हाल के वर्षो में सत्ता का ऐसा मोह किसी सरकार में नहीं देखा गया, जैसा मनमोहन सिंह की सरकार में है। उसके सहयोगी उसे आंखें दिखाकर स्वयं के हित साध रहे हैं। प्रधानमंत्री बार-बार गठबंधन धर्म का रोना रो रहे हैं, पर कुर्सी का मोह छूटता ही नहीं। हाल ही में रेल किराए में हुई आंशिक बढ़ोतरी से अपनी ही पार्टी सुप्रीमो ममता बनर्जी के निशाने पर आए दिनेश त्रिवेदी को प्रधानमंत्री लाख कोशिशों के बावजूद इस्तीफा देने से रोक नहीं पाए। यहां तक कि जिन मुकुल रॉय ने रेल राज्यमंत्री रहते प्रधानमंत्री के आदेश की अवहेलना की थी, प्रधानमंत्री को ममता के दबाव में आकर उन्हीं को रेल मंत्रलय सौंपना पड़ा।
फिर, सरकार बचाने और तृणमूल से छुटकारा पाने के एवज में मुलायम सिंह को भी मंत्री पद की पेशकश की गई। क्या कांग्रेस के लिए केंद्र की सत्ता इतनी जरूरी है कि उसके लिए वह अपने सहयोगियों द्वारा लगातार अपमानित होने के बावजूद उन्हें झेल रही है? आर्थिक सुधारों के पुरोधा मनमोहन सिंह ने जब भारत में आर्थिक सुधारों की नींव रखी थी, तो उनका कहना था कि अब सोच बदलने का समय आ गया है। आज वही मनमोहन सिंह सोचविहीन नजर आते हैं। न तो उनके आर्थिक सुधारों में आज परिस्थितियों के लिहाज से दम बचा है, न ही देश को मूलभूत समस्यों से निजात भी मिली है।
महंगाई ने आम आदमी की कमर तोड़ दी है। घोटालों की बात करें, तो संप्रग सरकार-दो ने घोटालों के सभी रिकॉर्ड ध्वस्त कर डाले हैं। पार्टी और सरकार के भीतर चल रहे विरोध को मनमोहन सिंह भी अच्छी तरह जानते हैं, पर वे जान-बूझकर चुप हैं। उनकी यह चुप्पी देश को गर्त में धकेलने का काम कर रही है। क्या देश को इस संकट से मुक्ति मिलेगी? क्या सरकार दबाव में आए बिना देशहित के कार्य कर पाएगी? शायद नहीं, क्योंकि इसके लिए जिस मजबूत इच्छाशक्ति की जरूरत है, उसका सरकार और उसके नुमाइंदों का दूर तक वास्ता नहीं है। ममता, मुलायम, मायावती, करुणानिधि, शरद पवार जैसे सहयोगियों से हमेशा दबकर काम करने की मजबूरी ने देश को राजनीतिक इतिहास की सबसे कमजोर और भ्रष्ट सरकार दी है।
प्रधानमंत्री यह भलीभांति जानते हैं कि क्षेत्रीय दलों की जितनी जरूरत उन्हें सरकार चलाने के लिए है, उतनी ही क्षेत्रीय दलों को राष्ट्रीय राजनीति में स्वयं को प्रासंगिक रखने के लिए सरकार की है। मायावती को जहां सीबीआई जांच से बचने के लिए कांग्रेस का सहारा चाहिए, तो मुलायम भाजपा को केंद्र में नहीं देखना चाहते। शरद पवार को महाराष्ट्र में शिवसेना-भाजपा के मजबूत गठबंधन से लड़ने के लिए कांग्रेस की जरूरत है, तो करुणानिधि जयललिता के विरुद्ध कांग्रेस के साथ के बगैर कमजोर हैं। जहां तक ममता की बात है, तो उन्हें भी कांग्रेस की जरूरत है, ताकि वामदलों की कांग्रेस से नजदीकियां दोबारा न बढ़ पाएं। जब सभी सहयोगियों को कांग्रेस की जरूरत है, तो फिर सरकार इनके सामने घुटने क्यों टेक रही है?
अच्छा तो यह होता कि प्रधानमंत्री एक बार दो टूक शब्दों में सहयोगियों को चेतावनी दे देते, पर लगता है कि उन्हें भी दबाव में सरकार चलाने की आदत-सी हो गई है। फिलहाल, कोई भी राजनीतिक दल देश में मध्यावधि चुनाव नहीं चाहता। ऐसे में सरकार को अपने सहयोगियों के रुख के प्रति कुछ कठोर निर्णय लेने होंगे, ताकि उसकी बची-खुची इज्जत और तार-तार न हो। अब जबकि बजट सत्र चल रहा है और सरकार सहयोगियों के आगे लगभग हार मानती नजर आ रही है, प्रधानमंत्री सहयोगी दलों के साथ बेहतर समन्वय स्थापित करने हेतु हफ्ते में तीन बार बैठक करने की बात कर रहे हैं।
इसके लिए एक समन्वय समिति बनाने की प्रक्रिया चल रही है। फिर, प्रधानमंत्री की बेबसी का आलम तो देखिए कि उन्हें हर फैसले के लिए 10 जनपथ का मुंह ताकना पड़ता है। ऐसे में समझा जा सकता कि देश में सुशासन की स्थिति क्या होगी? देश में कांग्रेस की बदहाल स्थिति को देखते हुए प्रधानमंत्री से यह अपेक्षा है कि वे सहयोगियों के प्रति सख्त रुख अपनाएं, ताकि देश को एक मजबूत सरकार मिल सके।
आप भी भाई साहेब क्या बात कर रहे हो… चोर उच्चक्कों की भी कोई इज्ज़त होती है ?..उतिष्ठ कौन्तेय