मनु और वत्र्तमान राजनीति की विश्वसनीयता

dalit rajnitiराकेश कुमार

मनुस्मृति को लेकर देश में अक्सर चर्चा चलती रहती है। कुछ राजनीतिज्ञों और तथाकथित विद्वानों ने मनुस्मृति और मनुवाद को इतना कोसा है कि हर वह व्यक्ति जो थोड़ा सा भी विवेक रखता है वह मनुस्मृति और मनुवाद को लेकर कुछ ‘सावधान’ सा हो उठता है। वास्तव में मनुवाद या मनुवादी वर्ण-व्यव्यस्था हमारे देश की संस्कृति की रीढ़ है। इस पर हमने पूर्व में भी बहुत बार लिखा है। अब तो हम इस विषय में पर विचार करेंगे कि जो लोग मनुवाद और मनुस्मृति को कोसने का कार्य अनवरत करते जा रहे हैं, क्या वे लोग मनुवादी व्यवस्था से उत्तम कोई विश्व-व्यवस्था देने में सफल रहे हैं या नही? यह भी विचार किया जाना अपेक्षित और उचित होगा कि भारत का वर्तमान संविधान या विधि व्यवस्था इस देश में कोई राजधर्म, राष्ट्रधर्म या राष्ट्रनीति भी विकसित कर पाये हैं या नही?

अभी जी.एस.टी. बिल को जब हमारे देश की लोकसभा ने पारित किया है तो उसके पारित होने पर सभी दलों के द्वारा इस बिल को पारित कराने में दिखायी गयी एकता पर प्रसन्नता व्यक्त करते हुए हमारे प्रधानमंत्री श्री मोदी ने संसद में एक बड़ा प्यारा सा शब्द प्रयोग किया कि

‘इसे राष्ट्रनीति’ कहते हैं। प्रधानमंत्री सभी दलों की इस बिल पर बनी सहमति से बनी सुखद स्थिति पर अपनी टिप्पणी कर रहे थे। संभवत: ‘राष्ट्रनीति’ शब्द किसी प्रधानमंत्री ने पहली बार ही संसद में प्रयोग किया हो।
यदि हम मनु प्रतिपादित राज्यव्यवस्था को पढ़ते, समझते तो इस देश में ‘ओच्छी राजनीति’ के स्थान पर ‘राष्ट्रनीति’ ही अपनायी जाती। बड़ी गंभीर बहस और उत्कृष्ट शास्त्रार्थ हमारी राजसभा में (अर्थात संसद में) संपन्न हुआ करते। इन शास्त्रार्थों से राजा जनक के काल की गौरवमयी स्मृतियां जागृत हो उठतीं, जिनका सारा देश रसास्वादन लिया करता। पर दुर्भाग्यवश ऐसा हो नही पाया।

मनु महाराज ने मनुस्मृति के सातवें अध्याय को ‘राजधर्म विषय’ पर केन्द्रित किया है। जिसे पढ़ व समझकर आपको आश्चर्य होगा कि विश्व की वर्तमान दुर्दशा को सुधारने के लिए मनुस्मृति का यह अध्याय अनुपम और अद्वितीय है। इसे पढक़र आप निश्चित रूप से कह उठेंगे कि राजधर्म की ऐसी सुंदर व्यवस्था विश्व के किसी भी संविधान या विधि-विधान में नही की गयी है। विश्व का कोई भी संविधान या विधि-विधान ऐसा नही है जो अपने देश के लिए मनु जैसा ‘राजधर्म’ घोषित करने का साहस कर पाया हो। इसका कारण यह हो सकता है कि संसार के प्रचलित संविधान कुछ ऐसे लोगों ने बनाये हैं जो संयोगावशात किसी न किसी कारण से अपने देश की सत्ता को हथियाने में सफल हो गये थे और जिन्हें विश्वास था कि वे सबसे गुणी हैं और इसलिए वे कानून से ऊपर भी हैं। एक प्रकार से इन लोगों ने ‘सत्ता की चोरी’ की और जनता को ऐसा अनुभव कराया कि सत्ता की चोरी करके उन्होंने कोई पाप नही किया है, अपितु जनता पर उपकार किया है। ऐसा कहकर सत्ता के इन चोरों ने लेागों की भावनाओं से खिलवाड़ किया और अलग-अलग समयों पर अपने-अपने देशों में से ऐसे विधि-विधानों का सृजन किया जिसमें इन लोगों ने अपने आपको हर विधि-विधान से ऊपर रखा। अमेरिका में सत्ता परिवर्तन और विधि निर्माण 1776 ई. में हुआ, इसके बाद हमने विश्व में कई ऐसी क्रांतियां होते देखी हैं, जिन्होंने लाखों-करोड़ों (रूस के स्टालिन और चीन के माओ के आंदोलन को भी तनिक स्मरण करो) लोगों के रक्त को बहाया।

