मनुष्य को सबसे प्रीतिपूर्वक, धर्मानुसार व यथायोग्य व्यवहार करना चाहिये

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-मनमोहन कुमार आर्य

संसार में अनेक प्रवृत्तियों वाले मनुष्य होते हैं। कुछ सज्जन प्रकृति होते हैं तो कुछ दुर्जन व दुष्ट प्रकृति के भी होते हैं। कुछ लोगों में कुछ कुछ सज्जनता व दुर्जनता दोनों होती हैं। मनुष्य को सबसे कैसा व्यवहार करना चाहिये, इसका उत्तर ऋषि दयानन्द ने आर्यसमाज के सातवें नियम द्वारा दिया है। वह कहते हैं कि हमारा दूसरों के प्रति व्यवहार प्रीतिपूर्वक होना चाहिये। प्रीति का अर्थ है कि व्यवहार करते समय हम दूसरों के प्रति प्रेम भावना से युक्त हों। किसी के प्रति आरम्भ में ही हमारे भीतर दुर्भावना नहीं होनी चाहिये। हमें जो कहना है वह प्रीतिपूर्वक कहें व दूसरों की बातें प्रीतिपूर्वक सुने और उन पर विचार करें। यदि दूसरे व्यक्ति का व्यवहार हमारे प्रति प्रीति से युक्त प्रतीत होता है तो हमें भी उसके प्रति वैसा ही व्यवहार करना चाहिये। ऐसा नहीं होना चाहिये कि हमारे साथ कोई प्रीति का व्यवहार कर रहा है और हमारा व्यवहार उसके प्रति प्रीति का नहीं है। यदि दूसरे व्यक्ति का व्यवहार प्रीति से युक्त नहीं है तो फिर हमें सोचना चाहिये कि हमें उसका किस प्रकार से उत्तर देना चाहिये। यह भी विचार करना चाहिये कि हम उसके बुरे व्यवहार की उपेक्षा कर दें या उससे बात करना स्थगित कर विषय को ही बदल दें। उससे यह भी कह सकते हैं कि अभी वह किसी कारण इस विषय में चर्चा नहीं कर सकेंगे। बाद में सुविधानुसार उस विषय पर चर्चा कर सकते हैं। ऐसे ही कुछ उत्तर भी दे सकते हैं।

मनुष्य का दूसरों के प्रति जो व्यवहार है वह धर्मानुसार होना चाहिये। यहां धर्मानुसार का अर्थ यह है कि यदि हम अपने माता-पिता से व्यवहार कर रहे हैं तो उनके प्रति हमारे जो कर्तव्य हैं उसे ध्यान में रखकर व्यवहार करें। यदि हम अपने आचार्य जी व किसी विद्वान से बातें कर रहे हैं तो हमारा व्यवहार आचार्य जी व उस विद्वान की मर्यादा, गरिमा व सम्मान के अनुरूप होना चाहिये। यह भी हो सकता है कि हमें किसी दुष्ट व चोर की प्रवृत्ति वाले मनुष्य के साथ व्यवहार करना पड़े तो फिर हम उसके साथ धर्मानुसार व्यवहार करेंगे। इसके लिए हम मनुस्मृति, विदुरनीति आदि ग्रन्थों के अनुसार देश, काल व परिस्थिति को ध्यान में रखकर व्यवहार कर सकते हैं। यहां धर्म का तात्पर्य वैदिक धर्म व इतर मत-मतान्तरों से संबंधित नहीं है अपितु धर्म का अर्थ हमारे कर्तव्य व आचरण से संबंधित है। हमें उस मनुष्य के व्यवहार व अपने कर्तव्य का ध्यान रखकर उसके अनुरूप व्यवहार करना चाहिये।

