क्या मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री पद की गरिमा जानते हैं?

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भारत में वाटरगेट बनने जा रहा कोलगेट घोटाला इस समय सुर्खियों में है। संसद में भाजपा ने इस घोटाले को लेकर सरकार को बीते मानसून सत्र में मजबूती से घेरा है और पीएम मनमोहन सिंह के इस्तीफे की मांग की है। पीएम से इस्तीफा मांगने की जिद इस बार चाहे भाजपा ने और उसकी कुछ सहयोगी पार्टियों ने ही की है, लेकिन भाजपा की इस जिद के पीछे इस बार राष्ट्र की ‘सामान्य इच्छा भी’ काम कर रही है। देश का कभी भी विश्वास न पाने वाले पीएम मनमोहन सिंह इस समय तो अप्रत्याशित रूप से विश्वास के संकट से निकल रहे हैं। उन्होंने संसद में भाजपा के तीखे बाणों से अपना बचाव चुप रहकर किया है। इसे देश की जनता ने ‘चोर की चुप्पी’ जैसा माना है। लगता है पीएम का हृदय उनसे कह रहा हो कि भाजपा की बात में दम है, इसलिए चुप रहना ही उचित है। हालांकि बाहरी शब्दों में पीएम ने अपनी चुप्पी पर कहा है कि वह प्रधानमंत्री पद की गरिमा बनाये रखना चाहते हैं, इसलिए ‘तू-तू, मैं-मैं’ की राजनीति में उनका विश्वास नही है। लेकिन डा. मनमोहन सिंह यह भी जानते होंगे कि जब दिल भीतर से मजबूत होता है तो ‘तू-तू, मैं-मैं’ का जवाब मजबूती से देने के लिए आदमी स्वयं ही उठ खड़ा होता है।

यदि प्रधानमंत्री अपने पद की गरिमा को जान रहे होते तो वह प्रधानमंत्री बनते ही संसद में राज्यसभा की सदस्यता से त्यागपत्र देते और स्वयं को जननायक सिद्ध करने के लिए लोकसभा में कहीं न कहीं से आते। राज्यसभा से आकर लोकसभा में बैठना हमारे पीएम को गरिमाहीन नजर नही आता। उन्हें संसद में विपक्ष की सशक्त भूमिका निभा रही भाजपा की सुषमा स्वराज, अरूण जेटली और लालकृष्ण आडवाणी का बोलना गरिमाहीन लगता है। हमारे लोकतंत्र का यह दुर्भाग्यपूर्ण पक्ष है। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह से ऊपर सुपर पीएम इस समय सोनिया गांधी हैं, वह पिछले साढे आठ वर्ष से देश की सत्ता को पीछे से हांक रही हैं। हमारे नौकरशाह रहे पीएम अपने सुपर पीएम का निर्देश उसी प्रकार मान रहे हैं जिस प्रकार एक नौकरशाह अपने बॉस का निर्देश माना करता है। पीएमओ को पहली बार हमने नौकरशाह की शैली में कार्य करते देखा है। डा. मनमोहन सिंह अपनी बॉस के प्रति ईमानदार हो सकते हैं लेकिन उन्होंने ऐसा करके देश में प्रधानमंत्री पद की गरिमा गिराई है। फिर भी वह गरिमा की बात कर रहे हैं तो सवाल आता है कि कैसी गरिमा? सचमुच, जिस गरिमा को नीलाम करके वह गद्दी पर बैठे उसे सुरक्षित करने की बात कहकर वह देश में हंसी का पात्र ही बने हैं।

आज सारे देश में यदि कोई बेचारा है तो वह प्रधानमंत्री मन मोहन सिंह हैं। ऐसे बेचारे कि जिस पर पूरा देश हंस रहा है। कपड़े उतार कर घूम रहे प्रधानमंत्री सचमुच धृतराष्ट्र हो गये हैं। जिन्हें देखकर पूरा देश हंस रहा है और वह फिर भी कह रहे हैं कि पीएम पद की गरिमा के लिए ही उन्होंने कपड़े पहन रखे हैं। पूरे देश से उनके लिए मंद मोहन, मौन-मोहन, मंद बुद्घि जैसे विशेषण उछाले जा रहे हैं और वह प्रधानमंत्री पद की गरिमा का ध्यान रखते हुए इन सबसे मुंह फेरे हुए हैं?