जहां-जहां भी ये क्रांतियां हुईं वही-वहीं हमने देखा कि क्रांति से पूर्व और क्रांतियों के कुछ काल उपरांत तक भी शासक वर्ग द्वारा लोगों को अन्याय, अत्याचार, भय, भूख, भ्रष्टाचार से मुक्ति दिलाने के सपने बेचे गये पर इन देशों से ना तो भय मिटा, ना भूख मिटी और ना भ्रष्टाचार या किसी भी प्रकार का अत्याचार मिटा। जिस देश में भी क्रांति हुई उसी देश में आज भी ये सारे अपराध उतनी ही मात्रा में हैं जितने तथाकथित क्रांति से पूर्व थे। ऐसी स्थिति में यह नही माना जा सकता कि इन देशों में क्रांति सफल रही। इसका अभिप्राय है कि बड़ी संख्या में लोगों को व्यर्थ ही मारा-काटा गया, और यह भी कि वे मरने-कटने वाले लोग अपने जीते जी क्रांति का उचित ही प्रतिरोध कर रहे थे। तथाकथित क्रांतियों के असफल होने के उपरांत भी लोग उन क्रांतियों में मरने वाले लोगों के स्मारक बनाने की मांग नही कर रहे हैं। दुख की बात है कि मानवता का खून निरर्थक बहाया गया। लोगों ने निजी महत्वाकांक्षाओं की पूत्र्ति के लिए और ‘सत्ता की चोरी’ के लिए इतना बड़ा पाप किया और हम उन्हें आज तक ‘मानवता के मसीहा’ कहकर अथवा इतिहास के महानायक कहकर पूज रहे हैं। कितना बड़ा छल हम कर रहे हैं-उन निरपराध लोगों को हम आज तक श्रद्घांजलि नही दे पाये जो इन तथाकथित क्रांतियों में ‘सत्ता के चोरों’ की निजी महत्वाकांक्षाओं की भेंट चढ़ गये थे।

लाखों-करोड़ों लोगों के रक्त को बहाने वालों से हमने विधि विधान बनते देखे और उन विधि-विधानों को अपनी सहमति या स्वीकृति इस आशा और विश्वास के साथ प्रदान की कि देर-सवेर ये विधि-विधान ही हमारी सारी समस्याओं का समाधान देंगे। हम भावातिरेक में यह भी नही देख पाये कि अपनी सुध खो बैठे सत्ता के ये चोर नये विधि-विधान में अपने लिए ऐसी क्या व्यवस्था कर रहे हैं जिसके चलते समय आने पर इन्हें भी जनता दंडित कर सके? क्या कारण है कि विश्व के किसी भी संविधान ने या लोकतांत्रिक देश ने अपने भ्रष्ट और राजधर्म विमुख शासक को आज तक फांसी पर नही चढ़ाया। यदि ऐसा कहीं हुआ भी है तो किसी ‘तानाशाह’ (सत्ता के चोर) ने ही किसी शासनाध्यक्ष के साथ किया है या फिर उस ‘तानाशाह’ के साथ किसी अगले शासक ने किया है।

