लाल आतंक बेलगाम होता जा रहा है। नक्सली, गरीबों और आदिवासियों की मदद करने की आड़ में राज्य सत्ता को लगातार चुनौती दे रहे हैं। सुकमा में नक्सलियों ने जिस तरीके से कोहराम मचाया उसे देख-सुन कर पूरा देश स्तब्ध है। इस हमले ने फिर एकबार केंद्र और राज्य सरकार की खुफिया एजेंसियों की नाकामी को उजागर किया है। माओवाद या नक्सलवाद देश की आंतरिक सुरक्षा के लिए सबसे बड़ा खतरा बन गया है। नक्सलियों की हिंसक कारगुजारी का यह कोई पहला ज्वलंत उदाहरण नहीं है। वे ऐसी कई मिसालें पेश कर चुके हैं। पुलिस और सुरक्षाबलों को निशाना बनाते रहे हैं, पर पहली बार किसी राजनीतिक दल पर इतना बड़ा हमला किया है। लाल आतंक से निपटने के लिए केंद्र और राज्य की सरकारें ज्यों-ज्यों अपने अभियान तेज करती हैं यह और आगे बढ़ कर अपने पाँव पसारने लगता है। लाल आतंक भारतीय लोकतंत्र का ऐसा नासूर बन गया है जो नरम उपायों से ठीक नहीं हो सकता। नक्सलवाद से लड़ने के लिये दृढ राजनीतिक इच्छा शक्ति की जरूरत है जिसका इस समय घोर अभाव दिखता है।
नक्सलवाद भ्रष्ट राजनीति, नकारा शासन और जाति और वर्गगत असामानता की उपज है। जिसने अब माओवाद की शक्ल अख्तियार कर ली है। यह किसी ने सोचा भी नहीं था कि असंतोष से उपजा यह आंदोलन देश की लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था को चुनौती देनेवाला कारक बन जाएगा। पिछले कुछ सालों में नक्सल समस्या देश के करीब दो दर्जन राज्यों में फैल चुकी है। जबकि करीब 22 राज्यों में उनके सहयोगी और समर्थक मौजूद हैं। सात राज्य तो बुरी तरह प्रभावित हैं। नक्सलियों ने कुछ क्षेत्रों में सरकार के समानांतर अपनी सत्ता भी कायम कर ली है। नक्सलवाद या माओवाद के बढ़ते खतरे के बावजूद नक्सलियों से निपटने की स्पष्ट नीति का अभाव नजर आता है।
आज का नक्सल आंदोलन दिशाविहिन दिखाई देता है। एक विचारधारा और आदर्श को लेकर शुरू किया गया आंदोलन हत्यारों और लुटेरों को गिरोह बन कर रह गया है। नक्सल प्रभावित इलाकों में दहशत का साम्राज्य कायम हो गया है। लोग पलायन करने लगे हैं और जो बच गये हैं अपने घरों में सिमटते जा रहे हैं। जिन लोगों के अधिकार के नाम पर हथियार उठायी गयी थी उन्हें ही इसका सार्वधिक खामियाजा भुगतना पड़ रहा है। वे विकास से कोसों दूर है और उनपर दो तरफा हमला हो रहा है। पुलिस उन्हें नक्सली बता कर मार रही है और नक्सली मुखबिर बता कर। नक्सली अपने प्रभाववाले इलाके में सबकुछ नेस्तनाबूत कर देना चाहते हैं। नक्सली संगठन से जुड़े लोगों को यह समझना होगा कि हिंसा के बल पर व्यवस्था में परिवर्तन नहीं लाया जा सकता है। हिंसा हर लिहाज से निंदनीय है।