यदि पीएम में अपने पद के प्रति थोड़ी सी भी ईमानदारी होती तो अब तक उन्हें त्यागपत्र दे देना चाहिए था। उन्होंने कोलगेट का महाघोटाला करने में सीधे सक्रिय भूमिका निभाई। अपने मंत्री सुबोधकांत सहाय के भाई को कोयला खदानों का आवंटन किया, और इसी प्रकार की बंदरबांट करने में बतौर कोयला मंत्री के भी सीधे साफ सबूत उनके खिलाफ हैं जिनसे स्पष्ट हो रहा है कि उन्होंने बतौर कोयला मंत्री प्रधानमंत्री पद की गरिमा को जिस प्रकार नीलाम किया था वह स्थिति उनके लिए बदनुमा दाग जैसी है, पर फिर भी वह गरिमा की बात कर रहे हैं। सचमुच उनसे बड़ा गरिमाहीन इस भूमंडल पर कोई नजर नही आता। प्रधानमंत्री को बचाने के लिए सोनिया गांधी की एक कंपकंपाती आवाज लोकसभा में गूंजी कि सारे कांग्रेसी भाजपा को उसी की भाषा में जवाब दें। लेकिन यह कंपकंपाती आवाज सोनिया के आत्मबल की प्रतीक नही थी बल्कि यह उनकी अधीरता की प्रतीक थी। इसलिए संसद और सड़क दोनों पर ही उनका प्रभाव नही हुआ। ना तो कांग्रेसी लामबंद होकर संसद में विपक्ष का सामना कर पाए और ना ही संसद से बाहर सड़क पर कांग्रेस मैदान में उतर कर भाजपा के किसी षडयंत्र का भण्डाफोड़ कर पायी। सुपर प्रधानमंत्री सोनिया गांधी का तिलिस्म अब पार्टी में भी नही रहा है, इसे उन्होंने स्वयं भी समझ लिया है और कदाचित इसीलिए उन्होंने भाजपा नेता सुषमा स्वराज से अपनी ओर से फोन पर बातें की हैं। उन्हें अपनी औकात का पता चल गया है। सोनिया भाजपा से लडऩे के बजाए अब दुम दबाकर भागने में ही अपना भला समझ रही हैं।

देश के आर्थिक संसाधनों को जिस प्रकार लूटने का घिनौना प्रयास कांग्रेस सरकार ने लिया है, उसे लेकर आर.आर.एस. ने ठीक ही कहा है कि देश कांग्रेस की जागीर नही है कि वह मनमाने तरीके से सरकारी खजाने की लूट करे और जनता आंखें मूंद ले। राष्ट्र मंडल खेल घोटाला जैसे महा भ्रष्टाचार के एक के बाद एक आयाम जुड़ते चले जा रहे हैं। प्रधानमंत्री गठबंधन की मजबूरी की आड़ लेकर अब तक सफाई देते रहे हैं, लेकिन कोयला ब्लॉक आवंटन घोटाला तो स्वयं प्रधानमंत्री के कोयला मंत्रालय के प्रभारी रहते हुआ है, तो दोष सीएजी पर क्यों मढ़ा जा रहा है?

संघ की चिंता और उसका चिंतन एकदम उचित है। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को इस प्रकरण में कोई माफी नही दी जानी चाहिए। उनकी सरकार रसोई में रखे हुए ‘सड़े टमाटरों की टोकरी’ हो चुकी है, जिसे अब उठाकर फेंकना ही राष्ट्र की जनता के सामने एकमात्र विकल्प है। देश की अस्मिता और देश के मूल्यों से खेलने की छूट कांग्रेस को यदि और दी गयी तो अनर्थ होने से कोई भी नही बचा पाएगा। भाजपा को देश की सामान्य इच्छा का सम्मान कराने के लिए कांग्रेस से ही नही कहना चाहिए कि प्रधानमंत्री इस्तीफा दें और नये चुनाव करायें, बल्कि स्वयं भी देश की ‘सामान्य इच्छा, का सम्मान करना चाहिए। चुनाव पूर्व सर्वेक्षण बता रहे हैं कि देश की पसंद नरेन्द्र मोदी बन चुके हैं, इसलिए अगले चुनाव से पूर्व नरेन्द्र मोदी को बतौर पीएम भाजपा जनता के सामने पेश करे। हिंदुत्व इस देश का बीता हुआ कल नही है, बल्कि वह इस देश का उज्जवल पक्ष है और लोग शुद्ध साफ और एकदम पारदर्शी हिंदुत्व के किसी प्रहरी की प्रतीक्षा में है। देश को ये गुण नरेन्द्र मोदी में दीख रहे लगते हैं। जिसे भाजपा को समझना चाहिए।

