हज़ारों की भीड़ में भी,
अकेला है आदमी!
आदमी ही आदमी को,
नहीं मानता आदमी!
संवेदनायें खो गईं,
चोरी क़त्ल बढ़ गये,
कोई भी दुष्कर्म करते,
डरता नहीं अब आदमी।
भगवान ऊपर बैठकर
ये सोचता होगा कभी,
ऐसा नहीं बनाया था मैने
क्या बन गया है आदमी!
स्वार्थ की इंतहा हुई ,
भूल गया दोस्ती रिश्ते नाते,
वक़्त बुरा आया तो ,
उन्हे ही पुकारता है आदमी।
निर्दोष सज़ा पाते रहे
बेल पर दोषी छुटें
गवाह मार दिये जायें ,
तो क्या करे आदमी!
पोलिस ढ़ीली ढ़ाली हो
सुबूत ना ढूँढ़ पाये
मासूम सूली पर चढ़े,
तो क्या करे आदमी।