सदियों से नही सहस्राब्दियों से सारे विश्व के लोग इसी मृगमरीचिका में जीते मरते रहे हैं कि सवेरा अब होने ही वाला है। वह सोचते रहे हैं कि आने वाले मोड़ के पश्चात एक राजपथ मिलेगा और ऊबड़-खाबड़ कंटकाकीर्ण मार्गों से मुक्ति मिलकर हम शांति पथ पर आगे बढ़ेंगे। पर ऐसा हुआ नही है। आग और भी अधिक भडक़ गयी है, और हम देख रहे हैं कि वर्तमान विश्व में भी सर्वत्र अशांति और कोलाहल व्याप्त है। आतंकवाद के नाम पर सपने बेच-बेचकर विश्व के लोगों को परस्पर रक्तपात के लिए प्रेरित किया जा रहा है। सारे विश्व में व्याप्त आतंकवाद की जड़ में यही मानसिकता और सत्ता के चोरों का परंपरागत भूत कार्य कर रहा है। राह चलना कठिन होता जा रहा है, सांसें घुट रही हैं और जीवन नरक बन गया है। कारण है कि ‘सत्ता के चोर’ राजधर्म से और राष्ट्रनीति से विमुख हैं।

अब समय है कि विश्व भारत की ओर देखे और भारत के राजधर्म के प्रणेता महर्षि मनु के विचारों का अनुकरण करे। जिसने विश्व का सबसे पहला संविधान निर्मित किया और सबसे पहला राजा बनकर अपने लिए ही ऐसी आदर्श आचार संहिता लागू की कि जिसे देखकर उस महामानव की बौद्घिक क्षमता और न्यायपूर्ण विवेक पर हर भारतवासी को गर्व होता है और वह सोचता है कि हम सचमुच कितने सौभाग्यशाली हैं जो यह महामानव हमारी इस धर्म धरा पावन भारतभूमि पर ही जन्मा। सत्ता के चोरों ने चाहे अपने लिए अपने संविधानों में कोई आदर्श राजधर्म घोषित किया या नही किया पर सत्ताधीशों के इस मार्गदर्शक महर्षि मनु ने तो अपने लिए और आने वाली राजवंशीय परंपरा के लिए अपने राजधर्म विषयक अध्याय में स्पष्ट लिखा-‘जैसा परम विद्वान ब्राह्मण होता है वैसा विद्वान सुशिक्षित होकर क्षत्रिय के लिए उपयुक्त है कि इस सब राज्य की रक्षा न्याय से यथावत करे।’ (सत्यार्थप्रकाश 138)

क्रमश:

 

1 COMMENT

  1. पहले पहल मैं राकेश कुमार आर्य जी से प्रश्न कर यह पूछना चाहूँगा कि उनके सुंदर सूचनात्मक निबंध में “मनु और वत्र्तमान राजनीति की विश्वसनीयता” में “वत्र्तमान” शब्द रचना में व और त के मध्य लिखा चिन्ह क्या है, कभी देखने पढ़ने में नहीं आया?

