मनुष्य के पतन का एक मुख्य कारण लोभ की प्रवृत्ति

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मनमोहन कुमार आर्य

काम, क्रोध, लोभ व मोह मनुष्य के प्रबल शत्रु हैं जो मनुष्य का जीवन नष्ट कर देते हैं। मनुष्य मदिरा के नशे की भांति जीवन में इनके वशीभूत रहता है। इनसे बचने का उपास केवल अविद्या का नाश है जिसके अनेक उपाय हैं, परन्तु बहुत से लोगों को इन उपायों का ज्ञान नहीं है। यह अविद्या रूपी शत्रु उन्हें अपने पाश व बन्धनों में जकड़ लेती है जिससे बहुत से मनुष्य इसके प्रभाव से अपना जीवन दुःखमय बना लेते हैं। इसी कारण महर्षि दयानन्द को आर्यसमाज के नियमों में प्रावधान करना पड़ा कि अविद्या का नाश और विद्या की वृद्धि करनी चाहिये। पहला प्रश्न तो यह है कि मनुष्यों को पता होना चाहिये कि वह अविद्या से ग्रस्त हैं व उसे उन्हें छोड़ना हैं, तभी वह अपना सुधार कर सकेंगे। इसके लिए यह जानना आवश्यक है कि मनुष्य के जीवन पर उसके प्रारब्ध का भी प्रभाव रहता है। कुछ संस्कारी आत्मायें होती हैं जिनमें बुराईयां कम व अच्छाईयां अधिक होती हैं। कुछ आत्मायें ऐसी होती हैं जो अपने प्रारब्ध और इस जीवन के परिवेश के अनुसार सत गुणों की प्रधानता से युक्त ाहेती हैं और अधिकांश रज व तमों गुणों से युक्त होती हैं जिसका प्रभाव उनके स्वभाव, प्रकृति व व्यवहार आदि पर रहता है। इसे कोई सच्चा ज्ञानी ही जान सकता है व उसे दूर करने के उपाय बता सकता है।

 

लोभ क्या है, लोभ लालच को कहते हैं। लालच का अर्थ है कि बिना उचित तरीकों के व धर्म, अधर्म, कर्तव्य, अकर्तव्य, उचित, अनुचित तथा आचार अनाचार का विचार किए अपनी इच्छित व पसन्द की वस्तुओं व पदार्थों को प्राप्त करने की अभिलाषा व इच्छा करना व उसमें अविवेकपूर्वक प्रवृत्त होना। लोभ के कारण समाज में अव्यवस्था फैलती है। यदि कोई व्यक्ति अवैध तरीकों से अनुचित आचरण से किसी वस्तु को प्राप्त करता है तो वह शासन के नियम के अनुसार अपराधी माना जाता है और ईश्वरीय नियमों में भी अपराधी होता है। हमारे समाज में नाना प्रकार के चोर होते हैं। वह लोभ की प्रवृत्ति व अपनी आदत के अनुसार अनुचित तरीकों से दूसरों का धन व सम्पत्तियों को हड़पने का कार्य करते हैं। कई बार प्रशासन के भ्रष्ट लोग भी उनके सहयोगी बन जाते हैं। उनका काम आसान हो जाता है और वह बुरे कामों में सफलता प्राप्त कर लेते हैं। लोकोक्ति है कि धन से मनुष्य की तृप्ति कभी नहीं होती। उसकी लोभ की प्रवृत्ति बढ़ती जाती है और एक समय ऐसा आता है कि जब परिस्थितियां उनके प्रतिकूल हो जाती हैं और वह कानूनी शिंकजे में फंस जाता है। इससे उसका अपमान तो होता ही है, उसे नाना प्रकार के दुःख भी होते हैं। सद्ज्ञान प्राप्त न होने के कारण वह उससे बचने के उपाय तो करता है परन्तु उसे अपनी प्रवृत्ति बदलने की शिक्षा कहीं से नहीं मिलती। आजकल ऐसे बहुत से मामले प्रकाश में आ रहे हैं जब भ्रष्ट आचरण से कमाये कालाधन रखने वाले व गलत काम करने वाले कानून की गिरफ्त में आ रहे है और अपमानित व दुःखी हो रहे हैं। यह ईश्वर की व्यवस्था है कि ‘अवश्यमेव हि भोक्तव्यं कृतं कर्म शुभाशुभं’ अर्थात् शुभ व अशुभ कर्म करने वालों को अपने किये हुए कर्मों का फल भोगना ही पड़ता है। अपराध सार्वजनिक होने पर लोभी मनुष्य क्लेशित व दुःखी होता है तथा पछताता है। अतः मनुष्य को अपने मन व लोभ पर नियन्त्रण करना चाहिये। परन्तु इसका उपाय कहां से व किससे पता चल सकता है?

