–मनमोहन कुमार आर्य,
मनुष्य दो पैर वाले प्राणी के जीवित शरीर को कहते हैं जिसके पास बुद्धि है, दो हाथ हैं, जो सोच-विचार कर सत्य व असत्य का निर्णय कर सकता है और जो ज्ञान व विज्ञान की उन्नति कर अपने जीवन को दुःखों से निवृत्त कर सुखों से युक्त कर सकता है। इसी प्रकार आत्मा व जीवात्मा मनुष्य के शरीर के भीतर उपस्थित एक चेतन सत्ता को कहते हैं जो सत्य है, अल्प ज्ञान व कर्म करने की शक्ति से युक्त है। कर्म करने व सुख प्राप्ति के लिये जीवात्मा को मनुष्य अथवा अन्य किसी प्राणी के शरीर की आवश्यकता होती है। जीवात्मा इस ब्रह्माण्ड में संख्या की दृष्टि से अगण्य वा अनन्त हैं। हम संसार में जितने भी मनुष्य व अन्य चेतन प्राणियों को देखते हैं वह सब अपने शरीरों में एक जीवात्मा से युक्त हैं। यह जीवात्मा अनादि, अनुत्पन्न, नित्य, अविनाशी, अमर, अजर, ससीम, जन्म व मरण धर्मा, कर्मों का कर्ता और उसके फलों का भोक्ता है। यह अनादि व अनन्त है अर्थात् इसका आरम्भ व अन्त नहीं है। यह भी जानने योग्य है कि मनुष्य योनि उभय योनि है जिसमें मनुष्य पूर्व कृत कर्मों के फल भोगता है और नये कर्म करता भी है। अन्य प्राणी योनियां केवल भोग योनियां हैं जिसमें उन प्राणियों की आत्मायें अपने अपने पूर्वजन्मों में किये गये पाप व पुण्य कर्मों का फल भोगती हैं। यह भी जानने योग्य है कि मनुष्य या किसी भी प्राणी को जो सुख व दुःख होते हैं वह उसके शरीर को नहीं अपितु उसकी आत्मा को ही होते हैं। यह सुख दुःख उन्हें ईश्वर की व्यवस्था से प्राप्त होते हैं। ईश्वर सभी जीवात्माओं के भूतकाल की सभी योनियों के जीवन व कर्मों का साक्षी है। वह अनन्त बल से युक्त है और पक्षपात से रहित तथा न्यायकारी है। इसी कारण वह जीवों को पूर्व जन्मों के कर्मों का फल देता है। कोई कर्म ऐसा नहीं है जिसका फल ईश्वर की व्यवस्था से न मिलता हो। हम जो भी शुभ व अशुभ कर्म करते हैं उन सब कर्मों का फल हमें जन्म-जन्मान्तरों में अवश्य ही भोगना पड़ता है। जीवों के कर्मों के फल देने के लिये ही ईश्वर सत्, रज व तम गुणों वाली प्रकृति से इस दृश्यमान जगत की रचना करने सहित सबका पालन भी करता है। इस सृष्टि में ईश्वर का अपना सुख व यश प्राप्ति आदि का कोई प्रयोजन नहीं है। वह सदैव सृष्टिकाल वा प्रलयकाल दोनों में आनन्द से युक्त रहता है। ईश्वर का आनन्द उन योगी व ऋषियों को भी प्राप्त होता है जो ईश्वर की उपासना, ध्यान व समाधि आदि का सेवन करते हैं। ऋषि व योगी वही होते व हो सकते हैं जो वेदों के ज्ञानी हों व सद्कर्मों को करने वाले होते हैं। वेदानुकूल कर्म करना ही मनुष्य का कर्तव्य है और असत् व वेदविरुद्ध कर्मों का त्याग ही मनुष्य का धर्म है। इसलिये धर्म का कोई विशेषण हो सकता है तो वह केवल वेद या वैदिक ही हो सकता है क्योंकि वेद की पुस्तकों में ही मनुष्य के सत्य व यथार्थ कर्तव्यों का विधान है।
