकता का प्रदर्शन किया जाए। कलियाचक में जो कुछ भी हुआ वह देश के लिए अपशकुन है। आंतरिक सुरक्षा के लिए गंभीर खतरा है। कानून व्यवस्था के लिए खुली चुनौती है। इससे राष्ट्र की संप्रभुता लहूलुहान हुई है। समुदायों के बीच नफरत की भावना पनपी है। जिस तरह उग्र प्रदर्शनकारियों ने पुलिस, प्रशासन, मीडिया और आमजन को निशाना बनाया उससे साफ इंगित होता है कि उनका मकसद अपनी बात कहना नहीं बल्कि अपने उग्र सांप्रदायिक आचरण से सामजिक वातारण को विशाक्त बनाना था। कलियाचक की घटना से ममता सरकार सवालों के घेरे में है। यह उचित है कि केंद्र की सरकार ने इसे गंभीरता से लिया है और राज्य सरकार से जवाब तलब की है। देश भी जानना चाहता है कि क्या ममता सरकार ऐसे समाजद्रोहियों के विरुद्ध कार्रवाई करेगी? इसकी उम्मीद कम ही है। कारण, ममता सरकार तुष्टीकरण की राह पर है। वह खुलेआम अल्पसंख्यक वोटबैंक की राजनीति कर रही है। तुष्टिकरण के मामले में वह पूर्ववती वाम सरकार को भी पीछे छोड़ दी है। राज्य में कठमुल्लापन किस तरह हावी हो चुका है इसी से समझा जा सकता है कि अभी कुछ माह पहले ही एक मदरसा शिक्षक काजी मासूम अख्तर को सिर्फ इसलिए निशाने पर लिया गया कि उन्होंने राष्ट्रगान जन गण मन का गायन की वकालत की। लेकिन उनकी बात नहीं सुनी गयी और उन्हें इसकी भरपूर कीमत भी चुकानी पड़ी। उन्हें न सिर्फ मदरसे से निष्कासित किया गया बल्कि उनकी जमकर पिटायी भी की गयी। मालदा में एक मौलवी के फतवे पर महिला फुटबाल मैच को रद्द कर दिया गया। यहीं नहीं मुस्लिमों को खुश करने के लिए ममता सरकार ने ईद की वजह से दुर्गा पूजा के विसर्जन को एक दिन आगे टाल दिया। दो वर्ष पहले ममता सरकार ने तुष्टीकरण की सारी हदें पार करते हुए राज्य के करीब तीस हजार से अधिक इमामों को सम्मान के तौर पर हर महीन 2500 रुपए और घर बनाने के लिए भूमि और आर्थिक मदद देने का एलान किया। आश्चर्य है कि मुस्लिम तुष्टीकरण की कीर्तिमान रच रही ममता सरकार और मालदा के कलियाचक में मुस्लिम उपद्रवियों के हिंसक प्रदर्शन पर कोई भी बुद्धिजीवी अपना कंठ खोलने को तैयार नहीं है। उन सहिष्णुतावादियों का भी अता-पता नहीं जो गत दिनों पहले दादरी की घटना को लेकर देश भर में तुफान खड़ा किए थे। वे सेक्यूलर राजनीतिक दल जो अकसर सहिष्णुता की नित नई परिभाषा गढ़ते रहते हैं वे भी खामोंश हैं। क्या उनका उत्तरदायित्व नहीं बनता है कि वह मुस्लिम अराजकवादियों के कृत्यों की निंदा करें? लेकिन वे आश्चर्यजनक रुप से चुप्पी साध लिए हैं। मीडिया का एक सेक्शन जो दादरी की घटना को खूब बढा-चढ़ाकर दिखाया निरर्थक बहस करायी और हिंदू संगठनों को निशाने पर लिया वह भी आज मौन है। गौर करें तो तथाकथित सेक्यूलर दलों और मीडिया की यह चुप्पी कोई नयी नहीं हैं। याद होगा देश की सत्तारुढ़ संप्रग सरकार के दौरान जब हुर्रियत के कट्टरपंथी नेता सैयद अली शाह गिलानी ने दिल्ली में अपने आगलगाऊ मित्रों की भीड़ जुटाकर कश्मीर की आजादी की मांग करते हुए अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर देश और संविधान की संप्रभुता के खिलाफ वाक्जुगाली की तब भी देश की तत्कालीन संपग्र सरकार, मीडिया का एक वर्ग और सेक्यूलर राजनीतिक दल अपनी जुबान बंद किए रहे। गत वर्ष पहले डेनमार्क में पैगंबर के कार्टून को लेकर भारतीय मुसलनमानों ने जमकर उपद्रव किया तब भी सेक्यूलर जमात और पूर्वाग्रही मीडिया ने इसे गलत नहीं माना। समझना कठिन है कि दूसरे देश में घटित घटनाओं की आड़ में देश की संपत्ति को नुकसान क्यों पहुंचाया जाता है? जबकि यह तथ्य है कि पाकिस्तान व बांगलादेश में हर दिन अल्पसंख्यक हिंदुओं पर कहर बरप रहा है। आज उनकी जनसंख्या घटकर बिनाश के कगार पर है। लेकिन एक बार भी भारत का बहुसंख्यक हिंदू समुदाय इसके विरोध में उग्र धरना-प्रदर्शन नहीं किया है। याद होगा असम दंगे के विरोध में मुंबई के आजाद मैदान में मुस्लिम अराजकवादियों द्वारा किस तरह धरना-प्रदर्शन कर कानून-व्यवस्था की धज्जिया उड़ायी गयी और अमर ज्योति को नुकसान पहुंचाया गया। देवबंद दारुल उलूम के मुठ्ठी भर मौलानाओं की धमकी से डरकर राजस्थान की तत्कालीन कांग्रेस सरकार ने जयपुर लिटरेरी फेस्टिवल में सलमान रुश्दी को नहीं आने दिया। ममता सरकार ही नहीं देश के उन सभी तथाकथित सेक्यूलर राजनीतिक दलों को समझना होगा तुष्टीकरण की राह पर चलकर वह वोटबैंक को साध सकते हैं लेकिन यह प्रवृत्ति देश की संप्रभुता के लिए घातक है। अगर यह सच है कि कलियाचक के उपद्रव में बांगलादेशी और भारत विरोधी शक्तियां शामिल थी और उनका मकसद समाज में द्वेश पैदा कर सामाजिक वातावरण का विशाक्त बनाना था तो यह देश की संप्रभुता के लिए खतरनाक है। अगर ममता सरकार तुष्टीकरण की ही माला जपती रही तो वह दिन दूर नहीं जब देश को कलियाचक जैसे कई अन्य आघात भी सहने होंगे।

 

 

 

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