देश में को लेकर अन्ना ने सड़क पर बैठकर संसद को सलाह देने की हिमाकत की तो लोगों ने शोर मचाया कि सड़क संसद से बड़ी नही हो सकती। लेकिन हमने तब भी कहा था कि सड़क ही संसद का निर्माण करती है और उसका रास्ता बताती है। ‘गुरू गोविंद दोऊ खडे..’ वाली स्थिति है संसद और सड़क की। सड़क को सम्मान इसलिए देना पड़ता है कि जब हमारे जनप्रतिनिधि अपना रास्ता भटक जाते हैं तो सड़क ही उन्हें रास्ता बताती है। आज फिर कांग्रेस कह रही है कि उसके पास दो साल का जनादेश है इसलिए वह 2014 से पहले चुनाव नही कराएगी और नाही पीएम त्यागपत्र देंगे। क्योंकि वह विधिवत निर्वाचित पीएम हैं, जिन्हें 2014 तक जनादेश प्राप्त है। कांग्रेस के ये तर्क वास्तव में देश की जनता के गले नही उतर रहे हैं। पर देश की जनता इस समय समझ ले कि उसे सड़क पर आना ही होगा। देश की जनता का विश्वास खो चुकी सरकार यदि किसी प्रकार से संवैधानिक परंपराओं का अपने हक में अर्थ निकालती है तो यह देश के साथ एक और अपघात होगा। देश के साथ अपघातों के लिए कुख्यात हो गयी एक कथित सीधे सादे ईमानदार व्यक्ति की सरकार देश के साथ अब और अधिक अपघात नही कर सकती। इसलिए 2014 का इंतजार करना देश की मुर्दादिली का प्रमाण देना होगा। जबकि भारत एक जीवंत राष्ट्र है, जिसे अपने गौरव की सुरक्षार्थ आत्म निर्णय लेना आता है, इसलिए भारत आत्म निर्णय ले चुका है, कांग्रेस अपनी परिणिति की प्रतीक्षा करना चाहे तो कर सकती है।

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  1. भाई राकेशजी की भावना उचित है लेकिन क्यां समझौतापरस्ती के चलते अगली सर्कार भी कुछ कर सकेगी?केवल एक कठोर राष्ट्रवादी और पूर्ण बहुमत की सर्कार, बेहतर हो दो तिहाई बहुमत की सर्कार, ही कुछ सार्थक कदम उठा पायेगी. इसके लिए क्या देश तैयार है? और क्या स्टेक होल्डर्स भी तैयार हैं? प्रमुख विपक्षी दल केवल संसद के भीतर शोर मचने में व्यस्त हो और जनता के बीच जाकर दो तिहाई सदस्यों के लिए न तो प्रयासरत है और न ही इस प्रकार की मानसिकता ही बना पाया है. उसे लगता है की ऐसा करने से उसके “सहयोगी” दल बिदक जायेंगे. जो शुरुआत ही बैसाखियों के आधार पर करने की मानसिकता रखते हैं वो कितनी दूर चल पाएंगे? किसी एक बैसाखी के हटते ही धराशायी हो जाने का खतरा उनके किसी भी साहसिक कदम को हमेशा रोकता रहेगा. जोखिम उठाकर भी साहसिक कदम उठाकर लोगों में अपने सार्थक छवि बनाने के लिए साहस चाहिए. जो आपस में ही लड़ते हुए हमारे प्रमुख विपक्षी दल के नेताओं के लिए दूर की कौड़ी कगता है.

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