जीवात्मा अपने स्वतन्त्र व मौलिक अस्तित्व जो शरीर रहित होता है, उसमें सुख व दुःख का अनुभव नहीं कर सकता। इसके लिये उसे सबसे श्रेष्ठ मनुष्य योनि में जन्म लेकर स्वस्थ शरीर रखते हुए ज्ञान प्राप्ति सहित पुरुषार्थ से संयुक्त होना होता है। इस कार्य में परमात्मा उसका सहायक होता है। परमात्मा सृष्टि की उत्पत्ति, इसका पालन तथा प्रलय करने के साथ जीवात्मा को उनके पूर्वजन्मों के कर्मों के अनुसार जन्म देने व सुख व दुःख का भोग कराने में पूर्णतः समर्थ है। यह भी ज्ञातव्य है कि परमात्मा व जीव का सम्बन्ध एक ओर जहां व्याप्य व व्यापक का है वहीं दूसरी ओर यह सम्बन्ध पिता-पुत्र का भी है। जीवात्मा के जन्म लेने के बाद अन्य माता-पिता, भाई-बहिन, दादी-दादा व नानी-नाना, धर्मपत्नी सहित मित्र व शत्रुओं आदि से जो सम्बन्ध होते हैं वह अस्थाई होते हैं। जन्म के समय सम्बन्ध बनता है और मृत्यु होने पर यह सम्बन्ध समाप्त हो जाता है। परमात्मा और हमारी जीवात्मा का सम्बन्ध अनादि काल से है और अनन्त काल तक रहेगा। इसलिये हमें ईश्वर की अवज्ञा नहीं करनी है। यदि करेंगे तो उसका दुःख रूपी फल हमें भोगना होगा। हमारे ऋषि, मुनि, विद्वान व योगी सब वेदों के विद्वान होते थे और वेदानुकूल जीवन के महत्व से भली भांति परिचित होते थे। इसी कारण वह पाप, भोग तथा सुखों आदि से दूर रहकर ईश्वर की उपासना, ज्ञानार्जन, अग्निहोत्र-यज्ञ, परोपकार के कर्म तथा मातृ-पितृ-आचार्यों आदि की सेवा व पूजा आदि में अपना समय व्यतीत करते थे। यह सभी देशभक्त और वैदिक धर्म के अनुयायी होते थे और सरलता व सादगी से जीवन व्यतीत करते थे। यही मनुष्यता के आदर्श थे व हो सकते हैं। हमें इन्हीं व राम, कृष्ण, चाणक्य, दयानन्द, श्रद्धानन्द, लेखराम, गुरुदत्त तथा महात्मा हंसराज आदि के जीवन से प्रेरणा लेकर स्वयं को उनके अनुरूप बनाना है। इसी से हमारे जीवन का कल्याण हो सकता है।
परमात्मा ने मनुष्य की आवश्यकतायें बहुत सीमित बनाई है। इसके जीवन निर्वाह के लिये भोजन चाहिये जिसके लिये शाकाहारी भोजन जिसमें अन्न, वनस्पतियां, ओषधियां, गोदुग्ध, फल आदि की मुख्यतः आवश्यकता होती है। मनुष्य जीवन के लिये वायु एवं जल की भी आवश्यकता होती है। यह ईश्वर ने प्रचुर मात्रा में हमें दिया है। मनुष्य को कुछ वस्त्रों की आवश्यकता होती है जिसे उपलब्ध कराया जा सकता है। एक घर की भी आवश्यकता होती है जिसके लिये परमात्मा ने विशाल भूमि बनाई है और भवन निर्माण की नाना प्रकार की सामग्री भी दी है। अतः हमें त्यागपूर्वक इन सब पदार्थों व सामग्री का उपयोग करना चाहिये। हमारी भावना अपरिग्रह की होनी चाहिये। वेद में सृष्टि के सभी पदार्थों का भोग त्याग पूर्वक करने की प्रेरणा की गई है। यदि हम परिग्रही बनेंगे तो हमें ईश्वर से दण्ड मिलेगा। इस दण्ड व दुःख से बचने के लिये और ईश्वर की साधना में सफलता प्राप्त करने के लिये हमें सभी यम व नियमों सहित अपरिग्रह पर भी विशेष ध्यान देना चाहिये। हम कई लोगों को देखते हैं जो वृद्धावस्था में हैं, उनके पास प्रचुर मात्रा में धन है, आय के अनेक स्रोत व पेंशन आदि भी हैं परन्तु फिर भी वह वृद्धावस्था में भी धनोपार्जन में लगे