गांधी बनाम गांधी की ‘जंग’ में बीजेपी के लिए अप्रसांगिक होते जा रहे हैं वरुण

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                                                                 संजय सक्सेना
    भारतीय जनता पार्टी के लिए उसके युवा सांसद वरूण गांधी ‘गले की फांस’ बनते जा  रहे हैं। वरूण गांधी लगातार मोदी-योगी सरकार के खिलाफ बयानबाजी कर रहे हैं। खासकर किसानों को लेकर वरूण अपनी ही पार्टी की सरकारों से जबाव तलब करने में लगे हैं। किसानों के आंदोलन से बीजेपी उतनी बेचैन नहीं हुई होगी,उसकी जितनी बेचैनी वरूण गांधी ने बढ़ा रखी है।शायद ही कोई दिन ऐसा जाता होगा,जब वरूण पार्टी के खिलाफ बयान नहीं देते होंगे। वरूण को पार्टी के खिलाफ बयानबाजी का खामियाजा भी भुगतना पड़ रहा है, उन्हें भारतीय जनता पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी से बाहर कर दिया गया है। वरूण के चलते उनकी मॉ मेनका गांधी भी पार्टी में सम्मान खोती जा रही हैं। मेनका गांधी को हाल ही में मोदी मंत्रिमंडल से बाहर का रास्ता दिखाया जा चुका है तो पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी से भी उन्हें बाहर कर दिया गया है।वरूण क्यों, अपनी ही सरकार के खिलाफ मुखर है, इसका जब जबाव तलाशा गया तो काफी लोगों का कहना था कि वरूण गांधी मोदी मंत्रिमंडल में जगह नहीं मिल पाने की वजह से पार्टी और मोदी से नाराज बताए जाते हैं। इसी नाराजगी ने वरूण का राहुल-प्रियंका की तरफ मोह बढ़ा दिया है।इससे इतर राजनीति के कुछ जानकार भाजपा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी में मां-बेटे को जगह नहीं मिलने का यह भी मतलब निकाल रहे हैं कि जैसे-जैसे सोनिया गांधी कांग्रेस में कमजोर पड़ रही हैं, वैसे-वैसे भाजपा में मेनका-वरुण की अहमियत भी कम होती जा रही है।बीजेपी के लिए मेनका और वरूण तभी तक प्रसांगिक थे,जब तक गांधी परिवार में टकराव चल रहा था। बीजेपी गांधी बनाम गांधी की लड़ाई में अपना हित तलाशती रहती थी,जिसकी अब उसे कोई जरूरत नहीं रह गई है।
  बात उस समय की है जब पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी प्रधानमंत्री की कुर्सी पर विराजमान थे और बीजेपी उत्तर प्रदेश में अपनी जड़े तलाश रही थी। उस समय बीजेपी में यह आम धारण बना गई थी कि उत्तर प्रदेश में सोनिया गांधी का मुकाबला अगर कोई कर सकता है तो वह दिवंगत संजय गांधी की बेवा पत्नी मेनका गांधी ही है। सोनिया और मेनका के रिश्तों में पड़ी दरार और इंदिरा गांधी से मेनका की नाराजगी से हर कोई वाकिफ है और भाजपा ने पारिवारिक रिश्तों में पड़ी दरार और नाराजगी का सियासी फायदा उठाने की कोशिश की, और मेनका को पार्टी में शामिल किया। उन्हें उत्तर प्रदेश से लगातार लोकसभा चुनाव का टिकट दिया गया और मेनका जीतकर संसद भी पहुंचती रही। लेकिन कांग्रेस के गिरते ग्राफ के कारण आज भाजपा के लिए मेनका गांधी और वरुण गांधी राजनीतिक प्रासंगिकता नहीं रह गई है। दोनों की एंट्री भाजपा में इसलिए हुई थी क्योंकि वह अपने हिसाब से गांधी परिवार को जवाब देना चाहती थी। 