 

इसका उपाय आर्यसमाज वा वैदिक साहित्य के स्वाध्याय से मिलता है। इसके साथ योगाभ्यास, सन्ध्या व पंचमहायज्ञों को करने वाले भी पाप व दुष्कर्मों सहित सभी प्रकार के मिथ्याचरणों से बच सकते हैं। लोभ एक प्रकार का आत्मा का वा आत्मा में विकार है। इसको आत्म ज्ञान, जिसे विद्या कह सकते हैं, उससे दूर किया जा सकता है। विद्या सच्चे वैदिक विद्वानों की शरण में जाकर उनके उपदेश व सत्संग से प्राप्त होती है। वेदों एवं वैदिक साहत्य सहित ऋषि दयानन्द के ग्रन्थ सत्यार्थप्रकाश आदि के अध्ययन व स्वाध्याय से भी अविद्या को दूर किया जा सकता है। योगाभ्यास, सन्ध्या आदि पंचमहायज्ञों से भी अविद्या को कम वा दूर किया जा सकता है। यह सब कुछ करने के बाद भी हो सकता है व प्रायः होता है कि लोभ ज्ञान के स्तर पर तो दूर हो जाये परन्तु आचरण से पूरी तरह दूर न हो। इसका उपाय यह है कि लोभ से होने वाली बड़ी बड़ी हानियों की सच्ची घटनाओं से सम्बन्धित साहित्य को ध्यान पूर्वक पढ़ा जाये व उसे पढ़ कर लोभ की प्रवृत्ति को छोड़ने का संकल्प लिया जाये। यदि संकल्प नहीं करेंगे तो लोभ की प्रवृत्ति कभी भी आक्रमण कर सकती है और मनुष्य से पाप व अधर्म करा सकती है। अतः लोभ की प्रवृत्ति से होनी वाली बड़ी बड़ी हानियों की घटनाओं पर ध्यान देना चाहिये और शुभ संकल्प धारण करने चाहिये। यह ध्यान रखना चाहिये कि एक शुभ संकल्प मनुष्य को बहुत आगे अर्थात् उन्नति की ओर ले जाता है। ऋषि दयानन्द ने सन् 1939 की शिवरात्रि को सच्चे शिव वा ईश्वर को जानने व उसे प्राप्त करने का संकल्प लिया था। इस संकल्प ने उन्हें विश्व का श्रेष्ठ व सर्वोत्तम धार्मिक विद्वान व विश्व गुरु बना दिया। यज्ञों में पशु हिंसा के विरोध का संकल्प लेने वाले महात्मा बुद्ध भी अपने समय में विश्व के पूज्य बने थे। हम स्वयं भी एक मित्र के द्वारा आर्यसमाज के सम्पर्क में आये और हमने ऋषि दयानन्द के जीवन चरितों सहित उनके प्रायः सभी ग्रन्थों का अध्ययन किया। इससे हमें अनेक अच्छे मित्र तो मिले ही साथ में हमारी अविद्या भी कम हुई। हमारे सेवाकाल में अनेक लोग हमारे सम्पर्क में आये। हमने देखा कि धर्म व वेदादि विषयों में उनका ज्ञान प्रायः शून्य होता है। सद् ग्रन्थों व सत्पुरुषों के संग का जो भी मनुष्य सेवन करेगा, वह अवश्य ही लाभान्वित होगा, उसकी लोभ की प्रवृत्ति पर भी अवश्य अंकुश लगेगा और वह अशुभ कर्मों से बच सकेगा।

 

लोभ तो अवनति व पतन की ओर धकेलता ही है, इसके अतिरिक्त काम, क्रोध व मोह से भी मनुष्य का पतन होता है। हमें इन शत्रुओं को पहचानना चाहिये और इनसे मित्रता न कर शत्रुता ही करनी चाहये। यदि मित्रता करेंगे तो वर्तमान नहीं तो भविष्य में हानि अवश्य उठानी होगी। अतः इन व अन्य सभी शत्रुओं से बचने के लिए आर्यसमाज की शरण में जाकर हमें सत्यार्थ प्रकाश सहित ऋषि दयानन्द के सभी ग्रन्थों व इसके साथ वेद, दर्शन, उपनिषदों व समस्त वैदिक वांग्मय का अध्ययन करना चाहिये। विज्ञान ने आजकर यह सभी पुस्तकें हिन्दी भाषा में पुस्तक रूप में व इंटरनैट पर भी उपलब्ध करा दी हैं जिनका अध्ययन कर हम शास्त्रों का ज्ञान प्राप्त कर सकते हैं। इन ग्रन्थों की उपलब्धि व ज्ञान महर्षि दयानन्द से पूर्व देशवासियों को सुलभ नहीं था। वेद का आदेश है कि मनुष्य को मनुष्य बनने का प्रयास करना चाहिये ‘मनुर्भव’। मनुष्य शुभ गुणों से युक्त मनुष्यों को ही कहते हैं। अशुभ गुणों वाले मनुष्य होकर भी मनुष्य नहीं कहे जा सकते। जिस प्रकार किसी पात्र में एक छिद्र हो जाये तो उसमें रखा जल सुरक्षित नहीं रहता, उसी प्रकार से यदि मनुष्य के जीवन में एक बुराई आ जाये तो वह जीवन मनुष्य जीवन न होकर पापयुक्त जीवन हो जाता है। अतः मनुष्य को पाप व अधर्म में प्रवृत्त करने वाले शत्रुओं लोभ, काम, क्रोध व मोह को जानकर इनसे अपनी रक्षा हेतु शुभ संकल्पों को धारण करना चाहिये। इसी के साथ इस लेख को विराम देते हैं। ओ३म् शम्।

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