रहते हैं। अग्निहोत्र यज्ञ से भी अपरिचित हैं व इसे करना वह उचित नहीं समझते। ऐसे लोगों के विषय में तो यही लगता है कि वह मनुष्य हैं तो अवश्य परन्तु उनका जीवन ईश्वर की वेदाज्ञा के अनुकूल न होने से पूर्ण इस जन्म में सुखदायक व कल्याणकारी और मृत्यु के बाद पुनर्जन्म में अधिक सुखों की स्थिति से युक्त होने की सम्भावना नहीं है। हमें ईश्वरोपासना, वेदों व ऋषियों के ग्रन्थों के स्वाध्याय सहित अग्निहोत्र व परोपकार आदि श्रेष्ठ कर्मों को करते हुए वेदानुकूल जीवन ही व्यतीत करना चाहिये। वही सबसे अधिक प्रशस्त है।
मनुष्य भले ही धनोपार्जन व धन संग्रह सहित सुखोपभोग की कितनी भी सामग्री एकत्र कर ले, यदि वह ईश्वर और जीवात्मा को जानने के लिये स्वाध्याय नहीं करेगा तो उसे अपने कर्तव्यों का भलीभांति ज्ञान नहीं हो सकता। विद्वानों के उपदेशों से भी हमें अनेक लाभ होते हैं। इससे हमारे संस्कार भी बनते हैं और कर्तव्यों का बोध होता है। ध्यान आदि साधना हमें अवश्य करनी है इसी से इस जीवन तथा परजन्म में हमें सुख लाभ होगा। अतः हमें जीवात्मा को जानकर तथा मनुष्य जीवन के लक्ष्य धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष को भी जानना व समझना है। इसी से हमारा कल्याण होगा और जीवन सफल होगा।
मनुष्य को क्या करना है और क्या नहीं, इसका ज्ञान परमात्मा ने सृष्टि के आरम्भ में चार ऋषियों को वेद ज्ञान देकर कराया था। हमारे ऋषियों व विद्वानों ने सृष्टि के अनादि काल से अब तक वेदों को पूर्ण शुद्ध रूप में सुरक्षित रखा है। हमारा सौभाग्य है कि ऋषि दयानन्द के प्रशनीय प्रयत्नों से हमें वेदों का ज्ञान अपने यथार्थ व सत्य अर्थो सहित प्राप्त हैं। सत्यार्थप्रकाश उनका प्रतिनिधि ग्रन्थ है। हमें इसका व उनके अन्य ग्रन्थों का स्वाध्याय कर वेदानुकूल जीवन व्यतीत करना है। सृष्टि में वेद ही यथार्थ मनुष्य धर्म का एकमात्र ग्रन्थ है। अन्य सभी ग्रन्थ अविद्या व मिथ्या मान्यताओं व परम्पराओं का विधान करते हैं। इन मत-मतान्तरों के कारण ही संसार में एक मत दूसरे मत के अनुयायियों के शत्रु बने हुए हैं। इससे अनुमान होता है कि जब तक सभी मत अविद्या को छोड़कर अविद्या व सद्ज्ञान का आश्रय नहीं लेंगे और अविद्या को नहीं छोड़ेंगे तब तक विश्व में पूर्ण सुख व शान्ति अर्थात् कल्याण की स्थापना नहीं हो सकती। ऋषि दयानन्द ने वेदों का प्रचार तथा सत्यार्थप्रकाश आदि वैदिक ग्रन्थों की रचना इसी कारण से की थी। मनुष्य को अपनी जीवात्मा के स्वरूप को पहचान कर व अपने कर्तव्यों को जानकर धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष की प्राप्ति के लिये प्रयत्नशील होना है। वैदिक मान्यताओं का ज्ञान व जीवन के उद्देश्यों की प्राप्ति के साधन ऋषि दयानन्द के ग्रन्थों को पढ़कर समझे जा सकते हैं। वेदाचरण से इतर अन्य कोई मार्ग जीवन के कल्याण करने का नहीं है। वेदों का अध्ययन व उसके अनुसार कर्म ही मनुष्य को करने आवश्यक हैं। इसी से वह सुख, आनन्द व कल्याण को प्राप्त कर सकता है। ओ३म् शम्।