मनमानी अब और नहीं

                                                                               इ. राजेश पाठक
                                                                      
                    सन २००८ में अमेरिका एक आर्थिक मंदी के दौर से गुजर चुका है. अपनी बहुचर्चित किताब, ‘मुद्रा की माया:विश्व का वित्तीय इतिहास’ में लेखक नायल फर्गुसन् ने इस पर प्रकाश डालते हुए लिखा है कि इसका कारण ये नहीं था कि अमेरिका की कंपनियों से निर्माण में कोई गलतियां हुई ; या, उनकी तकनीकी खोजों की गति अचानक शिथिल पड़ गयी थी. बल्कि इसका निकटस्थ कारण ये था कि वित्तीय नियंत्रण हाथ से निकल गया था. स्पष्ट शब्दों में, ऋण के एक प्रकार जिसे सुंदर शब्दों में सबप्राइम ऋण कहा जाता है, में बढ़ते डिफाल्ट के कारण क्रेडिट प्रणाली में संकुचन तेज हो गया था.और फिर इसके झटके से लेहमन ब्रदर्स जैसे अग्रणी बैंक कैसे धराशायी हुए वो हम सब जानते हैं.
              और यही वित्तीय-अव्यवस्था भारत में कुल १०.३५ लाख करोड़[ मार्च-२०१८ के आंकड़े अनुसार] की एनपीए के रूप में बैंकों में दिखने वाली राशी का एक महत्वपूर्ण कारण बनकर उभरी है. इस अव्यवस्था से मुक्ति पाने के लिए ही सरकार नें कुछ बैंकों को चिन्हित कर बड़े बैंकों में संविलियन करने का निर्णय लिया है. अन्य कारणों के साथ-साथ, एनपीए के इस विशाल आकार को ग्रहण करने का एक बड़ा कारण बैंक का ऋण प्रदान करने वाले ‘तंत्र’ को भी माना जाता है. वो कर्मचारी जिस पर लोन वितरण का प्रभार होता है नियमानुसार उसकी कार्य-अवधि तीन साल हुआ करती है ,पर अपने ऊपर के अधिकारीयों की ‘कृपा’ से  वो वर्षों इस सीट पर जमा रहता था और चलता रहता था डिफाल्टर कंपनियों को ऋण प्रदान करते रहने का बेलगाम खेल. पर अब रिज़र्व बैंक ने कड़े कदम उठाने का तय कर लिया है. वैसे जिन बैंकों को संविलियन प्रक्रिया के अंतर्गत लाया जा रहा है, ये वही बैंक हैं जिन्हें आरबीआई के सख्त प्रावधानों से युक्त पीसीए [प्रांप्ट करेक्टिव एक्शन] के अधीन पछले कुछ वर्षों  से अपना सञ्चालन करना पड़ रहा था. अथार्थ, जारी किये गए  ऋण की रिकवरी में अरूचि और सुस्ती; और ऋण देने में ही सारी दिलचस्पी और तत्परता के कारण से ही इन बैंकों को  डिपाज़िट कलेक्शन करने की तो छूट थी, पर व्यवसायिक ऋण प्रदान करने के [आरबीआई की निगरानी में ] सीमित अधिकार थे.
                      साथ ही संसद में पिछले दिनों पारित संशोधित दिवालिया कानून के प्रावधानों को और अधिक पारदर्शी, सख्त औए ऋणदाताओं को उनका अधिक से अधिक पैसा वापस पहुँचानें वाला बनाया गया है. विश्व बैंक की रिपोर्ट अनुसार आईबीसी-२०१६[इन्सोल्वेंसी एंड बैंकरप्सी कोड-२०१६] के पूर्व किसी ऋण शोधन अक्षमता के मामले में लगने वाली औसत अवधि  करीब ४.३ वर्ष थी. इस अवधि को घटाने के उद्देश्य से ही राष्ट्रिय कंपनी न्यायाधिकरण की शाखाएं १० से बढ़ाकर १५ कर दी गयी है; और उनमें २६ नए सदस्य जोड़े गएँ हैं. वकीलों और सदस्यों के प्रशिक्षण के लिए नेशनल लॉ कॉलेजों से संपर्क साधा जा रहा है. नए कानूनों के अंतर्गत दिवालिया कंपनियों के मामलों को निपटाने की अवधि अब ३३० दिन कर दी गयी है. इन उठाये गए कदमों के पीछे कंपनी को दिवालिया होने बचाना और बैंकों को एनपीए से मुक्त रखना है; साथ ही कंपनी से जुड़े छोटे-निवेशकों, सप्लायरों और कर्मियों के हितों की रक्षा करना भी है. इस कानून में पूरा ख्याल रखा गया है कि सर्वप्रथम लेनदार और देनदार के बीच कोई सहमति बन जाए. इन प्रयासों में असफलता मिलने पर ही दिवालिया की प्रक्रिया शुरू करने का प्रावधान है. और नीलामी में सफल बोलीदाता कंपनी के ऋण को चुकाने में यदि  लापरवाही करता  है तो उसके विरुद्ध  अपराधिक मामला दर्ज करने का भी पूरा प्रावधान किया गया है. वैसे पिछले कुछ महीनों में जब से कानून अस्तित्व में आया है लगभग २.८४ लाख करोड़ रूपए का समाधान हो चुका. 

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