    यदि सभी दलों द्वारा जी.एस.टी. बिल पारित होने पर प्रधान मंत्री नरेन्द्र मोदी जी के वक्तव्य में “राष्ट्रनीति” शब्द को आप बड़ा प्यारा सा शब्द कहते हैं तो आप से सहमत हो मैं कहूँगा कि अब तक की राजनीति केवल राज करने वालों और उनके समर्थकों की राष्ट्र नहीं बल्कि विनाश की नीति रही है| अब तक नेतृत्वहीन भारत को अपनी अदूरदर्शी व स्वार्थपरायण आकांक्षाओं के कारण स्वयं भारतीयों ने रौंदा और खदेड़ा है| भारतीय उप महाद्वीप के अनपढ़ और पढ़े लिखे मूल निवासियों ने फिरंगी को सत्ता में बनाए रखने की भरपूर सहायता की थी| तथाकथित स्वतंत्रता के उपरान्त इन्हीं भारतवासियों में अब फिरंगी के समान भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के प्रति सेवा-उन्मुख परम्परा के कारण देशवासियों में न तो राष्ट्रप्रेम अथवा राष्ट्रवाद ही जागा और न ही देश को सामान्य भाषा द्वारा एक डोर में बांधा जा सका है| और उस पर ऐसी स्थिति को बने रहने में भी इन पढ़े लिखे स्वार्थपरायण भारतीयों का सदैव सहयोग रहा है| आज भी भारत में हिंदु-विरोधी तत्वों ने, जिनमें अधिकांश स्वयं हिन्दू हैं, भारतीय जनसमूह को लगभग पिछले सात दशक से पूर्व शासन की राजनीति में दलित और तथाकथित मनु-वादियों में उलझाए रखा है| भारतीय समाचारपत्रों व अन्यत्र मीडिया में व्यर्थ के दलित-संबंधी समाचार व उन पर पाठकों की टिप्पणियों में मनु-वादियों अथवा राष्ट्रीय हिन्दू शासन को ही दोष देते अराजकता फैलाते, राष्ट्र-विरोधी तत्त्व सरलमति भारतीयों को आगामी चुनावों के लिए पथभ्रष्ट करने के दुष्ट प्रयास में लगे हुए हैं| चिरस्थाई सामाजिक कुरीतियों अथवा राजनीतिक अवसरवादिता के संदर्भ के अतिरिक्त स्वयं मैंने मनु को देव पुरुष के रूप में सुना है| आज भूजाल पर खोज कर मनु सम्बंधित स्थिति को समझने का प्रयास कर रहा हूँ|

    राकेश कुमार आर्य जी, आप भावना में बह मनु स्मृति अथवा मानव धर्मशास्त्र की तुलना में विश्व के अन्य राष्ट्रों की राजनीति की बात करते हैं लेकिन मैं देखता हूँ कि मानव धर्मशास्त्र को बहुत पहले अठारहवीं शताब्दी में पश्चिमी विदेशियों ने अनुवादित कर अवश्य ही अपने अपने देश की परिस्थिति अनुसार सफलतापूर्वक प्रयोग में लाया है| स्वयं भारत में अब तक मैं उस अलौकिक मनु स्मृति की अवज्ञा होते देखते आया हूँ क्योंकि १८८५ में जन्मी अंग्रेजों की कार्यवाहक प्रतिनिधि भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस अंग्रेजी राजभाषा, जो आज भी नब्बे प्रतिशत जनसमूह में लोकप्रिय न बन पाई है, द्वारा अंग्रेजों के कार्यक्रम को कार्यान्वित करती रही है| मेरे विचार में भारत और विदेशियों में मनु स्मृति और विदेशियों द्वारा स्वच्छंद रूप से अथवा कलकत्ता में १८२४ में स्थापित संस्कृत कालेज के सौजन्य से अध्ययन व अनुवादित किये गए अन्य भारतीय शास्त्रों एवं ग्रंथों को लेकर विशेष अंतर उनमें प्रस्तुत ज्ञान को अपने अपने समाज में अपने अच्छे बुरे ढंग से कार्यान्वित करने में है| हमारे यहाँ शास्त्रों को मंदिरों और जनसभाओं में कथा-वाचक कहते आये हैं और विदेशों में व्यवसायी बुद्धिजीवी उन आदर्शों को विधि व्यवस्था में भलीभांति कार्यान्वित करते रहे हैं| मेरा दृढ़ विश्वास है कि आप जैसे बुद्धिजीवी भारतीय नागरिकों में हिंदुत्व के आचरण को प्रोत्साहित कर उन्हें प्राचीन ग्रंथों में प्रस्तुत गुणों को श्री नरेन्द्र मोदी जी के नेतृत्व में शासन और भारतीय जनसमूह द्वारा अपनाए जाने में सहायक होंगे| आपको मेरा साधुवाद|

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