   बता दें मेनका-वरूण को बीजेपी नेता जो दिवंगत हो चुके हैं,प्रमोद महाजन पार्टी में लेकर आए थे। वे अक्सर कहा करते थे कि अब भाजपा में भी दो गांधी हैं, हमारे पास भी अब गांधी परिवार है और इस पर सिर्फ कांग्रेस का हक नहीं। मेनका गांधी जब भाजपा में शामिल हुई थीं तब भाजपा का उत्तर प्रदेश में असर कम था। मेनका की पार्टी में पूछ हुई। उनके पीछे-पीछे वरुण भी शामिल हो गए। भाजपा ने उन्हें बहुत कुछ दिया। मेनका गांधी को शामिल करके भाजपा ने एक बड़ा जोखिम लिया था क्योंकि वे संजय गांधी की पत्नी हैं। संजय गांधी पर आपतकाल लागू कराने की मुख्य भूमिका मानी जाती है। लेकिन पार्टी खुश थी कि सोनिया का मुकाबला करने के लिए इंदिरा की दूसरी बहू को लाकर उनकी काट ढूंढ ली गई थी। सूत्रों के मुताबिक बीजेपी आलाकमान द्वारा  मेनका को समझाया गया कि उनके बेटे का भविष्य  भाजपा में ही सुररिक्ष है। अपने बेटे को सम्मानजक स्थान देने के शर्त पर ही मेनका भाजपा में शामिल हुई थीं।
      खैर, गांधी परिवार की चौथी पीढ़ी के बीच नजदीकी से पहले की बात की जाए तो यह कहा जा सकता है कि भले ही जिठानी सोनिया गांधी और देवरानी मेनका गांधी के बीच के रिश्तों में काफी खटास थी,जिसके कारण दोनों एक-दूसरे से मिलना-जुलना भी नहीं पसंद करती थीं, लेकिन इसकी बुनियाद संजय गांधी की  मृत्यु के बाद पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के रहते ही पड़ गई थी। मेनका को पति की मौत के बाद ससुराल छोड़ना पड़ गया था।मेनका के घर छोड़ने में सोनिया गांधी की भी भूमिका कम विवादास्पद नहीं रही थी,लेकिन जब राहुल और खासकर प्रियंका गांधी ने होश संभाला तो उन्होंने परिवार की इन दूरियों को काफी कम कर दिया। प्रियंका अपनी चाची मेनका गांधी और चचेरे भाई वरूण गांधी से समय-बेसमय मेल-मुलाकात करके हालचाल ले लिया करती थीं। इसी के चलते दोनों परिवारों के बीच रिश्तों की खाई काफी पट गई थी।एक तरफ गांधी परिवार की बीच की दूरिया सिमट रही थीं तो दूसरी तरफ बीजेपी में रहकर अपनी सियासत चमका रहे वरूण गांधी का बीजेपी से मोह भंग होता जा रहा था। इसकी सबसे बड़ी वजह प्रियंका वाड्रा को ही बताया जाता है। अब तो यहां तक चर्चा होने लगी है कि जल्द ही वरूण गांधी की घर ही नहीं कांग्रेस में भी इंट्री हो सकती है।इस बात का अहसास बीजेपी आलाकमान को भी हो गया है,इसलिए वह वरूण गांाधी की नाराजगी को ज्यादा गंभीरता से नहीं ले रही है।