सुकमा में नक्सलियों के खूनी खेल के बाद सियासत का खेल शुरू हो गया है। विडम्बना है कि केंद्र और सूबों में न जाने कितनी सरकारें आईं और गईं पर किसी ने भी इस बीमारी को समूल खत्म करने की जहमत नहीं उठाई। नक्सल प्रभावित इलाकों के विकास पर करोड़ों खर्च हो रहे है। लेकिन जमीनी हकीकत यह है कि स्थिति जस की तस है। इस मामले में हर राजनीतिक दल अपना अलग-अलग राग अलापता रहा है। चुनाव के समय सियासी पार्टियां इनसे सहयोग लेने से भी नहीं हिचकतीं। आपरेशन ग्रीन हंट जैसे अभियान पूरी तरह से नाकाम सिध्द हुए हैं। वक्त आ चुका है की इस लाल आतंक का खात्मा जड़ से किया जाये। ऐसे मुद्दों पर सियासत नहीं। केन्द्र और नक्सल-प्रभावित राज्य को मिल कर इससे लड़ना होगा। नक्सलियों के खिलाफ सख्ती बरतनी होगी।
नक्सल आंदोलन 1967 में नक्सलवाडी से आरंभ हुआ। जहां पहली बार अनुसूचित जनजाति के लोगों द्वारा भूमिपतियों के विरूद्ध सशस्त्र विद्रोह किया गया। यह आंदोलन बुनियादी तौर पर भूमि सुधार, न्यूनतम मजदूरी, दलित-आदिवासी गरीबों की सामाजिक मर्यादा और जनतांत्रिक अधिकारों के सवाल पर केंद्रित था। यह जंगल के आग की भांति देश के विभिन्न भागों में फैल गया। अनुसूचित जाति एवं जनजाति का एक बहुत बड़ा भाग समाज की मुख्य-धारा से अलग होकर नक्सल आंदोलन से जुड़ गया। उस दौरान चारू मजूमदार और कानू सन्याल ने सत्ता के खिलाफ सशस्त्र आंदोलन की नींव रखी थी। चारू मजूमदार और कानू सन्याल के अवसान के साथ ही यह आंदोलन ऐसे लोगों के हाथों में चला गया जिनके लिए निहित स्वार्थ सर्वोपरि थे। इस आंदोलन के पीछे भले ही काफी उच्च आदर्श एवं सराहनीय उद्देश्य रहे किन्तु कालान्तर में वह अपने उद्देश्य से भटक कर देश और समाज के लिए अभिशाप बन गया। नक्सलवादी आंदोलन बिहार तक पहुँचते-पहुँचते अपने मूल स्वरूप और उद्देश्य से भटक चुका था। वह हिंसक होने के साथ ही जातीय संघर्ष के तौर पर प्रस्फुटित हुआ। इसी दौर में नक्सलवादी संगठन के नाम पर जाति आधारित निजी सेनाओं का गठन प्रारंभ हुआ। भूमिहीनों को जमीन दिलाने के नाम पर माओवादी कम्युनिस्ट सेंटर, सीपीआई (एमएल ) और पीपुल्स वार ग्रुप जैसे दर्जनो माओवादी हिंसक सेनाएं खड़ी हुई। बिहार का इतिहास रूसपुर चंदवा, पिपरा, बेलछी आदि जनसंहारों और भूमि सेना, लोरिक सेना, सनलाइट सेना आदि सेनाओं का गवाह रहा है। रणवीर सेना का उदय जनसंहार और निजी सेनाओं से सुपरिचित बिहार के लिए एक नई परिघटना के रूप में सामने आया।
नक्सलवाद को बढ़ावा देने वाले कारक आज भी मौजूद हैं। गरीबी अपने स्थान पर यथावत है, भूमि-सूधार कार्यक्रम आज भी उपेक्षित है, बेरोजगारी अपने चरम पर है, दूरस्थ क्षेत्रों में सरकार की योजनाओं का पहुंच नहीं के बराबर है। नक्सल प्रभावित क्षेत्र के लोगों का विश्वास जीतना बेहद जरूरी है। नक्सलवाद को समाप्त करने के लिए सर्वप्रथम सरकार को इन क्षेत्रों के सामाजिक-आर्थिक विकास पर विशेष ध्यान देना होगा। भूमि-सूधार कार्यक्रम को दृढता से लागू करना होगा। फलतः समाज में भूमि असमान वितरण को दूर किया जा सकेगा जो साम्यवादी व्यवस्था के सोच को संतुष्ट करेगा। सुदूर क्षेत्रों में आधारभूत संरचना का विस्तार कर उन पिछड़े क्षेत्रों को राष्ट्र की मुख्यधारा से जोड़ना होगा। तभी उन क्षेत्रों में रोजगार से अवसर सृजित हो सकेंगे तथा वहां के युवाओं को रोजगार मिल सकेगा और वे समाज की मुख्य धारा जुड़ने में कामयाब हो सकेंगे।