मानवाधिकार की रक्षा के बहाने आतंकवादियों की मदद की अमेरिकी साज़िश?

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तनवीर जाफ़री
अमेरिका ने 2003 में अपने सहयोगी देशों की सेनाओं के साथ इराक़ पर इस बहाने से हमला किया था कि इराक़ में सद्दाम हुसैन ने सामूहिक विनाश के रासायनिक हथियारों का ज़खीरा छुपा रखा है। हालांकि संयुक्त राष्ट्र संघ ने विभिन्न एजेंसियों के माध्यम से अमेरिका के इस आरोप की जांच भी कराई। जिसमें अमेरिका के कोई आरोप सही साबित नहीं हुए। इसके बावजूद अमेरिका ने अपनी साम्राज्यवादी नीति पर चलते हुए तथा दुनिया को ठेंगा दिखाते हुए जार्ज बुश द्वितीय की अगुवाई में इराक़ पर सैन्य आक्रमण कर डाला। वहां की अधिकांश तेल संपदा को अपने नियंत्रण में ले लिया,अपने गुप्त एजेंडे पर चलते हुए तानाशाह सद्दाम हुसैन को सत्ता से बेदखल कर दिया तथा इराक में ही एक स्थानीय अदालत का गठन कर उसी अदालत के माध्यम से सद्दाम को फांसी पर चढ़ा दिया। इस पूरे घटनाक्रम के बाद 14 वर्ष बीत जाने के बाद भी आज तक इराक में कहीं भी सामूहिक विनाश के हथियारों का कोई भी भंडार अभी तक नहीं पाया गया। परंतु अपने महाझूठ पर सवार अमेरिका को उसके मकसद में पूरी कामयाबी मिली। एक बार फिर अमेरिका अपनी उसी राह पर चलते हुए अब सीरिया को अपने निशाने पर लेने की कोशिश कर रहा है।
गौरतलब है कि अमेरिका के इराक़ में हुए हस्तक्षेप के परिणामस्वरूप सद्दाम हुसैन तो सत्ता से ज़रूर हट गया परंतु इस घटनाचक्र में सद्दाम हुसैन की सेना और बाथ पार्टी से जुड़े तमाम लोग जो बेरोज़गार हो चुके थे तथा अमेरिकी सैन्य गठबंधन की नज़रों में भरोसेमंद भी नहीं थे उन्होंने तथा अलक़ायदा से अलग-थलग हुए लोगों ने मिलकर ही आईएसआईएस नामक आतंकी संगठन का गठन कर लिया। और एक बड़ी पश्चिमी साज़िश के तहत सीरिया में सत्तारुढ़ बशर-अल-असद के विरुद्ध विद्रोह कर डाला। इस समय पूरी दुनिया बड़े गौर से यह देख रही है कि आईएसआईएस अथवा दाईश के नाम से मशहूर हो चुका यह आतंकी संगठन अलक़ायदा से कहीं ज़्यादा क्रूर व बर्बर आतंकी संगठन साबित हो रहा है। बड़े ही आश्चर्यजनक तरीके से इस आतंकी संगठन के निशाने पर अधिकांशतया वही मुस्लिम समुदाय या उनसे जुड़ी इबादतगाहें हैं जो उनके विचारों से मेल नहीं खाते। जब इस आतंकी संगठन ने क्रूरता की सभी हदें पार करते हुए सीरिया व इराक में कई क्षेत्रों पर अपना नियंत्रण कायम किया तथा वहां के स्थानीय लोगों के साथ ज़ुल्म,अत्याचार व बर्बरता से पेश आने लगे यहां तक कि इस संगठन के लोगों ने इस प्रकार की भयानक वीडियो व चित्र सोशल मीडिया पर डालने शुरु कर दिए, ऐसे में इस्लाम धर्म को बदनामी से बचाने के उद्देश्य से इस आतंकी संगठन को नेस्तानाबूद कर देना ही एकमात्र उपाय था।
रूस ने यह ज़िम्मेदारी उठाई कि वह बशर-अल-असद का साथ देते हुए सीरिया स्थित आईएसआईएस के ठिकानों पर हमले कर उनकी कमर तोड़ेगा तथा सीरिया को आतंकियों से मुक्त कराएगा। परंतु पूरी दुनिया में अमन-शांति व मानवाधिकार के स्वयंभू ठेकेदार अमेरिका को सीरिया में रूस तथा ईरान की दख़लअंदाज़ी रास नहीं आई। और आतंकवाद के विरुद्ध युद्ध जैसी घोषणा का ढोंग करने वाले अमेरिका के ट्रंप शासन ने सीरिया की उसी सैन्य शक्ति पर आक्रमण कर डाला जो आईएस के आतंकियों से दिन-रात जूझ रही थी। खबरों के मुताबिक अमेरिका ने सीरिया के होम्स स्थित शईरात छावनी में लगभग 70 टॉम हॉक क्रूज़ मिज़ाईलें दाग कर इस सैन्य अड्डे को तबाह कर दिया। इन हमलों में आठ सीरियाई सैन्य अधिकारियों के मारे जाने की भी खबर है। मज़े की बात तो यह है कि अमेरिका ने इस हमले के लिए भी इराक की ही तरह यही बहाना बनाया कि सीरियाई सेना आतंकियों पर हमलों के बहाने आम नागरिकों पर रासायनिक हमले कर रही है। 2013 में भी अमेरिका ने बशर-अल-असद की सरकार पर सीरियाई जनता पर केमिकल हमले किए जाने का आरोप लगाकर सीरिया में सैन्य हस्तक्षेप करने का प्रयास किया था। परंतु संयुक्तराष्ट्र संघ व रूस के हस्तक्षेप के परिणामस्वरूप अमेरिका सीरिया पर हमले नहीं कर सका।
