मनुष्य का धर्म मनुष्यता के पर्याय श्रेष्ठ गुणों को धारण करना है

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मनमोहन कुमार आर्य

                संसार में अनेक प्राणी योनियां हैं जिनमें एक मनुष्य है। मनुष्य योनि को सबसे श्रेष्ठ योनि कहा जाता है। इसका कारण है कि इसके पास विचार करने के लिए बुद्धि और बोलने के लिए वाणी हैं। इतना ही नहीं, यह सीधा सिर उठाकर अपने दो पैरों के बल पर चल सकता है और अपने दो हाथों से प्रायः सभी प्रकार के काम कर सकता है जिसे अन्य प्राणी नहीं कर सकते। चार वेदों में 10 हजार 500 से कुछ अधिक मन्त्र हैं। इनमें से एक मन्त्र गायत्री मन्त्र और गुरु मन्त्र के नाम से प्रसिद्ध है। इस गायत्री मन्त्र में ईश्वर से हमें श्रेष्ठ बुद्धि देने की प्रार्थना की गई है। इस प्रार्थना के कारण ही यह मन्त्र एक श्रेष्ठ मन्त्र कहलाता है। इसका जप करने का भी विधान है। इसके जप करने से मन्द बुद्धि बच्चे व युवा भी विद्वान बन जाते हैं। इस उपलब्धि को प्राप्त हुए अनेक उदाहरण हैं। आर्य समाज के विख्यात विद्वान महात्मा आनन्द स्वामी जी के बारे में कथा है कि वह बचपन में मन्द बुद्धि के बालक थे। उन्हें एक महात्मा से गायत्री मन्त्र की शिक्षा मिली जिससे वह बुद्धिमान बन गये और आज देश सहित विश्व में भी उनका यश व्याप्त है। महात्मा जी की एक दर्जन से अधिक पुस्तकें आज भी लोग बहुत रूचि व उत्साह से पढ़ते हैं और जीवन में आगे बढ़ने की प्रेरणा लेते हैं।

                स्वामी विरजानन्द जी का नाम भी जगत विख्यात है। वह वैदिक आर्ष व्याकरण के पुरोधा और भारत भाग्य विधाता महर्षि दयानन्द के विद्यागुरु थे। वह अपने जन्म स्थान करतारपुर, पंजाब से आत्मिक उन्नति की खोज में ऋषिकेश आये थे और यहां से कन्खल पहुंचे थे। उन्होंने गगा नदी में खड़े होकर गायत्री मन्त्र से साधना की थी। बाद में यह ऐसे विद्वान बने जिनकी समता का विद्वान शायद महाभारत के बाद दूसरा नहीं हुआ। स्वामी दयानन्द जी ने भी इन्हें व्याकरण का सूर्य कहकर सम्मान दिया है। हमारा यह उल्लेख करने का तात्पर्य है कि मनुष्य अपनी बुद्धि की उन्नति कर ही श्रेष्ठ मनुष्य बनता है और श्रेष्ठ आचरण वाला मनुष्य ही मनुष्य कहलाने का अधिकारी होता है। मनुष्य को मनुष्य क्यों कहते हैं? इसका उत्तर है कि जो मननशील हो, मनन कर सत्यासत्य का निर्णय करे, सत्य का ग्रहण और असत्य का त्याग करे, वही सच्चे अर्थों में मनुष्य कहलाता है। जो मनुष्य असत्य का व्यवहार करता है और सत्य को जानने में प्रयत्न ही नहीं करता, जान भी जाये तो भी असत्य व मिथ्या आचरण करता है वह मनुष्य कहलाने का अधिकारी नहीं होता। सत्य के विपरीत आचरण करने वाले को पापी कहा जाता है। रावण व कंस की चर्चा करें तो देश व समाज में इनकी एक पापी के रूप में प्रसिद्धि है। दूसरी ओर राम, कृष्ण और दयानन्द जी की प्रसिद्धि एक पुण्यात्मा, महापुरुष, मर्यादा पुरुषोत्तम, योगेश्वर व ऋषि के रूप में हैं। ऋषि दयानन्द में यह सभी गुण विद्यमान थे। उन्होंने जिन विपरीत परिस्थितियों में वेदों व विद्या का प्रचार किया, शास्त्रार्थ किये, ग्रन्थ लेखन किया, मत-मतान्तरों की समीक्षायें की, एक कौपीन मात्र पहन कर अपने जीवन का अधिकांश समय व्यतीत किया, संन्यास धर्म, ब्रह्मचर्य और योगी की सभी मर्यादाओं का आदर्श रूप में पालन किया, इस लिये उनके जीवन पर विचार करते हुए हमारा मस्तक व हृदय उनके चरणों में स्वतः झुक जाता है। सत्यार्थप्रकाश और ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका आदि अनेक ग्रन्थ उनकी अत्युत्तम कृतियां हैं। यदि हमें किसी को यह बताना हो कि महाभारत काल के बाद उत्पन्न महापुरुषों में सर्वोच्च महापुरुष व महा-मानव कौन है तो हमारे ज्ञान के अनुसार वह व्यक्ति ऋषि दयानन्द ही थे।