कई परिस्थितियों में हमें प्रीतिपूर्वक व धर्मानुसार व्यवहार करने पर भी दूसरा व्यक्ति हठ व दुराग्रह आदि का परिचय देता है तो हमें वहां उससे यथायोग्य व्यवहार करना उचित होता है। एक कहावत है कि शठे शाठयम् समाचरेत। कई परिस्थितियों में बुरे व्यक्तियों से बुरा व्यवहार करना अनुचित नहीं होता है। हमें देखना होता है कि हम जिस व्यक्ति से व्यवहार कर रहे हैं उसका हमारे प्रति व्यवहार कैसा है। यदि अच्छा है तो यथायोग्य व्यवहार के अनुसार हमें उसके प्रति अच्छा व्यवहार ही करना उचित होगा। यदि दूसरे व्यक्ति का हमारे प्रति व्यवहार द्वेष पर आधारित है तो हमें भी उसके प्रति समान व्यवहार करना उचित हो सकता है। इसका निर्णय बहुंत सोच विचार कर करना चाहिये। यथायोग्य व्यवहार करने पर ही दुष्टों से दुष्टता को छुड़ाया जा सकता है। कल्पना करते हैं कि किसी व्यक्ति का हमारे प्रति हिंसा का व्यवहार है तो क्या वहां हम उससे प्रीतिपूर्वक व्यवहार करेंगे? कदापि नहीं। हमें उस व्यक्ति का उत्तर उसी की भाषा में उससे भी कठोर रूप में देना उचित हो सकता है। ऐसा होने पर ही वह अपनी दुष्टता का त्याग कर सकता है। देखना यह है कि हम अकारण किसी से दुष्टता का व्यवहार न करें परन्तु स्वभाव से दुष्ट लोगों के साथ तो उनके अनुरूप व्यवहार करना ही उचित होता है।

आर्यसमाज का नियम स्पष्ट है। हमें व्यवहार करते हुए इसका स्मरण करना चाहिये और प्रीति का व्यवहार करने वाले लोगों के साथ प्रीति का ही व्यवहार करना चाहिये। यदि हम ऐसा नहीं करते हैं तो हमारा व्यवहार उचित व्यवहार नहीं कहा जा सकता। इसी प्रकार व्यवहार में यह भी देखा जाता है कि हमारा धर्म वा कर्तव्य हमें क्या कहता है? माता-पिता, आचार्य व विद्वानों के प्रति व्यवहार करते हुए हमें संयम का परिचय देना होता है। उनकी बुरी बातों को भी दृष्टि से ओझल करना होता है। कारण यह होता है कि इन लोगों ने हम पर पूर्व में बहुत से उपकार किये होते हैं। अतः धर्म का पालन करते हुए हमें उनके प्रति विनम्र रहना होता है व अनेक बार कुछ अनुचित बातों को भी सहन करना होता है। शत्रुओं के प्रति शत्रु के अनुसार ही व्यवहार करना उचित होता है। इतिहास में पृथिवी राज चौहान ने गलतियां की। यदि वह यथायोग्य व्यवहार करते तो आज देश की वह दुर्दशा नहीं होती जो कि हुई है। यदि पृथिवी राज चौहान अपने शत्रु की दुष्टता को समझ कर पहली बार ही उसका काम तमाम कर देते तो उन्हें बाद में अपमानित नहीं होना पड़ता। दुष्टों के प्रति सज्जनता का व्यवहार अपनी प्राण हानि देकर चुकाना पड़ सकता है। यदि मनुष्य देश के किसी बड़े पद पर है तो उसके व्यवहार से सारे देशवासियों को दुःख उठाना पड़ सकता है। चीन ने हमारी भूमि पर कब्जा किया और हम 55 वर्ष बीत जाने पर भी वापिस नहीं ले पाये। पाकिस्तान ने हमारे कश्मीर के बड़े भाग पर कब्जा कर लिया और हम उसका भी प्रतिकार नहीं कर पाये। यह हमारे कुछ नेताओं की सूझ बूझ की कमी ही कही जा सकती है। ऐसे नेताओं व लोगों के कारण देश को बाद में जो भुगतना पड़ा वह उनकी गलती अर्थात् दुष्ट को क्षमादान देने के कारण हुआ। दुष्ट को क्षमादान देना अपने भविष्य को बिगाड़ना व नष्ट करना है। प्रयास यही करना चाहिये कि या तो दुष्टों से हम दूर रहे और यदि दुष्टों से व्यवहार करना ही पड़े तो उसकी दुष्टता को जानकर टिट फार टैट, जैसे को तैसा अर्थात् यथायोग्य व्यवहार करें। ऐसा करेंगे तो हमें जीवन में दुःख व कष्ट या तो होगा नहीं या कम होगा और यदि इसका ध्यान नहीं रखेंगे तो हमें दुःख उठाना होगा। ओ३म् शम्।

 

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