    बात नये कृषि कानून के विरोध में किसान मोर्चा द्वारा मोदी के खिलाफ चलाए जा रहे आंदोलन में, किसानों के पक्ष में वरूण गांधी की लगातार जारी बयानबाजी की कि जाए तो यह वरूण की सियासी मजबूरी भी है। वरूण गांधी उत्तर प्रदेश के किसान बाहुल्य क्षेत्र पीलीभीत से भारतीय जनता पार्टी के सांसद हैं।यानी किसान रूठ गया तो वरूण के लिए अपनी संसदीय सीट बचाना भी आसान नहीं रह जाएग। इसीलिए किसानों को लेकर उत्तर प्रदेश सरकार के साथ ही केन्द्र सरकार को वरूण लगातार सलाह देने के साथ ही पत्र भी लिख रहे हैं। गत दिनों वरूण ने उत्तर प्रदेश में धान की फसल को लेकर मंडियों में किसानों की उपेक्षा को लेकर भी ट्वीट किया था। इससे पहले वरुण गांधी ने उत्तर प्रदेश में बाढ़ के हालात को लेकर योगी आदित्यनाथ सरकार की आलोचना की थी। वरुण गांधी ने अपने संसदीय निर्वाचन क्षेत्र पीलीभीत में भारी बारिश के कारण आई जबरदस्त बाढ़ को लेकर उत्तर प्रदेश सरकार पर हमला करते हुए कहा कि अगर आम आदमी को उसके हाल पर ही छोड़ दिया जाएगा तो फिर किसी प्रदेश में सरकार का क्या मतलब है। पीलीभीत से सांसद वरुण ने ट्वीट किया था कि तराई का ज्यादातर इलाका बाढ़ से बुरी तरह प्रभावित है। बाढ़ से प्रभावित लोगों को सूखा राशन उपलब्ध कराया है ताकि इस विभीषिका के खत्म होने तक कोई भी परिवार भूखा ना रहे। यह दुखद है कि जब आम आदमी को प्रशासनिक तंत्र की सबसे ज्यादा जरूरत होती है तभी उसे उसके हाल पर छोड़ दिया जाता है। जब सब कुछ अपने आप ही करना है तो फिर सरकार का क्या मतलब है।
  लब्बोलुआब यह है कि वरूण गांधी अपनी ही पार्टी और सरकार पर हमलावर होकर मोदी-योगी के खिलाफ दबाव की राजनीति कर रहे थे,उन्हें लग रहा था कि पार्टी को उनकी बेहद जरूरत होगी,लेकिन बीजेपी आलाकमान ने दबाव में आने के बजाए वरूण से बात करना भी उचित नहीं समझा।ऐसे में वरूण गांधी या तो जो हालात बने हुए हैं,उसी में अपने आप को एडजेस्ट कर लें,वर्ना उनके लिए बाहर के दरवाजे भी खुले हुए हैं।

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संजय सक्‍सेना
मूल रूप से उत्तर प्रदेश के लखनऊ निवासी संजय कुमार सक्सेना ने पत्रकारिता में परास्नातक की डिग्री हासिल करने के बाद मिशन के रूप में पत्रकारिता की शुरूआत 1990 में लखनऊ से ही प्रकाशित हिन्दी समाचार पत्र 'नवजीवन' से की।यह सफर आगे बढ़ा तो 'दैनिक जागरण' बरेली और मुरादाबाद में बतौर उप-संपादक/रिपोर्टर अगले पड़ाव पर पहुंचा। इसके पश्चात एक बार फिर लेखक को अपनी जन्मस्थली लखनऊ से प्रकाशित समाचार पत्र 'स्वतंत्र चेतना' और 'राष्ट्रीय स्वरूप' में काम करने का मौका मिला। इस दौरान विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं जैसे दैनिक 'आज' 'पंजाब केसरी' 'मिलाप' 'सहारा समय' ' इंडिया न्यूज''नई सदी' 'प्रवक्ता' आदि में समय-समय पर राजनीतिक लेखों के अलावा क्राइम रिपोर्ट पर आधारित पत्रिकाओं 'सत्यकथा ' 'मनोहर कहानियां' 'महानगर कहानियां' में भी स्वतंत्र लेखन का कार्य करता रहा तो ई न्यूज पोर्टल 'प्रभासाक्षी' से जुड़ने का अवसर भी मिला।

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