                मनुष्य किसे कह सकते हैं, इसका उल्लेख भी उन्होंने अपने लघु ग्रन्थ स्वमन्तव्यामन्तव्यप्रकाश में किया है। हम उनके विचारों को प्रस्तुत कर पाठकों से निवेदन करेंगे कि इसके एक एक वाक्य पर ध्यान दें और इन्हें स्वामी दयानन्द जी के जीवन पर घटायें। हम पायेंगे कि महर्षि दयानन्द जी ने अपने जीवन में इसका अक्षरशः पालन किया था। उनके शब्द हैं:

मनुष्य उसी को कहना कि जो मननशील होकर स्वात्मवत् अन्यों के सुखदुःख और हानिलाभ को समझे। अन्यायकारी बलवान् से भी डरे और धर्मात्मा निर्बल से भी डरता रहे। इतना ही नहीं किन्तु अपने सर्व सामर्थ्य से धर्मात्माओं कि चाहे वे महा अनाथ, निर्बल और गुणरहित क्यो हों, उन की रक्षा, उन्नति, प्रियाचरण और अधर्मी चाहे चक्रवर्ती सनाथ, महाबलवान् और गुणवान् भी हो तथापि उस का नाश, अवनति और अप्रियाचरण सदा किया करे अर्थात् जहां तक हो सके वहां तक अन्यायकारियों के बल की हानि और न्यायकारियों के बल की उन्नति सर्वथा किया करे। इस काम में चाहे उस को कितना ही दारुण दुःख प्राप्त हो, चाहे प्राण भी भले ही जावें परन्तु इस मनुष्यपनरूप धर्म से पृथक् कभी होवे।

आजकल सभी मत-मतान्तर स्वयं को धर्म के नाम से प्रस्तुत करते हैं। धर्म धारण करने योग्य गुणों व स्वभाव को कहा जाता है। मनुष्य को सत्य को धारण करना चाहिये। यही उसका धर्म है। संसार में ऐसे लोगों को ढूंढना शायद सम्भव नहीं है जो सत्य को धारण किये हुए हैं और जिनके जीवन में असत्य का कोई आचरण व व्यवहार नहीं है। सत्याचरण ही सच्चे व अच्छे मनुष्य की निशानी है। मननशील होने का अर्थ भी सत्यासत्य को जानना, सत्य को ग्रहण करना तथा असत्य का त्याग करना है। ऐसा करके मनुष्य वेदाध्ययन में प्रवृत्त होकर वेद  की शिक्षाओं को जानकर उन्हें धारण करने में सक्षम होता है। उसी मनुष्य की वास्तविक संज्ञा मनुष्य होती है। अज्ञानी, असत्याचरण करने वाले, हिंसक, लोभी, दुराचारी आदि मनुष्यों को यथार्थ व सच्चा मनुष्य नहीं कहा जा सकता। वेदों ने कहा है कि ‘‘मनुर्भव अर्थात् हे मनुष्य तू यथार्थ वा सच्चा मनुष्य बन।

हम यह उचित समझते हैं कि सभी मनुष्यों को प्रतिदिन प्रातः व सायं अपने कर्मों व आचरण पर विचार करना चाहिये कि हमने उस दिन जो कर्म किये थे क्या वह मनुष्य के करने योग्य थे अथवा उसमें सुधार की आवश्यकता है। यदि हम ऐसा करते हैं और अपनी भूलों को सुधारते हैं तो हमें आशा है कि हम आने वाले समय में एक अच्छे मनुष्य बन सकते हैं। इस लेख को हम यहीं विराम देते हैं। ओ३म् शम्।

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