अब पिछले दिनों जब अमेरिका ने एक बार फिर केमिकल हथियारों का आरोपी बता कर सीरियाई सेना को निशाना बनाया है तो अमेरिका के इस कदम का सबसे अधिक स्वागत करने वालों में सर्वप्रथम आतंकी संगठन आईएसआईएस,इज़राईल,सऊदी अरब तथा ब्रिटेन जैसे देश हैं। यहां अब यह बात भी सोचने की है कि जिस समय आईएसआईएस वजूद में आया था तथा अबू बकर अल-बग़दादी इसका मुखिया बना था उसी समय से यह चर्चा ज़ोरों पर थी कि बगदादी न केवल इज़राईल व अमेरिका द्वारा निर्देशित है बल्कि वह स्वयं इज़राईल की ही उपज भी है। इसी प्रकार दुनिया में जो कट्टरपंथी विचारधारा इस्लाम के नाम पर कट्टरता और बर्बरता का प्रदर्शन कर रही है उसका केंद्र भी सऊदी अरब ही माना जाता रहा है। इतना ही नहीं बल्कि अलक़ायदा प्रमुख रहे ओसामा बिन लाडेन का सऊदी अरब में पलना तथा वहीं से इस्लाम की वैचारिक शिक्षा धारण कर पूरी दुनिया को अपने तरीके का इस्लाम समझाने की कोशिश में लगे रहना भी किसी से छुपा नहीं है। अमेरिका व ब्रिटेन का एक सुर में बोलना भी कोई नई या आश्चर्य की बात नहीं है। इन सब के बावजूद यदि अमेरिका कहे कि वह आतंकवाद का सबसे बड़ा दुश्मन है और आतंकवाद के विरुद्ध युद्ध का सिपहसालार है और दूसरी ओर सऊदी अरब के शासक के गालों पर चुम्बन के आदान-प्रदान का नज़ारा भी पेश करे तो इसे दोहरे चरित्र के सिवा और क्या कहा जा सकता है?
जिस समय पेंटागन, राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की मंज़ूरी के बाद 6 करोड़ डॉलर की बहुमूल्य टॉम हॉक मिज़ाईल शईरात हवाई अड्डे पर बरसा रहा था उस समय न केवल सीरिया में आईएस आतंकी जश्र मना रहे थे बल्कि इस हमले के साथ ही साथ इन आतंकियों ने कई सीरियाई कब्ज़े वाले क्षेत्रों में हमले भी कर डाले और कई क्षेत्रों को अपने नियंत्रण में लेने की कोशिश भी की। बहलहाल, अमेरिका द्वारा सीरिया के एयरबेस पर किए गए हमले से एक बार फिर यह साफ ज़ाहिर हो गया है कि अमेरिका आतंकवाद को लेकर दोहरा रवैया अपनाता रहा है। कहां तो वह पाकिस्तान को आतंकवाद से लडऩे के नाम पर सैन्य सहायता देता है तो कहां आतंकवायिों से लडऩे वाली सीरियाई सेना को ही तबाह करने की कोशिश करता है। बात सिर्फ इतनी ही नहीं है बल्कि आईएसआईएस के जो आतंकी सीरियाई सैन्य कार्रवाई में घायल होते हें उन की भी इज़राईल के संरक्षण में इज़राईल व फ़िलिस्तीन के हस्पतालों में देखभाल की जा रही है। खुद इज़राईली शासन के कई महत्वपूर्ण मंत्री व अधिकारी उन घायल आतंकियों की देख-रेख में लगे रहते हैं।
बहरहाल, अमेरिका की इस आतंकवाद विरोधी दोगली नीति के बाद दुनिया पर विश्व युद्ध तथा परमाणु युद्ध जैसे खतरों के बादल मंडराने लगे हैं। रूस,ईरान,चीन तथा उत्तर कोरिया जैसे देश एक स्वर में बोल रहे हैं जबकि अमेरिका,ब्रिटेन,इज़राईल व सऊदी अरब जैसे देशों की भाषा एक है। खबरों के मुताबिक रूस ने भी अपना एक युद्धपोत सीरिया की ओर भेज दिया है। विश्व के तेल बाज़ार में इन हालात को लेकर खलबली मच गई है। ऐसे में यदि दुनिया के हालात बिगड़ते हैं और बेगुनाह लोग युद्ध का शिकार होते हैं तो निश्चित रूप से इसका केवल एक ही कारण होगा और वह होगा साम्राज्यवादी अमेरिका की वह दोहरी नीति जिसके तहत वह बहाना तो मानवाधिकारों की रक्षा का करता है परंतु साज़िश आतंकवादियों को मदद पहुंचाने की रचता रहता है।

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